शोपियां मामले में जहरीले एजेंडाधारी हुए बेनकाब

शोपियां मामले में जहरीले एजेंडाधारी हुए बेनकाब

बलबीर पुंज

शोपियां मामले में जहरीले एजेंडाधारी हुए बेनकाबशोपियां मामले में जहरीले एजेंडाधारी हुए बेनकाब

सत्य न विचलित हो कभी, सत्य न सकता हार। मिटे पाप का मूल भी, करे सत्य जब वार— ये पंक्तियां जम्मू-कश्मीर के एक ‘बलात्कार-हत्या’ के मामले में उपयुक्त हैं। शोपियां मामले में जहरीले एजेंडाधारी बेनकाब हुए हैं। 30 मई 2009 की बात है, शोपियां में दो महिलाओं का शव मिला था। 14 वर्ष बाद खुलासा हुआ है कि जिन दो चिकित्सकों— डॉ. बिलाल अहमद दलाल और डॉ. निगहत शाही चिल्लू ने शव-परीक्षा करके मामले को बलात्कार के बाद हत्या का रूप दिया था और देशविरोधी शक्तियों ने इसका आरोप भारतीय सैनिकों पर लगाया था— वह फर्जी था। यह झूठ पाकिस्तान के कहने पर भारत को कलंकित करने हेतु गढ़ा गया था। यह सच सब जानते थे, प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी। परंतु शीर्ष अधिकारियों ने इसे दबाए रखा। इस संबंध में आरोपियों के विरुद्ध मामला दर्ज किया गया है।

इस एक झूठ ने क्या कीमत वसूली? कश्मीर सात माह (जून-दिसंबर 2009) तक जलता रहा। पाकिस्तान पोषित अलगाववादी समूहों ने 42 बार हड़ताल की। कानून-व्यवस्था बिगड़ने की 600 घटनाएं सामने आईं। पथराव-आगजनी की 251 प्राथमिकियां दर्ज हुईं। सात लोगों की जानें गईं, तो 23 पुलिसबल सहित कुल 103 लोग घायल हुए। प्रदेश को 6,000 करोड़ रुपये का व्यापारिक नुकसान हुआ। सबसे ऊपर, इस झूठ ने बहुलतावादी भारत की सभ्य छवि को छलनी कर दिया।

यह कोई पहली बार नहीं है। शोपियां मामले से पहले भी और अब भी झूठ या अर्धसत्य रूपी ईंधन से तथ्यों को तर किया जाता है और फिर उस पर लगाई आग से विषैला भोजन तैयार किया जाता है। इस दुराचार में छद्म-सेकुलरवादियों, वामपंथियों, जिहादियों और इंजीलवादियों के समूह का कोई सानी नहीं। उन्होंने गत वर्ष भाजपा से निष्कासित नेत्री नूपुर शर्मा संबंधित प्रकरण को गिद्धों की तरह नोंच डाला था।

इस जमात ने पहले कई मिनटों की टीवी बहस में से उसकी कुछ सेकंड की संपादित वीडियो को सोशल मीडिया पर वायरल किया। फिर उसमें जो कुछ नूपुर ने कहा, उसकी प्रामाणिकता पर वाद-विवाद किए बिना नूपुर को ‘ईशनिंदा’ का ‘वैश्विक अपराधी’ बना दिया। इस समूह ने जिस विद्वेषपूर्ण नैरेटिव से मजहबी कट्टरता की नस को दबाया, उसने न केवल नूपुर की अभिव्यक्ति का समर्थन कर रहे कन्हैयालाल और उमेश की जान ले ली, बल्कि नूपुर के प्राणों पर भी आजीवन संकट डाल दिया।

कर्नाटक हिजाब मामले में क्या हुआ था? 27 दिसंबर 2021 से पहले उडुपी स्थित ‘प्री-यूनिवर्सिटी कोर्स’ (11वीं-12वीं) के सरकारी कॉलेज में मुस्लिम छात्राओं में हिजाब को लेकर कोई उन्माद नहीं था। जब क्षेत्र का सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने हेतु उन्हें इसके लिए उकसाया गया और उन पर हिजाब पहनने की मजहबी सनक सवार हुई, तो इससे बिगड़ी कानून-व्यवस्था को नियंत्रित करने हेतु तत्कालीन भाजपा सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में समरूपता को अक्षुण्ण रखने का आदेश पारित किया। तब भारत विरोधी शक्तियों ने भाजपा को ‘मुस्लिम विरोधी’ बताकर इस दिशानिर्देश को ‘मजहबी स्वतंत्रता पर आघात’ और ‘फासीवाद’ बता दिया। विडंबना देखिए कि तब भाजपा की बोम्मई सरकार और केरल की वामपंथी सरकार का इस विषय पर चिंतन और कार्रवाई— लगभग एक जैसी थी। परंतु केरल में शांति रही। दुष्ट नैरेटिव का दुष्प्रभाव देखिए कि जब कालांतर में कर्नाटक उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ (न्यायमूर्ति खाजी जयबुन्नेसा मोहियुद्दीन सहित) ने स्कूली कक्षाओं में हिजाब पहनने की मांग संबंधित सभी याचिकाओं को निरस्त किया, तब न्यायाधीशों को जान से मारने की धमकी मिल गई।

फरवरी 2002 का गुजरात दंगा, जो कि गोधरा ट्रेन नरसंहार की प्रतिक्रिया थी, जिसमें अयोध्या से लौट रहे 59 कारसेवकों को उन्मादी भीड़ ने जीवित जला दिया था— उस पर दो दशकों से यही कुनबा अर्धसत्य और सफेद झूठ को आगे बढ़ाने का प्रयास करता रहता है। यह स्थिति तब है, जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरुद्ध इस समूह के सभी आरोपों को पहले सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित एसआईटी और फिर स्वयं गत वर्ष शीर्ष अदालत की खंडपीठ ने ‘झूठा’ और ‘सनसनी फैलाने वाला’ बता दिया था।

मनगढ़ंत ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ भी झूठ के इसी कारखाने का एक उत्पाद है। यूं तो इस मिथक शब्दावली को संप्रगकाल (2004-14) में उछाला गया, परंतु इसकी जड़ें 1993 के मुंबई श्रृंखलाबद्ध (12) बम धमाके में मिलती हैं, जिसमें 257 निरपराध मारे गए थे। उस समय महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री (वर्तमान रा.कं.पा. अध्यक्ष) शरद पवार ने आतंकियों की मजहबी पहचान और उद्देश्य से ध्यान भटकाने हेतु झूठ गढ़ दिया कि एक धमाका मस्जिद के पास भी हुआ था, जिसमें प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंदुओं को आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास था। इसी चिंतन को संप्रगकाल में पी.चिंदबरम, सुशील कुमार शिंदे और दिग्विजय सिंह ने आगे बढ़ाया। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। अखलाक-जुनैद हत्या, रोहित वेमुला आत्महत्या और भीमा-कोरेगांव हिंसा— इसका प्रमाण है।

इस जहरीले समूह के एजेंडे को पहचानने की आवश्यकता है। इनके शस्त्रागार में बंदूक-गोला बारूद नहीं, अपितु मिथ्या सूचना (fake information / narrative), दुष्प्रचार और घृणा प्रेरित चिंतन है। शोपियां मामले में हुआ खुलासा, उनके भारत विरोधी उपक्रम को फिर से बेनकाब करता है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

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