फिल्म समीक्षा – व्हाट आर द ऑड्स

– डॉ. अरुण सिंह

कल एक फ़िल्म देखी “What are the Odds?”. जैसा फ़िल्म का शीर्षक है, वैसी ही इसकी विषयवस्तु। विचित्र! पूरी तरह ईसाई/अंग्रेजी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है फ़िल्म। दो स्कूल के विद्यार्थी किसी हिंदी प्रतियोगिता के दौरान अनायास ही मिलते हैं। पर हिंदी बोलते बिल्कुल भी नहीं। कान्वेंट में पढ़ते हैं। केवल नाम से हिन्दू हैं : अश्विन (लड़का) और विवेक (लड़की)। उनके उत्सव और जीवनचर्या ईसाइयत से भरे हुए हैं। कुछ चरित्र सांता क्लॉज़ के जैसे कपड़े पहने हुए विक्षिप्तों की तरह भटकते रहते हैं। अर्थात् उनके पास अकूत संपत्ति है ऐसी जीवनचर्या के लिए। वे जीवन का आनंद “विचित्रता” में खोजते दिखाई देते हैं। व्यक्ति की वय, लिंग इत्यादि इनके लिए कोई अर्थ नहीं रखती। बच्चे ऐसा दावे के साथ कहते हैं। विवेक जो अवस्यक है, 40 वर्ष के संगीतकार वैल को पंसद करती है और उस से संबंध स्थापित करना चाहती है। अश्विन भी एक अधिक उम्र की महिला के साथ संबंध रखता है। समलैंगिकता का भरपूर समर्थन किया गया है। वस्तुतः, स्वतंत्रता के नाम पर घोर, पाशविक स्वच्छंदता परोसी गयी है। ग्रामीण अंचल के किसान अश्विन और विवेक के लिए कोई जिज्ञासा की वस्तु लगते हैं। एक साधारण से शराबखाने में शराब परोसने वाला नौकर भी धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलता है। फ़िल्म में अंग्रेज़ीकृत भारत की छवि प्रस्तुत की गई है। मैकॉले द्वारा थोपी गयी शिक्षा पद्दति का वास्तविक रूप दिखाया गया है, जिससे भारतीय जनमानस अब भी अपरिचित है। अंग्रेज़ी की अंधी दौड़ में ईसाई संस्कृति पैर पसार चुकी है और निस्संदेह, बॉलीवुड का इसमें बड़ा हाथ है।

 

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