मिलावट का जहर (कविता)

मिलावट का जहर (कविता)

 शुभम वैष्णव

मिलावट का जहर (कविता)

साल दर साल जिंदगी घट रही है,
दिल व फेफड़ों के रोगियों की संख्या बढ़ रही है,
मिलावट का जहर बिक रहा है बाजार में,
क्योंकि मिलावटखोरों की तिजोरिया भर रही हैं।

समय से पहले ही सब्जियां पक रही हैं,
बाजार में मिलावट के सामानों की दुकानें सज गयी हैं,
क्या खरीदें क्या ना खरीदें बाजार से,
हर दुकान पर मिलावट की सामग्री बिक रही है।

नकली चीजें असलियत का भ्रम रच रही हैं,
शुद्धता की फैक्ट्री अब बंद हो रही है,
सब शुद्धता का दावा करते हैं विज्ञापनों में,
क्योंकि विज्ञापनों से ही मिलावट बिक रही है।

प्रकृति में भी मिलावट हो रही है,
तभी तो हवा की शुद्धता घट रही है,
बेहिसाब रसायनों के उपयोग से,
उपजाऊ भूमि भी बंजर बन रही है।

मानव की गलती मानव को ही भारी पड़ रही है,
मिलावट से धन कमाने की होड़ बढ़ रही है,
लालच में इस कदर अंधे हो चुके हैं इंसान,
इसीलिए मिलावट भी सृजनता का प्रतीक बन रही है।

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