मेहनत की कीमत (लघुकथा)
शुभम वैष्णव
दीपावली की सजावट के लिए मुकेश ने दो चार दुकानों का रुख किया। लेकिन वहां चीनी माल की बिक्री देखकर उनका मन गुस्से से भर गया क्योंकि कुछ दिनों पहले सब दुकानदारों ने चीनी माल के बहिष्कार की घोषणा की थी, परंतु लोगों में चीनी आइटम्स की बढ़ती मांग को देखते हुए सभी दुकानदार चीनी सामान ही बेच रहे थे। उन्हें यह देखकर बड़ा दुख हुआ कि चीन के सस्ते माल ने भारत के संपूर्ण बाजार पर आधिपत्य स्थापित कर लिया है। चीनी माल ने भारत के बाजार के साथ-साथ भारत की जनता के दिल और दिमाग पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है।
मुकेश बिना कुछ खरीदे ही मॉल के बाहर निकले तो उनकी दृष्टि एक वृद्ध व्यक्ति पर पड़ी जो हाथ से बने मिट्टी के सुंदर दीपक बेच रहा था। सड़क के उस पार रखे उन सुंदर दीपकों को देखकर मुकेश उस वृद्ध व्यक्ति के पास पहुंच गए।
बाबा इस उम्र में आप यह दीपक क्यों बेच रहे हैं? अपने परिवार के दूसरे सदस्यों को ही भेज देते। मुकेश जी ने प्रश्नवाचक दृष्टि से कहा। बेटा मेरा एक ही बेटा था, वह बाढ़ के पानी में डूब कर मर गया। मेरे छोटे छोटे पोते हैं और एक बहू है वे भी गली-गली जाकर दीपक बेच रहे हैं। बाढ़ के कारण हमारा सब कुछ तबाह हो गया, हमारा घर, जीविका का साधन गाय और बकरियां…सब कुछ बाढ़ में बह गया। अब तो दो समय की रोटी के लिए भी दर-दर भटकना पड़ता है वयोवृद्ध ने नम आंखों से कहा।
बाबा ये सारे दीपक कितने रुपए के हैं मुकेश ने पूछा? 500 रुपए के हैं लेकिन आप 450 ही दे दो वृद्ध ने कहा। मुकेश ने 600 रुपए उन बुजुर्ग के हाथ में थमाते हुए कहा – देखो बाबा 500 रुपए तो दीपकों के हैं और 100 रुपए बच्चों की मिठाई के लिए हैं। बुजुर्ग बाबा ने इनकार करना चाहा परंतु मुकेश के आग्रह पर उन्होंने छह सौ रुपए ले लिए और बोले – काश बेटा इस मशीनरी के दौर में कोई गरीब की मेहनत की भी सही कीमत लगा पाता..! तुम्हारा घर सदा खुशियों से महकता रहे वृद्ध ने आशीर्वाद देते हुए कहा।
दीपावली के दिन सिर्फ मुकेश का घर ही दीपकों की रोशनी से नहीं जगमगा रहा था बल्कि उनके अंदर भी संतुष्टि का एक दीया दैदीप्यमान था। मुकेश को इस बात की खुशी थी कि उन्होंने अपना धन किसी विदेशी कंपनी को देने की बजाय अपने ही देश के गरीब को दिया है।