संघ साधना से निकलता लोकमंगल का मार्ग
आज लोकमंगल की भावना से संघ के कार्यकर्ता पूरे समाज को अपना बंधु मान युद्ध स्तर पर राहत अभियानों में जुट कर समाज के दुख को दूर करने में लगे हैं। व्यक्तिगत जीवन में पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए ये स्वयंसेवक समाज के साथ मिलकर समाज के लिए अपरिहार्य बन गये हैं।
– वीरेंद्र पांडेय
पिछले दिनों नागपुर महानगर द्वारा आयोजित ऑनलाइन बौद्धिक वर्ग को संबोधित करते हुए सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कहा था – एकांत में आत्मसाधना तथा लोकांत में परोपकार, यही व्यक्ति के जीवन का तथा संघ कार्य का स्वरूप है। संघ स्वार्थ, प्रसिद्धि या डंका बजाने के लिए सेवा कार्य नहीं करता। 130 करोड़ देशवासी भारत माता की संतान हैं और अपने बंधु हैं। उनकी सेवा करना ही संघ का संकल्प है।
वास्तव में सरसंघचालक का यह कथन उसी भारतीय संस्कृति एवं जीवन पद्धति की ओर इशारा कर रहा है जिसमें “आत्मनोमोक्षार्थं जगद्धिताय च” की परंपरा रही है। मानव जीवन का मोक्ष जगत हितार्थ के सेवा कार्य करते करते ही प्राप्त होता है, अर्थात जगत कल्याण हो तो ही व्यक्ति को परम सुख (मोक्ष) की प्राप्ति होगी। ऐसा आश्वासन हमारे ऋषि-मुनियों ने इस देश को दिया।
लोककल्याण से ध्येयबद्ध हमारी संस्कृति ने जो बात बताई कि व्यक्ति और समाज की परस्पर आत्मनिर्भरता, सहयोग, सहकार तथा जुड़ाव किसी भी राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लिए आवश्यक है। इसी विचार को अपनाते हुये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी संघनिर्माण के मूल में सामूहिक नैतिक नेतृत्व तथा राष्ट्रचेतना युक्त संगठित समाज की संकल्पना की। इसका आधार हिन्दू जीवन पद्धति को बनाया। जिसके द्वारा युगानुकूल धर्म स्थापना तथा धर्म अधीष्ठित समाज रचना करते हुये राष्ट्रीय पुनर्निर्माण करना है।
आज जब कोरोना संकट ने पूरी मानव जाति को भयाक्रांत किया हुआ है, लोग अपने घर में लॉक हैं, तब कोई देवदूत मानवता के रक्षार्थ स्वयं की परवाह किये बिना भूखे प्यासे-पीड़ितों के बीच राहत पहुंचाने का कार्य कर रहा है। देश में 55 हजार से अधिक स्थानों पर, तीन लाख सेवाभावी कार्यकर्ताओं के माध्यम से, लगभग पौने चौंतीस लाख राशन किट तथा सवा दो करोड़ से अधिक भोजन पैकेटों का वितरण हो चुका है। यह कोई सरकारी अनुदान प्राप्त एजेंसी के आंकड़े नहीं हैं। संघ से प्रेरणा पाकर समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं एवं समविचारी संगठनों के आंकड़े हैं। संघ के स्वयंसेवक नित्य ध्वज वंदना करते हुये मातृभूमि के प्रति सर्वस्व अर्पण करने का भाव बार बार संकल्पित करते हैं।
आज लोकमंगल की भावना से संघ के कार्यकर्ता पूरे समाज को अपना बंधु मान युद्ध स्तर पर राहत अभियानों में जुट कर समाज के दुख को दूर करने में लगे हैं। व्यक्तिगत जीवन में पारिवारिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए ये स्वयंसेवक समाज के साथ मिलकर समाज के लिए अपरिहार्य बन गये हैं। ऐसे में ऐसा मन -मस्तिष्क तैयार करने वाली उस निर्माण पाठशाला के प्रशिक्षणों को जानना जरुरी हो जाता है। संघ के लोग सामान्य समाज के बीच से ही आते हैं, उनकी सोच, विचार , कार्यकरने की शैली सब कुछ बाकी समाज के जैसी ही होती है, फिर संघ से जुड़ने के बाद ऐसा क्या प्रशिक्षण तथा कौन सी कार्यपद्धति की सीख उन्हें मिलती है कि वे भेदभाव से परे, संकट के अनेक अवसरों पर संकट मोचक की भांति खड़े हो जाते हैं? देश विभाजन के समय राष्ट्र-बधुओं की रक्षा की बात हो, गोवा सत्याग्रह, कश्मीर विलय, चीन तथा पाकिस्तान से युद्ध के समय सेना की सहायता हो, आपातकाल हो या अनेकों प्राकृतिक आपदाओं का समय, स्वयंसेवकों ने समाज को साथ लेकर हमेशा सहयोग ही किया है।
हमारी संस्कृति की मान्यता के अनुसार केवल व्यवस्था परिवर्तन अथवा व्यवस्था निर्माण मात्र से समाज सकुशल व सुचारू रूप से चलेगा यह जरूरी नहीं है। इसके लिए व्यवस्था कार्यान्वित करने वाले व्यक्ति का भी निर्माण होना आवश्यक है और यह परिवर्तन सुसंस्कारों के माध्यम से होता है। इसी दृष्टि से संघ ने जो परिवर्तन प्रक्रिया अपनाई, उसके दो आयाम हैं, एक है व्यक्ति निर्माण, दूसरा है धर्म आधारित समाज का निर्माण। सुसंस्कारों के संदर्भ में श्रीगुरुजी, राजगोपालाचारी के एक प्रश्न के जवाब में कहते हैं संघ एक पारिवारिक आत्मीय संगठन है।
संघ संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार जी ने इन सभी बातों का संपूर्ण विचार करते हुए व्यक्ति मानस को सुसंस्कारित बनाने, उसकी चेतना के स्तर को उठाने तथा स्व के परे जाकर, समाज और राष्ट्र के मानवता के साथ जोड़ने तथा व्यक्ति का पूरा निजी व्यवहार सामाजिक नैतिकता के आधार पर ही हो, ऐसा मानस तैयार करने के लिये दैनंदिन शाखा पद्धति अपनाई।
आज उसी नूतन पद्धति के परिणामस्वरूप कोई व्यक्ति किसी निमित्त, किसी स्वयंसेवक कार्यकर्ता के संपर्क से संघ की शाखा पर आता है। धीरे-धीरे
उसका संघ से परिचय होता है, फिर आगे चलकर वह व्यक्ति सक्रिय बनता है। धीरे धीरे उसे कुछ न कुछ जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं और वह जिम्मेदारी निभाते निभाते संघ के सिद्धांतों का और व्यवहार का पूरा परिचय प्राप्त कर संघ कार्य के प्रति दृढ़ धारणा का निर्माण करता है। वह सही दृष्टि से कार्यकर्ता बनता है। कार्यकर्ता निर्माण का संघ का ऐसा प्रयास प्रारंभ से ही चलता आ रहा है और उसी निर्माण का परिणाम है कि आज समाज जीवन में लाखों कार्यकर्ता समाज के रक्षक के नाते कार्य करते हुए दिखाई पड़ रहे हैं।