रामायण के सामरिक और रणनीतिक अध्याय भारत की विदेश और आंतरिक नीति को एक बेहतर दिशा दे सकते हैं
डा॰ अनूप कुमार गुप्ता
21वीं सदी में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में भारत एक बड़ी ताकत बनकर उभर रहा है और इस दृष्टि से राष्ट्रीय सुरक्षा विषय के साथ-साथ मित्र और शत्रु, युद्ध और शांति, सामरिक मामलों में बल के प्रयोग के स्वरूप संबंध में सनातन भारतीय सिद्धान्तों को विकसित किए जाने की आवश्यकता है। इसके लिए अतीत और वर्तमान दोनों के अध्ययन की आवश्यकता है। हमारे ऐतिहासिक ग्रंथ रामायण के सामरिक और रणनीतिक अध्याय भारत की विदेश और आंतरिक नीति को एक बेहतर दिशा दे सकते हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय संबंध सिद्धान्त के भारतीय नजरिए के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। आइए जानते हैं यह कैसे संभव है-
मर्यादा पुरुषोत्तम राजा रामचन्द्र भारत के राष्ट्रीय नायक हैं और रामायण एक राष्ट्रीय आख्यान है। रामायण में सामरिक चिंतन और रणनीति के दो प्रतिमान देखने को मिलते हैं। एक ओर राम सामरिक संस्कृति का प्रतिमान हैं तो दूसरी ओर रावण की सामरिक संस्कृति का प्रतिरूप देखने को मिलता है। सबसे पहले रावण के सामरिक चिंतन की बात करते हैं-
रावण का सामरिक चिंतन और रणनीति आक्रामक यथार्थवाद पर आधारित था। राजनीतिक-सामरिक संरचना का बहु-ध्रुवीय रूप रावण को पसंद न था। रावण एक-ध्रुवीय व्यवस्था की स्थापना करना चाहता था। रावण के सामरिक चिंतन और रणनीति में वर्चस्व, विस्तार और आक्रामकता पर बल दिया गया था। रावण की सामरिक संस्कृति में शक्ति संचय, शक्ति संवर्धन और शक्ति संरक्षण के साथ-साथ राज्य सत्ता के संरक्षण, संवर्धन और विस्तार पर बल दिया गया है।
रावण ने सत्ता विस्तार और वर्चस्व स्थापना के लिए साम और दाम की नीति की तुलना में दण्ड और भेद की रणनीति पर बल दिया था तथा संधि की तुलना में विग्रह के विकल्प पर बल दिया था। रावण की सामरिक संस्कृति और रणनीति में बल का आक्रामक प्रयोग और युद्ध एक आवश्यक तत्व है। रावण की युद्ध नीति में शत्रु के विरुद्ध छल और माया के प्रयोग पर बल दिया गया है। रावण की आक्रामक रणनीति से अयोध्या समेत आर्यावर्त के राज्यों की सुरक्षा और सामरिक स्वायत्ता को संकट आ गया था। रावण के यथार्थवाद का स्वरूप आक्रामक था न कि रक्षात्मक।
अब बात करते हैं राम के सामरिक चिंतन की-
राम की सामरिक संस्कृति में आदर्शवाद और यथार्थवाद का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। राम के चिंतन का मूल तत्व आध्यात्मिक अद्वैतवाद है। राम के सामरिक चिंतन में धर्म, न्याय और लोकमंगल की रक्षा के लिए बल प्रयोग के औचित्य पर भी ध्यान दिया गया है। न्याय और लोकमंगल की स्थापना के लिए राम के सामरिक चिंतन में बल प्रयोग के प्रति झिझक का भाव न था।
राम के सामरिक चिंतन और रणनीति में मित्रता और शत्रुता का आधार अर्थ न होकर धर्म था। धर्म, न्याय, लोकमंगल और लोककल्याण के विरोधी को राम ने शत्रु माना था। किन्तु शत्रुता को राम एक स्थायी भाव नहीं मानते थे। राम द्वारा उत्पीड़न, अत्याचार, अधर्म और समाज पर आसन्न संकट के प्रतिकार के लिए अंतिम विकल्प के रूप में ही बलप्रयोग का अवलंबन लिया गया है। राम के सामरिक चिंतन और रणनीति में बल प्रयोग का स्वरूप रक्षात्मक है न कि मनमाना। राम ने वर्चस्व, राज्य के विस्तार या पर-पीड़न के लिए बल का प्रयोग नहीं किया है।
शत्रु का सामना करने के पूर्व राम ने सैन्य शक्ति और रक्षा तैयारी पर पूर्ण ध्यान दिया था। राम ने शत्रु राज्य की सैन्य क्षमता को समझने के लिए अभिसूचना तत्व पर भी ज़ोर दिया था। विभीषण एवं उनके मंत्री अनल, पनस, संपाति और प्रमति ने राम को रावण के पक्ष की सैन्य सूचनाएँ देने का काम किया था। राम ने संधि नीति से मैत्री संजाल को बढ़ाकर अपना सामरिक पक्ष मजबूत किया और इसके बाद ही शत्रु पर विग्रह की नीति का प्रयोग किया था। रावण से विग्रह के पूर्व राम ने समाश्रय नीति का अनुसरण करते हुए सुग्रीव से मित्रता की स्थापना की थी।
रामायण में सामरिक संस्कृति का अध्ययन भारत में रक्षा और सामरिक अध्ययन विषय को भारतीय ज्ञान परंपरा से जोड़ने की एक महत्वपूर्ण कड़ी हो सकता है। रामायण में युद्ध और शांति, मित्रता और शत्रुता, हिंसा और अहिंसा, बल का प्रयोग और अ-प्रयोग, राजनयिक और सैन्य रणनीति के संबंध में दो प्रकार की धारणायें देखने को मिलती हैं, जिनका क्रमश: राम और रावण की सामरिक संस्कृति और रणनीति के रूप में विवेचन और विश्लेषण किया गया है। ये दोनों प्रतिमान समकालीन अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में राज्य-कर्ताओं के सामरिक चिंतन और सामरिक व्यवहार के विवेचन और विश्लेषण में सहायक हो सकते है।
(लेखक हिब्रू विश्वविद्यालय, इजरायल एवं जे॰ एन॰ यू॰ नई दिल्ली के पुरातन छात्र)