भ्रान्तियों के निवारण का महापर्व : स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव – 1

भ्रान्तियों के निवारण का महापर्व : स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव – 1

अवनीश भटनागर

भ्रान्तियों के निवारण का महापर्व : स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव – 1भ्रान्तियों के निवारण का महापर्व : स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव – 1

हम में से अधिकांश सौभाग्यशाली हैं कि हमारा जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ है। जिनका जन्म 20 वीं शताब्दी में हुआ है, उन्होंने परिवार के बड़े-बुजुर्गों से कभी-कभी स्वतंत्रता के आन्दोलन या अंग्रेजों के अत्याचार या भारत के स्वतंत्र होने के उत्सवों के बारे में सुना होगा या कुछ पुस्तकों-पत्रिकाओं में प्रकाशित विवरण सुना होगा या कुछ पुस्तकों-पत्रिकाओं में प्रकाशित विवरण पढ़ कर उस काल खण्ड का अनुमान मन में लगाया होगा, किन्तु वर्तमान पीढ़ी अर्थात् – 21वीं शताब्दी में जिनका जन्म हुआ है, उनको यह सब बताने वाले भी अब शायद शेष नहीं रहे। उनके लिए तो भारत सदैव से स्वतंत्र ही है, अधिकतम अपनी पाठ्य पुस्तकों में जो कुछ पढ़ लिया या उस काल खण्ड का चित्रण करने वाली कुछ फिल्मों से एकपक्षीय जानकारी उन्हें प्राप्त हो गई, वही उनके लिए सबसे बड़ा स्रोत है।

कैसा है वह स्रोत?

सीमित जानकारियाँ देने वाले इस साहित्य का आधार न तो कोई शोध कार्य है और न ही निष्पक्ष इतिहासकारों द्वारा लिखित है। यह सब एक विशेष विचारधारा, किसी विशेष राजनैतिक दल, किसी व्यक्ति या परिवार विशेष के महत्व को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करने वाला इतिहास है। यह कुछ वैसा ही हुआ है जैसे किसी परिवार में दस सदस्यों ने मिल कर परिश्रम किया हो और अच्छी फसल होने का श्रेय किसी एक व्यक्ति को दे दिया जाए, बल्कि फसल का श्रेय भर ही नहीं, फसल की सारी उपज उस एकमात्र व्यक्ति को ही सौंप दी जाए। योजनापूर्वक एक वर्ग का महिमा मण्डन करने के असीम दुराग्रह का षड्यंत्र कहा जा सकता है इसे, जो इतिहास की प्रामाणिकता को दूषित करता है तथा समाज के मानस में, अगली पीढ़ियों की दृष्टि में भ्रान्तियाँ उत्पन्न करने का कारक बनता है।

कैसी-कैसी भ्रान्तियां? कैसे फैल गईं?

हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स का कथन बहुत प्रसिद्ध हुआ है, “यदि एक झूठ को हजार बार बोला जाए तो वह सत्य प्रतीत होने लगता है।” समाज में स्थापित अनेक कुरीतियों-रूढ़ियों-मान्यताओं का आधार यही है। ऐसा ही कुछ देश की स्वतंत्रता के इतिहास के साथ भी हुआ, या कहिये कि जान-बूझ कर किया गया। जनसामान्य को संचार माध्यमों द्वारा और अगली पीढ़ी को उनकी पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से जो परोसा गया, वही उनके लिए एकमेव सत्य था। अंग्रेजों को इस देश पर अपनी सत्ता अनन्त काल तक स्थापित करके रखनी थी, इसलिए इस देश के मूल समाज को वैचारिक रूप से अपना दास बनाए रखने की उनकी योजना थी। इसलिए हमारी पिछली पीढ़ियों को बताया गया कि तुम्हारे पुरखे तो असभ्य थे, जंगली थे, निरक्षर थे, तुम्हारे पास कोई ज्ञान-विज्ञान-जीवन दृष्टि आदि नहीं थे, हम अंग्रेज आए तो हमने तुम्हें मनुष्य बनाया। ऐसी ही कुछ बातें पूर्ववर्ती मुगल शासकों ने हमें सिखाने-समझाने का प्रयास किया था और दुर्योग से उसी मानसिक दासता के शिकार अनेक आधुनिक काल के विद्वान भी हमें बताते हैं कि भारत में बिरयानी और बालूशाही जैसे व्यञ्जनों से लेकर ताजमहल और लाल किला जैसे वास्तुकला के नायाब नमूने हमें उनसे प्राप्त हुए, जिनके मूल स्थान में न बिरयानी के लिए चावल पैदा होता था और न ही भवन निर्माण के लिए उपयुक्त सुविधाएँ थी।

ऐसी भ्रान्तियों का निर्माण और निर्वाह करना अंग्रेजों की रणनीति होना स्वाभाविक ही था। यदि कोई जमींदार या उद्योगपति आज अपने कर्मचारियों को यह समझाए कि लोकतंत्र में मैं और तुम समान हैं, मैं मालिक नहीं और तुम नौकर नहीं, तो उसे अपना काम कराना कठिन हो जायेगा। इसलिए यदि उन परकीय आक्रान्ताओं ने इस देश के निवासियों को हीन सिद्ध करने का प्रयास किया, तो उनसे यही अपेक्षित था। जनसामान्य ने इसे मान भी लिया।

दुर्भाग्य का बड़ा कारण यह है कि स्वाधीनता के बाद भी इन प्रचलित भ्रान्तियों के उन्मूलन के प्रयास के बजाय, इन्हें और अधिक पुष्ट करने के प्रयास किए गए। समाज का राजनैतिक-सामाजिक-शैक्षिक नेतृत्व करने वाले वर्ग से यह अपेक्षित था कि भारत के गौरवशाली अतीत के विषय में, हमारे शौर्यवान पूर्वजों, हमारे ऋषि-मुनियों-संत-महात्माओं, हमारे सद्ग्रंथों, हमारी ज्ञान परम्परा, हमारे मान बिन्दुओं और श्रद्धा केन्द्रों, हमारी सांस्कृतिक धरोहरों और परम्पराओं आदि के विषय में अनुसन्धान कराये जाते, उन्हें पाठ्‌यक्रमों-पाठ्यपुस्तकों में स्थान दिया जाता और उन्हें विश्व पटल पर प्रचारित-प्रसारित किया जाता; परन्तु न जाने क्यों, यह सब नहीं हुआ।

15 अगस्त, 2021 से 2022 का यह वर्ष भारत की स्वाधीनता का 75वाँ वर्ष है, अमृत महोत्सव है। अंग्रेजी परम्परा से चलने वालों के लिए हीरक जयन्ती, Diamond Jubilee का हिन्दी अनुवाद। जिन्हें पराधीन भारत की थोड़ी भी स्मृति होगी, ऐसे वरिष्ठजनों की आयु अब अस्सी वर्ष या उससे अधिक ही होगी। जिसकी बहुत चर्चा होती थी उस 21वीं शताब्दी के भी 21 वर्ष निकल चुके हैं। यह सही समय है कि इस देश की  21वीं शताब्दी में जन्मी पीढ़ी को प्रचलित भ्रान्तियों की प्रेत छाया से मुक्त कराया जाए, उनके सामने वस्तुस्थिति रखी जाए – निष्पक्षता से, बिना लाग-लपेट के, बिना किसी का समर्थन-विरोध किए। विश्वास करना चाहिए कि यह नई पीढ़ी अधिक सूचना सम्पन्न है, अधिक विवेकशील है और भारत के भविष्य को लेकर उसके अपने स्वप्न भी हैं, उनको पूर्ण करने की इच्छा शक्ति भी है।

एक अटपटा प्रश्न

युवाओं-तरुणों-किशोरों के बीच जब बातचीत करने का अवसर मिलता है तो मैं उनसे प्राय: पूछता हूँ- ‘भारत स्वाधीन कब हुआ?’  सामान्यतः सबको इसका उत्तर ज्ञात होता है – ‘15 अगस्त, 1947’ अटपटा सा प्रश्न इसके बाद आता है – ‘फिर बताओ कि भारत पराधीन कब हुआ?’ प्रायः सब सोच में पड़ जाते हैं क्योंकि कभी किसी कक्षा की इतिहास विषय की पाठ्यपुस्तक में यह पढ़ा नहीं। कोई विचारशील-अध्ययनशील विद्यार्थी उत्तर देता भी है- ‘1757 के प्लासी के युद्ध के बाद’। मेरा पाठक वर्ग में से इतिहास के जानकार विद्वानों की इस उत्तर के प्रति सहमति की अपेक्षा है। इतिहास में हम यही पढ़ते-पढ़ाते हैं न!

मेरी समझ में भ्रान्तियों की शुरुआत यहीं से होती है। क्या वास्तव में भारत 1757 में हुए प्लासी के युद्ध के बाद ब्रिटिश उपनिवेश बन गया था? बंगाल के नवाब के विरुद्ध ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना के साथ हुए इस पहले युद्ध में धोखे से जीत प्राप्त करके ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत के एक छोटे से भूभाग पर कब्जा कर लिया था, परन्तु इससे सम्पूर्ण भारत तो अंग्रेजों का गुलाम नहीं हो गया था। यदि हो जाता तो 1764 में बक्सर में क्या हुआ था? 1757 से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक के सौ वर्षों की अवधि में स्थान-स्थान पर ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेनाओं को ब्रिटिश गजट के अनुसार छोटे-बड़े 38 युद्धों का सामना करना पड़ा। वे सब मनोरंजन के कार्यक्रम थे क्या? इस देश के शौर्य ने उन तथाकथित ‘विश्वविजेताओं – जिनके राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता’ को अपनी सामर्थ्य भर टक्कर दी थी। किन्तु यह बताया नहीं जाता।

तथ्य यह है कि सम्पूर्ण भारत कभी भी किसी भी आक्रान्ता का ‘गुलाम’ नहीं रहा।

भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आक्रमणों का क्रम तो इतिहास की प्रचलित काल गणना के अनुसार – 326 ई० पू० से ही प्रारम्भ हो गया था। सिकन्दर से शुरू हुआ क्रम शक-हूण-कुषाण-मंगोल-गजनी-गोरी-ऐबक-खिलजी-तुगलक-मुगल-पुर्तगाल-डच-अंग्रेज तक चलता ही रहा। कोई लूटपाट कर लौट गया, कुछ ने कुछ समय तक देश के किसी छोटे से भाग पर राज्य भी स्थापित किया किन्तु अंतिम परिणति दो में से ही किसी एक प्रकार की हुई – या तो इस देश के पराक्रम ने उन्हें पराजित कर वापस भगाया या फिर वे इसी भूमि के शरणागत हो गए। आज पूरे देश में ऐसा कोई व्यक्ति दावा नहीं करता कि उसके पूर्वज शक या हूण थे। 712 ई० में सिन्ध पर हुए मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से गिनती करें तो सिन्ध से दिल्ली, जो उस समय भी किसी न किसी रूप में सत्ता का केंद्र थी, की 500 मील की दूरी को पार करने में आक्रान्ताओं को 500 वर्ष से अधिक लग गए। हमारे पुरखों की यह कीर्ति हमारी अगली पीढ़ियों को कौन बताएगा? कौन बताएगा कि बप्पा रावल ने आक्रांताओं को अफगानिस्तान की सीमाओं से आगे तक खदेड़ा था जिसके कारण वे पुनः भारत की ओर आँख उठाने का दुस्साहस नहीं कर सके थे? कम्बु, कौण्डिन्य, राजराजा राजेन्द्र चोल, कट्‌टै बोम्मन, लाचित बड़फुकन के पराक्रम का वर्णन करने का दायित्व किस पर है, जब स्वयं हम यानी इस पीढ़ी के लोगों में से अधिकांश के लिए ये नाम अपरिचित हैं?

इसी प्रकरण से जुड़ी हुई एक और भ्रान्ति भी प्रचलित है। हमारे पाठ्यक्रम में स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रारंभ ही एक प्रकार से महात्मा गाँधी के लोक जीवन में प्रवेश के साथ शुरू हुआ बताया जाता है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को तो किनारे कर ही दिया गया, 1904-05 का बंग-भंग आन्दोलन, संन्यासी आन्दोलन जिसकी पृष्ठभूमि पर ‘आनन्द मठ’ की रचना हुई तथा 1857 से 1920 तक चले अन्य ब्रिटिश विरोधी आन्दोलनों को एक सीमा तक अमान्य कर दिया गया।

इस भ्रान्ति का एक अंश यह भी विचारणीय है कि हमारी पाठ्यपुस्तकों में तथा जन मान्यता में स्थापित कर दिया गया कि स्वतंत्रता का आन्दोलन तो केवल अंग्रेजों के विरुद्ध ही हुआ। फिर हल्दीघाटी में राणा प्रताप और उनके साथी वनवासी क्या पिकनिक मना रहे थे? छत्रपति शिवाजी महाराज अफजल खां और शाइस्ता खां का आतिथ्य करने गए थे? छत्रपति के निधन और संभाजी महाराज के क्रूरतापूर्ण वध के बाद भी अरावली की पहाड़ियों के बीच छिप कर जाँबाज  मावले किस के लिए युद्धरत थे? सिखों की महान गुरु परम्परा में गुरु तेगबहादुर से बन्दा बहादुर तक के बलिदान क्या इस देश और धर्म की रक्षार्थ नहीं हुए? दशमेश गुरु गोविन्द सिंह जी के चारों पुत्रों के बलिदान क्या इस देश की अस्मिता  की रक्षा के लिए नहीं थे? रानी दुर्गावती का युद्ध अकबर की सेनाओं से केवल गोंडवाना के राज्य की रक्षा के लिए हुआ था क्या? गजनियों-गोरियों-तुगलकों-खिलजियों-नादिरशाहों-तैमूरों-बाबरों-औरंगजेबों के अत्याचार को सहते हुए या अपनी क्षमता भर उन अत्याचारों का प्रतिकार करते हुए जिन्होंने अपने प्राण इस मातृभूमि की बलिवेदी पर न्यौछावर किए, वे सब स्वाधीनता के सेनानी, इस देश की संस्कृति के, गौरव के अस्मिता के रक्षक नहीं थे क्या? स्वतंत्रता के इस 75 वें वर्ष में उनको भी कोई स्मरण करेगा क्या?

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री एवं संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)

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