संत रैदास को जीवन में उतारने की आवश्यकता

संत रैदास को जीवन में उतारने की आवश्यकता

संत रैदास को जीवन में उतारने की आवश्यकता

संत रैदास (रविदास) का काल भारत पर विदेशी तुर्क आक्रांताओं द्वारा घनघोर अत्याचार का काल था। वे धर्म न छोड़ने वाले हिंदुओं को नष्ट कर देते थे। जिन्हें नष्ट नहीं कर पाते थे उन पर अमानवीय जजिया व अन्य कर लगाकर प्रताड़ित करते थे, ताकि हिंदुओं की कमर टूट जाए तथा वे धर्म त्याग दें। साथ ही इस्लाम अपनाने वालों को विशेष रूप से सम्मानित किया जाता। इन सारे षड्यंत्र कुचक्रों के बीच भारत का संत समाज उठ खड़ा हुआ। उन्होंने हिंदू समाज में आ बैठे भेदभाव, अस्पृश्यता, अन्धविश्वास का विरोध किया। विदेशी आक्रमणों के झंझावात में धर्म के मर्म का लोप हो चुका था। ऐसे में संत रविदास ने धर्म का सही अर्थ पुनः समझाया। आक्रमणों के बीच यज्ञादि जैसे विस्तृत अनुष्ठान कठिन होते थे। उन्होंने धर्म में विहित उपासना पद्धतियों को सरल बनाकर भक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उत्तर में संत रामानंद तथा चारों वर्णों के उनके शिष्यों जैसे संत कबीर, संत धन्ना, संत पीपा, संत सेन, नाभादास, सुरसरी, अनंतानंद, भावानन्द नरहर्याआनंद, पद्मावती ने भक्तिधारा के माध्यम से सनातन की अलख जगाए रखी। इन 12 शिष्यों को द्वादश महाभागवत कहा जाता था। संत रविदास भी इन द्वादश भागवतों में गिने जाते हैं।

रविदास का जन्म 14वीं शताब्दी की माघ पूर्णिमा को वाराणसी के चर्मकार परिवार में हुआ था। पिता संतोख दास व माता कालसा देवी थे। इनकी धर्मपत्नी का नाम लोना था। अपने कर्म व्यवसाय में रत रहते हुए ही संत रैदास विरक्त भी थे।

रैदास कहै जाकै हृदै, रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम, क्रोध न व्यापै काम।।

संत रैदास का जीवन यह सिद्ध करता है कि मध्यकालीन हिन्दुओं के विषय में सनातन विरोधियों द्वारा किए गए दुष्प्रचार भ्रामक हैं। यह सच है कि परवशता से जूझ रहे समाज में कुछ बुराइयों का प्रवेश हुआ था, लेकिन उन बुराइयों को दूर करने का प्रयास भी हिंदू समाज निरंतर करता रहा। जैसे संत रविदास के गुरु संत रामानंद ने चारों वर्णों के लोगों को बिना भेदभाव के दीक्षा दी, इसी अभेद की दृष्टि को संत रविदास ने आगे बढ़ाया। वे ऋषि मुनियों की वाणी बताते हुए कहते हैं जब सबमें प्रभु है तो जाति भेद कैसा –

“जाति एक जाने एक ही चिन्हा, देह अवमन कोई नही भिन्ना।
कर्म प्रधान ऋषि-मुनि गांवें, यथा कर्मफल तैसहि पावें।
जीव कै जाती वरन कुल नांहि, जाती भेद है जग मूरखाई।
नीति-समृति-शास्त्र सब गावें, जाती भेद शउ मूढ़ बतावें।”

संत रविदास की आध्यात्मिक विराटता को देखकर भक्त शिरोमणि मीरा बाई, झाला रानी, काशी नरेश, पीपाजी जैसे शासक वर्ग के लोगों ने भी उन्हें अपना गुरु माना।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में स्वयं संत रैदास की उक्ति है। वे कहते हैं-
मेरी जाति कुट बांढला ढोर ढोवंता नितहि बानारसी आस पासा, अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडउति तेरे नाम सरणाइ रविदासु दासा !!
(श्रीगुरु ग्रन्थ साहिब जी, अंग 1293)

अर्थात, मेरी जाति के लोग चमड़ा कूटने और काटने वाले हैं व बनारस के इर्द-गिर्द नित्य मरे पशु ढोते हैं। किंतु हे प्रभु! उसी कुल में पैदा हुआ तेरा यह दास रविदास जब से तेरे नाम की शरण में आया है, तबसे बड़े-बड़े ब्राह्मण मुझे दण्डवत नमस्कार करने लगे हैं ।

संत रैदास को मुस्लिम बनाने के प्रयास भी हुए पर उन्होंने धर्म नहीं छोड़ा। ‘सदना पीर’ भी संत रैदास के मतांतरण का स्वप्न लेकर आया था, किंतु उनकी अध्यात्मिक साधना से प्रभावित होकर स्वयं ही उनका शिष्य हो गया और ‘रामदास’ नाम से ईश्वर भक्ति करने लगा।

संत रैदास के 40 पद गुरु ग्रंथ साहिब में सम्मिलित हैं। आज बड़ी संख्या में उनके अनुयायी हैं जिन्हें रविदासिया कहा जाता है। इसके साथ ही समस्त हिन्दू समाज उन्हें सम्मान देता है। आज कतिपय सनातन विरोधी तत्वों द्वारा देश में जातिगत वैमनस्य फैलाने के जो प्रयास हो रहे हैं, उन्हें रोकने के लिए संत रैदास जैसे हमारे सिद्ध पुरुषों के आदर्श को अपने जीवन में उतारने की आवश्यकता है। संत रैदास को नमन। जयतु सनातन। जयतु भारत।

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