स्वस्थ लोकतंत्र के लिए राजनैतिक दल भी स्वस्थ हों
प्रणय कुमार
हिंदी सिनेमा का यह लोकप्रिय संवाद तो आपने सुना ही होगा- ” अब, तेरा क्या होगा रे कालिया!” उत्तर भी आप जानते ही हैं- ”सरदार, मैंने आपका नमक खाया है!” देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल की राजनीति भी प्रायः इसी लोकप्रिय संवाद और दृश्य का अनुसरण करती प्रतीत होती है। बीते तीन दिनों से देश-विदेश की मीडिया पार्टी के भावी अध्यक्ष पर माथापच्ची कर रही थी। संभावित नामों और चेहरों के कयास लगा रही थी। परंतु अंततः जो परिणाम निकला उसने समाज एवं देश को भले हतप्रभ किया हो, पर पार्टी के लिए यह कोई आश्चर्यजनक एवं नई बात नहीं है। उसकी रीति-नीति एवं कार्य-संस्कृति परिवार विशेष के आस-पास सिमटी रहती है। पार्टी के अधिकांश लोकप्रिय, अनुभवी एवं वरिष्ठ-से-वरिष्ठ नेता भी येन-केन-प्रकारेण परिवार विशेष के समक्ष साष्टांग दंडवत की मुद्रा में लोटते प्रतीत होते हैं।
एक ओर वंशवाद की विष-बेल को सींचने और परिपुष्ट करने के लिए नवोदित राजनीतिक प्रतिभाओं को उभरने न देना अनुचित है तो दूसरी ओर सत्ता के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता को खूँटी पर टाँगना भी न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। समर्पित-संघर्षशील-प्रतिबद्ध-परिपक्व कार्यकर्त्ताओं के स्थान पर उपनाम के साथ आने वाली संतति को नेतृत्व सौंपना कितना उचित है? देश में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सभी राजनैतिक दलों को वैचारिक निष्ठा, प्रतिभा, कार्यकुशलता आदि को अनिवार्यतः प्रश्रय एवं प्रोत्साहन देना चाहिए और वंशवाद तथा भाई-भतीजावाद जैसी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करना चाहिए।
भारत में वंशवादी राजनीति के शिखर-परिवार ने अपने ही 23 वरिष्ठ नेताओं द्वारा लिखी गई चिट्ठी को जिस तल्ख़ी एवं तेवर से लिया है, उसने एक बार फिर परिवार की विरासत सँभाले उत्तराधिकारियों की अलोकतांत्रिक सोच को उज़ागर किया है। नेतृत्व के लिए यह पत्र गंभीर एवं ईमानदार आत्ममूल्यांकन का अवसर होना चाहिए था। जैसे स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के दो-तीन दशकों तक काँग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व हर सवाल उठाने वालों को ‘विदेशी हाथों का खिलौना’ बताकर उनकी विश्वसनीयता को सन्देहास्पद बनाने की कुचेष्टा करता रहता था, वैसे ही विगत तीन दशकों से वह अपनी हर विफ़लता का ठीकरा संघ-भाजपा पर फोड़ने की असफल चेष्टा करता है।
भारत के मन-मिजाज़ को समझने में ‘सुशांत सिंह प्रकरण’ बहुत सहायक है। उनकी कथित आत्महत्या में फ़िल्म उद्योग में व्याप्त ‘भाई-भतीजावाद’ एवं ‘परिवारवाद’ की संदिग्ध भूमिका ने जिस प्रकार जन-मन को क्षुब्ध एवं आंदोलित कर रखा है, वह उदाहरण है कि देश वंशवाद और परिवारवाद से कितना खिन्न एवं आक्रोशित है?
लोकतंत्र में विपक्ष की बहुत सशक्त, महत्त्वपूर्ण एवं रचनात्मक भूमिका होती है। जन-भावनाओं एवं जन-सरोकारों की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए विपक्ष का मज़बूत होना अत्यंत आवश्यक होता है। समय की माँग है कि देश के सबसे बुजुर्ग राजनैतिक दल में आंतरिक लोकतंत्र क़ायम हो और वह फिर से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता प्राप्त करे।
यदि गंभीरता और गहनता से विचार करें तो यह वंशवाद, परिवारवाद एवं भाई-भतीजावाद ही भारतीय राजनीति में व्याप्त अनेकानेक बुराइयों की जननी है। भारत की प्रगति एवं समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि वंशवाद, परिवारवाद एवं भाई-भतीजावाद जैसी इन बुराइयों को त्याग कर देश की नई पीढ़ी को भी देश के राजनैतिक भविष्य में अपनी भूमिका निभाने का अवसर प्रदान किया जाए। सभी राजनैतिक दलों को इस बारे में योजना बनानी चाहिए और ज्यादा से ज्यादा युवाओं की राजनैतिक भागीदारी निश्चित करनी चाहिए। इसलिए देश के लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए देश के सभी राजनैतिक दलों का स्वास्थ्य भी लोकतांत्रिक होना चाहिए।