मैं पुस्तक हूँ (कविता)
वीरमाराम पटेल
सारे द्वंद्व को मिटाती हूँ,
अन्तस्तम को हटाती हूँ।
नवप्रकाश के प्रसार को,
नित जलती एक बाती हूँ, मैं पुस्तक हूं।।
ढूंढ सको तो ढूंढो सार,
भरे पड़े है बहुधा विचार।
जिसने भी स्वीकारा मुझे,
उसे सबने किया स्वीकार, मैं पुस्तक हूं।।
जननी हूँ सारी क्रान्तियों की,
औषधि हूँ सभी ग्रंथियों की।
भटकते मन की तसल्ली हूँ,
पाथेय हूँ सभी विश्रांतियों की, मैं पुस्तक हूं।।
जिसने भी मुझे नित पढ़ा है,
वह निरंतर आगे ही बढ़ा है।
दृढ़ संकल्पित होकर आज,
वह अग्रिम पंक्ति में खड़ा है, मैं पुस्तक हूं।