माता शीतला का लक्खी मेला
मनोज गर्ग
भारतीय त्योहार और मेले सामाजिक समरसता का अनुपम उदाहरण हैं। ऐसा ही एक परम्परागत मेला है माता शीतला का लक्खी मेला। राजधानी जयपुर से लगभग 40 किमी दूर चाकसू स्थित 300 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है माता शीतला का पावन मंदिर।
हिन्दू पचांग के अनुसार चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी (इस बार 1 अप्रैल) को यह लोकपर्व चाकसू स्थित शील की डूंगरी पर बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। शीतला अष्टमी को लोक भाषा में बास्योड़ा भी कहते हैं। माता शीतला को बच्चों की संरक्षिका माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन माता का पूजन करने से वर्ष भर परिवारजन चर्म रोग, खसरा, नेत्र रोग व चेचक (चिकन पॉक्स) जैसी बीमारियों से दूर रहते हैं।
होली के ठीक 8 दिन बाद लगने वाले इस 2 दिवसीय मेले की सम्पूर्ण व्यवस्था मंदिर ट्रस्ट तथा चाकसू नगर पालिका प्रशासन द्वारा की जाती है। इस पर्व पर माताजी को घर पर एक दिन पूर्व सप्तमी तिथि को बने हुए व्यंजनों का भोग लगाया जाता है और यही भोग प्रसाद स्वरूप घर के सभी लोग ग्रहण करते हैं। जिसे लोक भाषा में ‘राधा पुंआ’ कहते हैं। नव विवाहिताएं इस दिन कंडवारा भर कर परिवार के स्वास्थ्य व सुहाग रक्षा की प्रार्थना करती हैं।
आयुर्वेद के अनुसार ऋतु परिवर्तन से वातावरण में कई प्रकार के बदलाव देखने को मिलते हैं। सर्दी का जाना और गर्मी का आना, इस संक्रमण काल में मौसमी बीमारियों के होने की संभावना बढ़ जाती है। ऐसे समय में ठण्डा खाना खाने से मौसमी बीमारियों से लड़ने की शक्ति बढ़ती है। इस समय ठंडा भोजन पेट व पाचन तंत्र हेतु अच्छा माना जाता है।
मंदिर का इतिहास
मंदिर पर लगे शिलालेखों के अनुसार 500 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण जयपुर के महाराजा माधो सिंह ने करवाया था। ऐसा लोक प्रचलित है कि एक बार महाराज के दोनों पुत्रों को चेचक हो गया था। माता की कृपा से रोग मुक्त होने पर उन्होंने यहां मंदिर का निर्माण करवाया। आज भी सर्वप्रथम राजघराने की ओर से भेजे गए कंडवारे का ही माताजी को भोग लगाया जाता है, उसके बाद श्रद्धालुओं के भोग लगते हैं। श्रद्धालु अपनी-अपनी मान्यतानुसार पुए, पूरी, दही, राबड़ी, पकौड़ी, लापसी आदि व्यंजन माता को अर्पित करते हैं।
मेले का विशेष आकर्षण यहॉं लगने वाली विभिन्न समाजों की पंचायतें हैं, जिनमें आपसी मतभेदों (विवादों) को बड़ी आसानी से सुलझा लिया जाता है। इसके साथ ही यहां लगने वाला पशु मेला तथा स्थानीय लोगों द्वारा तैयार जूती, कपड़े, बर्तन व कृषि उपकरण इत्यादि का व्यापार भी होता है। मेले के दौरान सर्वोत्तम गुणवत्ता युक्त पशुधन रखने वाले को पुरस्कृत भी किया जाता है। दो दिवसीय मेले में श्रद्धालु विभिन्न खेलों व प्रतियोगिताओं का आयोजन करते हैं तथा रात्रि में जागरण के दौरान नाच-गाकर सभी का मनोरंजन करते हैं।
पौराणिक मान्यता
देवी पुराण के अनुसार माता शीतला एक बार बूढ़ी महिला का रूप धारण कर डूंगरी गांव पहुँचीं। गांव की गलियों से गुजरते समय एक घर से किसी ने गर्म चावल की मांड फेंक दी। इससे उनके शरीर पर फफोले हो गए। गांव में किसी ने सहायता नहीं की, तब एक कुम्हार ने पानी डालकर जलन को शांत किया और मटके में एक दिन पहले रखा दही और राबड़ी खिलाई। कुम्हार की सेवा से प्रसन्न होकर माता अपने वास्तविक रूप में आईं और वरदान स्वरूप सदा-सदा के लिए यहीं स्थापित हो गईं। ऐसा भी कहा जाता है कि कुम्हार के गधे को उन्होंने अपनी सवारी के रूप में शामिल किया। एक हाथ में झाड़ू और दूसरे हाथ में जल का कलश माता का वास्तविक स्वरूप है। माता का यह पर्व राजस्थान सहित पूरे उत्तर भारत में बड़ी श्रद्धा से मनाया जाता है।
(लेखक पाथेय कण के सह संपादक हैं)