विकसित देशों के विकसित गांव..!

विकसित देशों के विकसित गांव..!

प्रशांत पोल

विकसित देशों के विकसित गांव..!

अपने देश के बाहर का पहला गांव देखने का सौभाग्य मुझे मिला था, आज से लगभग चौतीस वर्ष पूर्व। मैं जापान में ‘स्विचिंग सिस्टम’ के प्रशिक्षण के लिए गया था। कुछ महीने जापान में रहने का अवसर मिला था। मेरा अधिकतम समय बीता था, टोकियो में। लेकिन लगभग दो सप्ताह जापान के छोटे से गांव में बिताये थे।

मेरे लिए यह एक अनूठा अनुभव था। कुछ अनपेक्षित भी। तब तक भारत के गांवों से भी पूरी तरह से परिचित नहीं था। जितना भी थोडा बहुत गांवों में रहना हुआ था, वह कष्टप्रद था। अस्सी के दशक में हमारे अनेक गांवों में बिजली नहीं पहुंची थी। अनेक गांवों में पहुचने के लिये बारह मास चलने वाली सड़कें नहीं थीं। गांव का पर्यायवाची शब्द, दिमाग ने ‘कष्ट’ ऐसा लिख दिया था…!

किन्तु जापान के उस गांव का अनुभव एक सुखद आश्चर्य था। वहां पहुचने के लिये तेज रफ़्तार वाली रेल थी। एकदम साफ सुथरी और हवाई जहाज का अनुभव देने वाली। अस्सी के दशक में ऐसी रेल से यात्रा करना तो सपने में भी नहीं सोचा था।

लेकिन शायद यह शुरुआत थी, उन सुखद आश्चर्यों के शृंखला की।

‘शिराई शिन्जुकू’ नाम का यह गांव अत्यंत छोटा था। टोकियो से साढ़े तीन – चार घंटे की दूरी पर बसे इस गांव में मात्र एक बड़ी फैक्ट्री थी, टेलिकॉम के उपकरण बनाने की, जहां मुझे जाना था। गांव के आसपास थोड़ी खेती थी। लेकिन गांव की अधिकांश युवा पीढ़ी उस फैक्ट्री के असेंबली लाइन में काम करती थी। उस समय के अपने देश के ‘गांव’ इस संकल्पना से यह ‘शिराई शिन्जुकू’ कोसो दूर था…!

इस गांव में एकमात्र होटल था, जिसमे हमारी रुकने की व्यवस्था थी। अत्यंत साफ़-सुथरा और सभी आवश्यकताओं से परिपूर्ण। उस होटल में भी एक आश्चर्य हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। उन दिनों होटलों में टीवी के साथ ही ‘म्यूजिक सिस्टम’ भी लगा होता था, जिसमें गाने चलते रहते थे। अपने देश में भी होटलों में यही व्यवस्था होती थी। लेकिन, जो गाने चलाये जाते थे, उन्हीं को सुनना पड़ता था। अच्छे न लगे तो बस, आवाज बंद करने का ही विकल्प रहता था।

लेकिन इस गांव के होटल में अलग व्यवस्था थी। वहां पर ‘सेटेलाईट म्यूजिक सिस्टम’ था। संगीत के लगभग पचास से ज्यादा चैनल्स उपलब्ध थे। सारी दुनिया का संगीत वहां था। और खास बात – उन चैनल्स में भारत के भी दो चैनल्स थे…! एक पर शास्त्रीय संगीत चलता था, तो दूसरे पर पुराने हिंदी फिल्मों के गाने..!!

पूरा गांव केवल और केवल जापानी ही बोलता / समझता था। गांव के एकमात्र छोटे से डिपार्टमेंटल स्टोर में भी सारे व्यवहार जापानी में ही होते थे। हिंदी सुनने के लिए कान मानो तरस गये थे। ऐसे समय में, रात को, दुनिया के एक कोने में बने छोटे से जापानी गांव में लता मंगेशकर, किशोर कुमार और मोहम्मद रफ़ी को सुनना यानि स्वर्गीय सुख का अनुभव था..!

अर्थात, जापान में ‘गांव’ का अर्थ ‘पिछड़ापन’ तब भी नहीं था और अब तो होने का प्रश्न ही नहीं हैं। अत्यंत विकसित, सर्व सुविधायुक्त तथा रोजगार युक्त, प्रकृति के साथ बसी हुई छोटी बस्तियां यानि ‘गांव’ यह संकल्पना है। बस्ती छोटी होने के कारण समाज में आत्मीयता बनी रहती है तथा सारी सुविधाएं होने के कारण युवकों का गांव से शहर में पलायन अत्यंत कम होता है..!

विदेश के गांव में रहने का मेरा दूसरा अनुभव फ़्रांस का है। सन १९९१ में, एक बहुत बड़े ‘टेलीकॉम एक्सपो’ में भाग लेने के लिये मैं जिनेवा गया था। जिनेवा के सारे होटल्स बुक थे तो मुझे मजबूरन जिनेवा से सटे फ़्रांस के एक छोटे से गांव में रुकना पडा। ‘चामोनिक्स’ क्षेत्र का यह गांव, एक सुंदर सपने जैसा था। लगभग पाँच हजार बस्ती का गांव। लेकिन सारी सुविधाओं से लैस। वहां के दो होटल्स भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के थे। मेरे साथ जिनेवा के एक्सपो में हिस्सा ले रहे और लोग भी इस गांव में रुके थे। रोज एक बस वहां से जिनेवा जाती थी।

वह गांव एक आदर्श फ्रेंच गांव था। ‘माउंट ब्लांक’ के पास में, पहाड़ी वातावरण में बसा हुआ छोटा सा गांव। छोटी लेकिन अच्छी और पक्की सड़कें। गांव में आवश्यक वस्तुओं की छोटी छोटी दुकानें। रास्ते में लगने वाले फ्रेंच कैफ़े। एक ही शाला। लेकिन अत्याधुनिक भवन में लगने वाली। उनका बड़ा सा खेल का मैदान और रोज शाम को और रात को उस मैदान में बड़े बड़े फ्लड लाईट्स लगाकर बड़े जोश के साथ फुटबॉल खेलने वाले लड़के..!

केवल चार दिन के स्टे में उस गांव की प्रकृति समझना संभव नहीं था। लेकिन फिर भी ‘फ्रेंच शैली का, खुशमिजाज, सारी सुविधाओं से युक्त गांव’ ऐसी प्रतिमा तो मन-मष्तिष्क पर बन ही गयी।

बाद के वर्षों में जर्मनी में खूब घूमना हुआ। वहां के अनेक गांव देखे। एक गांव के ‘लोकल बॉडी’ (स्थानिक संस्था – पंचायत) की बैठक में उपस्थित रहने का भी अवसर मिला। और एक बात स्पष्ट हुई – दुनिया के किसी भी कोने में, गांव अविकसित रहे या विकसित, लेकिन गांव की अपनी आत्मीयता होती है। अपनी पहचान होती है और गांव के लोगों को इसका गर्व रहता है।

जर्मनी में कई बार ट्रेन से प्रवास करना पड़ता था। रास्ते में गांव दिख जाते थे। उनके खेत भी दिखते थे। खेतों में दस – पंद्रह मोटर गाड़ियाँ खड़ी हों, तो समझ लीजिये की उस खेत में कटाई या बुआई चल रही है। वहां खेत खूब बड़े आकारों में होते हैं और आधुनिक औजारों का प्रयोग करना सामान्य बात है। कटाई या बुआई करने वाले मजदुर ही होंगे ऐसा नहीं है। वहां मजदूर मिलना कठिन है। आजु-बाजू के खेतों के मालिक भी इन खेती कामों में एक दूसरे का हाथ बटाते हैं।

लेकिन अपने देश में जैसे गांव के साथ खेती का समीकरण जोड़ा जाता है, वैसे अन्य विकसित देशों में नहीं है। उदाहरण के लिए, जर्मनी का दक्षिण-पश्चिम का क्षेत्र पूर्णतः औद्योगिक है। वहां गांवों के आसपास खेती नहीं है। कल-कारखानों से वह सारा परिसर व्याप्त है। यही दृश्य दिखता है फ़्रांस में, इटली में, बेल्जियम में…. वहां छोटे से गांव में दो –तीन तो छोटे-बड़े कारखाने रहते ही हैं, जहां गांव के अधिकांश लोग काम करते हैं। खेती का दूर – दूर तक नामोनिशान नहीं रहता।

चूँकि अधिकांश गांव परिपूर्ण और स्वयंपूर्ण हैं, इसलिये रोजगार के अनेक अवसर तो गांव में ही मिल जाते हैं। यही कारण है कि गांवों से शहरों की ओर पलायन, विकसित देशों में बहुत कम है। इन गांवों की अपनी दुनिया है। इनकी अपनी संस्कृति है। इन गांवों के बीच खेलकूद प्रतियोगिताएं होती हैं। अनेक उत्सव होते हैं। विशेषतः जर्मनी, फ़्रांस, चेक रिपब्लिक, इटली आदि देशों में अनेक गांव अपने – अपने उत्सवों के लिए प्रसिद्ध हैं। स्पेन में भी अनेक उत्सव, फुटबॉल की स्पर्धाएं आदि गांव के साथ जुडी हुई हैं। स्पेन के गांवों में खेला जाने वाला ‘टमाटर उत्सव’ तो दुनिया में मशहूर है।

अपने देश में भी गांवों का अपना स्वभाव है। एक भरी पूरी जिंदगी जीते हैं, हमारे गांव। अंतर है तो बस इतना, कि अपने गांवों में मूलभूत संरचनाओं का अभाव है, जब कि विकसित देशों में छोटे छोटे गांव भी सभी सुविधाओं से लैस रहते हैं..!!

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