बॉलीवुड, अवसाद और वर्तमान शिक्षा पद्धति
डॉ. अरुण सिंह
बॉलीवुड अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने 14 जून को मुम्बई में स्थित अपने घर में आत्महत्या कर ली। इस घटना ने पूरे देश के अंतःकरण को झकझोर दिया है। सोशल मीडिया शोक संवेदना से भरा पड़ा है। कई प्रश्न खड़े करती है हमारे सामने यह घटना। हमारी पूरी सामाजिक और शैक्षिक व्यवस्था पर भी सवाल उठते हैं। आखिर क्यों एक 34 वर्ष के सफल युवा अभिनेता ने अपना जीवन समाप्त कर लिया? क्यों इतनी चोटी की सफलता के पश्चात भी जीवन में अवसाद, अधूरापन और निराशा हैं? सुशांत के अनुभव से यह तो सिद्ध होता है कि भौतिक सफलता और संपन्नता जीवन की सफलता का कोई पैमाना नहीं है।
आजकल मानसिक अवसाद के मामले बहुतायत में देखने को आ रहे हैं। परंतु अधिकांश लोग इस पर समय के साथ विजय पा लेते हैं। इसके निराकरण हेतु अध्यात्म का सहारा लिया जाता है। इसमें भारतीय योगशास्त्र और विपस्सना लोकप्रिय, स्थायी और कारगर तरीके हैं। एलोपैथी चिकित्सा में अवसाद का कोई स्थाई निराकरण नहीं है। आजकल अवसादग्रस्त यूरोपीय लोग भी आंतरिक शांति हेतु भारत में आते हैं और इस पीड़ा से मुक्ति पाते हैं। वस्तुतः, अवसाद का उपचार हमारी मूल, भारतीय जीवन शैली में निहित है। किंतु विरोधाभास यह है कि भारत तेजी से इस बीमारी का सबसे बड़ा शिकार बनने जा रहा है। 2018 की WHO रिपोर्ट के अनुसार भारत में 6.5 प्रतिशत लोग किसी गंभीर मानसिक व्यथा के शिकार हैं।
इसके कारण जानने हेतु इसके मूल में जाना आवश्यक है। पाश्चात्य जीवन पद्धति भौतिक सुख सुविधाओं पर आधारित है। उसमें आध्यात्मिक सुख का अभाव है। और भारतीय परम्परा में “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः” का जीवन दर्शन रहा है, जिसमें सर्वप्रथम मनुष्य के स्वस्थ होने की कामना की जाती है। मानव जीवन की और आवश्यकतायें गौण हैं। अकूत पूंजी संचयन का पूंजीवादी विचार भारतीय नहीं है।
हमारे देश की संस्कृति का ताना-बाना बहुत मजबूत है। यहाँ परिवार के साथ, मित्रों को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। इतिहास में पृथ्वीराज-चंदबरदाई जैसे बहुत उदाहरण मिलते हैं। उदारीकरण के दौर में ये आदर्श आजकल पीछे छूटते जा रहे हैं। एकल परिवार की संस्कृति का चलन हो गया है और मेल-जोल की संस्कृति का क्षरण हो रहा है। शहरीकरण और पूंजीवाद के प्रभाव में व्यक्ति अपने पारिवारिक मूल्यों तथा देशी संस्कृति को गौण बना देता है।
भारतीय सिनेमा जगत में किसी कलाकार द्वारा अवसादजनित आत्महत्या का यह पहला उदाहरण नहीं है। परवीन बॉबी और जिया खान अन्य नामों में पहले से शामिल हैं। इन सभी लोगों के जीवन-अनुभव से पता चलता है कि सिनेमाई चकाचौंध, लोकप्रियता और सफलता व्यक्ति को आन्तरिक संतुष्टि प्रदान नहीं करते। इस सफलता और संपन्नता के अतिरिक्त भी कुछ आवश्यक और अभीष्ट होता है: अन्तस् की संतुष्टि। यह कुंठा की नाशक है। हिन्दू जीवन पद्धति में यह संतुष्टि निहित है। अपरिग्रह का सिद्धांत इसी सुख की ओर ले जाता है।
कालांतर में हमारी वैदिक शिक्षा पद्धति पर उपनिवेशवादी मैकॉले की नीति ने अधिकार जमा लिया। हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करने का मैकॉले का षड्यंत्र आज तक सफल हो रहा है। मैकॉले की योजना थी कि यदि किसी देश पर लंबे समय तक शासन करना है तो उसकी भाषा और संस्कृति को नष्ट करना होगा और उपनिवेशी संस्कृति थोपनी होगी। इसी प्रक्रिया में हमें अंग्रेज़ी के साथ अंग्रेज़ियत/ईसाईयत सिखाई गयी। दूसरी तरफ, साम्यवादी विचारधारा ने भी इस देश की सांस्कृतिक जड़ों को काटने का उपक्रम रचा है। जिस ‘रिलिजन’ शब्द की आलोचना साम्यवादी करते हैं, उसमें ‘धर्म’ शब्द नहीं आता। हिन्दू धर्म “धारयति इति धर्म:” वाली एक जीवन जीने की संस्कृति है। अंग्रेजों के अन्धानुसरण में तथाकथिक “सेकुलरिज्म” के नाम पर भारत की सांस्कृतिक/आध्यात्मिक परम्परा पर कुठाराघात किया गया। पाश्चात्य शिक्षा पद्दति में आज की पीढ़ी तथाकथित रूप से ‘आधुनिक’ तो बन रही है, उतना ही अपने सांस्कृतिक/आध्यात्मिक जड़ों से दूर होती जा रही है। मूल्यपरक शिक्षा के अभाव में डिग्रियां प्राप्त कर विद्यार्थी जीविका रूपी सफलता तो प्राप्त कर लेता है, परंतु जीवन दर्शन ग्रहण नहीं कर पाता। आज के भयावह परिदृश्य को देखते हुए हमें हमारी मूल वैदिक शिक्षा पद्दति की आवश्यकता है, जिसे मैकॉले द्वारा नष्ट किया गया। स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को जीवन की सार्थकता की सीख देना अत्यावश्यक हो गया है।
भगवद्गीता में कर्म को सर्वोपरि माना गया है, और कर्मफल की कामना को वर्जित बताया गया है। यह दर्शन विद्यार्थियों को सिखाये जाने की महती आवश्यकता है। कांग्रेस के शासनकाल में राजनीतिक तुष्टिकरण के चलते पाठ्यक्रमों में हिन्दू दर्शन, संस्कृति, इतिहास को सही जगह नहीं दी गयी। महापुरुषों के साथ भी न्याय नहीं हुआ। क्या सुशांत सिंह राजपूत स्वातंत्र्य वीर सावरकर के जीवन से प्रेरणा नहीं ले सकते थे? सावरकर ने जो यातनाएं सहीं, उनसे आज का युवा उत्कट सहनशीलता की प्रेरणा ले सकता है। अनन्त कान्हेरे 18 वर्ष के ही 1910 में नासिक में अंग्रेजों द्वारा फांसी पर चढ़ा दिए गए। सुशांत ‘धर्मनिरपेक्ष’, ‘रेडिकल’ विचार रखते थे। परंतु इसके साथ उन्हें भारतीय जीवन दर्शन से पुष्ट होना चाहिए था। श्री कृष्ण ने सुख-दुःख में समान रहने वाले व्यक्ति को ही मुनि कहा है।
यूनान मिश्र और रोमा,यह मिट गए जहां से।
अभी भी बाकी निशां हमारी।
कुछ तो बात है सरजमी में।
मिटती नहीं हस्ती हमारी।।
आप ने जो भारतीय संस्कृति का अनुपम ज्ञान दिया वास्तव में उसे स्वीकार करने की जरूरत हैं।
You are great sir
अरूणजी!
सुशान्त सिंह की आत्म हत्या पर लेख मे कारणो की चिन्ता व चिन्तन , मन – मस्तिष्क को झकझोरने वाला है।
बिना संस्कारो का जीवन नीरस ,निरूत्साही और बाधित ही रहता है
हमे भारतीय संस्कृति के उच्चतम मुल्यो के साथ जीने की आदत डालनी होगी।
वन्दे-मातरम्।
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