राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक वर्ष
अतुल कोठारी
29 जुलाई, 2020 को भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई थी। स्वतंत्र भारत की यह प्रथम नीति है जो भारत केन्द्रित एवं विद्यार्थी केन्द्रित है। इस नीति में समग्रता की दृष्टि के साथ-साथ भारतीय प्राचीन ज्ञान एवं आधुनिकता (ई-लर्निग आदि) तथा सिद्धांत के साथ व्यवहारिकता के समन्वय की बात कही गई है। इस कारण से देशभर में इस शिक्षा नीति का स्वागत किया गया है।
कोरोना महामारी के उपरांत देशभर में नीति पर व्यापक विचार विमर्श के कार्यक्रम आयोजित किए गए। कोरोना की दूसरी भयावह लहर के कारण यह प्रक्रिया खण्डित हो गई थी। आनन्द की बात है कि पुनः शिक्षा नीति पर विचार विमर्श प्रारम्भ हो गया है। परन्तु सबसे बड़ा प्रश्न है, इस नीति के क्रियान्वयन का? स्वतंत्र भारत में इसके पूर्व 1968 एवं 1986 में तत्कालीन केन्द्र सरकार द्वारा शिक्षा नीति प्रस्तुत की गई थी। इसके अतिरिक्त शिक्षा में सुधार हेतु 1949 में राधाकृष्ण आयोग, 1952 में मुदलियार आयोग एवं 1964 में कोठारी आयोग गठित किए गए थे। उन सभी ने कई अच्छे सुझाव दिए थे, परंतु दुर्भाग्य से इच्छा शक्ति के अभाव में इसका वास्तविक क्रियान्वयन नहीं हो सका। परिणामस्वरूप हमारी शिक्षा की गुणवत्ता का विकास नहीं हो पाया।
अतीत के इन अनुभवों को ध्यान में रखकर इस शिक्षा नीति के क्रियान्वयन पर विशेष कार्य करने की आवश्यकता है। हमारे देश में इस प्रकार की नीतियों के क्रियान्वयन की बात होती है, तब अधिकतर लोगों का मानना होता है कि यह सरकार का कार्य है। सरकार की निश्चित भूमिका है, परंतु लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी नीति की सफलता के लिए सरकार एवं समाज दोनों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। इस दृष्टि से शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में केन्द्र सरकार, राज्यों की सरकारें, विश्वविद्यालय, शिक्षाविद, शिक्षक, अभिभावक एवं छात्रों आदि की भूमिका अपेक्षित है, तभी समग्रता से क्रियान्वयन हो सकेगा।
कुछ निर्णय केन्द्र सरकार के स्तर पर होते हैं, जैसे उच्च शिक्षा आयोग का गठन, क्रेडिट व्यवस्था की संरचना, विद्यालयीन पाठ्यचर्या की पुनर्रचना आदि। इसी प्रकार राज्य सरकारों द्वारा अपने राज्य के विश्वविद्यालयों एवं अन्य शैक्षिक संस्थानों और प्रत्येक जिले में क्रियान्वयन का समय-पत्रक बनाना, विश्वविद्यालयों के साथ महाविद्यालयों की संबद्धता को समाप्त करने हेतु क्रमबद्ध योजना एवं इस हेतु कानून में आवश्यक परिवर्तन इत्यादि। इसी प्रकार विश्वविद्यालयों में क्रेडिट पद्धति लागू करने एवं नई संरचना स्थापित करने हेतु एक्ट में आवश्यक परिवर्तन, पाठ्यक्रमों की पुनर्रचना – व्यवहारिकता एवं अधिक लचीलापन लाना तथा हर स्तर पर भारतीय ज्ञान परम्परा के समावेश के साथ द्विभाषा में पाठ्य-पुस्तकें तैयार करना इत्यादि शामिल है। इसके साथ ही शिक्षण अधिगम (पेडागोजी) में परिवर्तन की तैयारी करना। इस प्रकार के अन्य भी कई विषय हैं, जिसका वास्तविक क्रियान्वयन हो इस हेतु शिक्षकों को तैयार करना आवश्यक होगा।
इस शिक्षा नीति में कई नए विषयों का समावेश किया गया है। एक प्रकार से शिक्षा की समग्र संरचना में बदलाव की बात है। इस हेतु इस नीति के विभिन्न आयामों एवं पहलुओं पर देशभर में सघन विमर्श भी आवश्यक है। विशेषतः सभी स्तर के शिक्षक इस नीति का अध्ययन करें, जब वे नीति पर विमर्श का आयोजन करके प्रतिभाग करेंगे, तभी शिक्षा नीति की भावना को समझकर क्रियान्वयन में अपनी भूमिका सुनिश्चित कर पाएंगे। इसके लिये सभी प्रकार के शैक्षिक संस्थानों में योजना बनाना आवश्यक है।
इसके साथ ही इस नीति की घोषणा को एक वर्ष पूर्ण हो रहा है, तब केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों, विश्वविद्यालयों से लेकर सभी स्तर के शैक्षिक संस्थानों में समीक्षा होनी चाहिए कि विगत एक वर्ष में शिक्षा नीति के क्रियान्वयन पर कितना कार्य किया गया है और इसके आधार पर भविष्य की योजना पर भी विचार होना चाहिए। इस नीति के क्रियान्वयन हेतु सतत एवं सांतत्यपूर्ण रूप से कार्य करना होगा। नीति का वास्तविक एवं समग्रता से क्रियान्वयन होगा तो देश की शिक्षा में आधारभूत परिवर्तन होने की पूर्ण संभावना है। शिक्षा किसी भी देश की नींव होती है। शिक्षा बदलेगी तो देश बदलेगा अर्थात् हम जिस प्रकार के समृद्ध, सशक्त एवं समर्थ भारत का स्वप्न देख रहे हैं, उस दिशा में हम अग्रसर हो सकेंगे।