संयुक्त परिवार : खुशियों का पावर पैक
डॉ. सौरभ मालवीय
संयुक्त परिवार : खुशियों का पावर पैक
मनुष्य जिस तीव्र गति से उन्नति कर रहा है, उसी गति से उसके संबंध पीछे छूटते जा रहे हैं। माता-पिता बड़ी लगन से अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उन्हें उच्च शिक्षा दिलाने के हर संभव प्रयास करते हैं। परिवार में लड़कियां हैं, तो वे विवाह के पश्चात ससुराल चली जाती हैं और लड़के नौकरी की खोज में बड़े शहरों में चले जाते हैं। इस प्रकार वृद्धावस्था में माता-पिता और शहरों में उनके बेटे भी अकेले हो जाते हैं।
संयुक्त परिवारों में बहुत से रिश्ते होते थे। दादा-दादी, ताऊ-ताई, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, नाना-नानी, मामा-मामी, मौसी-मौसा तथा उनके बच्चे अर्थात बहुत से भाई-बहन। बच्चे बचपन से ही इन सभी संबंधों को जानते थे, परन्तु अब एकल परिवारों में माता-पिता और उनके दो या एक बच्चे ही हैं। एकल परिवारों में व्यक्ति नितांत अकेला पड़ता जा रहा है। संयुक्त परिवार में समस्याएं सांझी होती थीं। व्यक्ति किसी कठिनाई या समस्या होने पर परिवार के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श कर लेता था। इस प्रकार उसे समस्या का समाधान घर में ही मिल जाता था।
संयुक्त परिवार के बहुत से लाभ हैं। परिवार के प्रत्येक सदस्य की सुरक्षा का दायित्व सबका होता है। किसी भी सदस्य की समस्या पूरे परिवार की होती है। यदि किसी को पैसे आदि की आवश्यकता है, तो पैसे बाहर किसी से मांगने नहीं पड़ते। परिवार के सदस्य ही मिलजुल कर सहयोग कर देते हैं। परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण घर और बाहर के कार्यों का विभाजन हो जाता है। प्रत्येक सदस्य अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य कर लेता है तथा अन्य कार्यों से मुक्त रहता है। ऐसे में उसे अपने लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। इसके अतिरिक्त संयुक्त परिवार में रसोई एक होने के कारण खर्च भी कम हो जाता है। उदाहरण के लिए दो या तीन एकल परिवार यदि संयुक्त परिवार के रूप में रहते हैं, तो उन्हें अधिक सामान की आवश्यकता होगी। थोक में अधिक सामान लेने पर वह सस्ता पड़ता है। इसी प्रकार तीन के बजाय एक ही फ्रिज से काम चल जाता है। ऐसी ही और भी चीजें हैं। परिवार के किसी सदस्य के बीमार होने पर उसकी ठीक से देखभाल हो जाती है। परिवार के सदस्य साथ रहते हैं, तो उनमें भावनात्मक लगाव भी बना रहता है। इसके अतिरिक्त बच्चों का पालन-पोषण भी भली-भांति आसानी से हो जाता है। उनमें अच्छे संस्कार पैदा होते हैं। वे यह भी सीख जाते हैं कि किस व्यक्ति के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। इसमें बड़ों का सम्मान करना, अपनी आयु के लोगों के साथ मित्रवत व्यवहार करना तथा छोटों से स्नेह रखना आदि सम्मिलित है।
आज परिस्थितियां पृथक हैं। मनुष्य किसी भी कठिनाई या किसी संकट के समय स्वयं को अकेला ही पाता है। यदि परिवार में महिला का स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो तब भी उसे घर का सारा कार्य स्वयं करना पड़ता है, जबकि संयुक्त परिवार में अन्य महिलाएं होने के कारण उसे आराम करने का समय मिल जाता था। साथ ही उसकी भी उचित प्रकार से देखभाल भी हो जाती थी।
एकल परिवार में अकेले पड़ जाने के कारण व्यक्ति अवसाद का शिकार हो जाता है। इस अवस्था में व्यक्ति स्वयं को निराश अनुभव करता है। वह स्वयं को अत्यधिक लाचार समझने लगता है। ऐसी स्थिति में प्रसन्नता एवं आशा उसे व्यर्थ लगती है। मनोचिकित्सकों के अनुसार अवसाद के भौतिक कारण भी होते हैं, जिनमें आनुवांशिकता, कुपोषण, गंभीर रोग, नशा, कार्य का बोझ, अप्रिय स्थितियां आदि प्रमुख हैं। अवसाद की अधिकता होने पर व्यक्ति आत्महत्या तक कर लेता है।
कोरोना काल में जहां संयुक्त परिवारों के लोग एक-दूसरे के साथ मिलजुल कर रहे, वहीं एकल परिवारों के लोग अवसाद का शिकार होने लगे। ‘द लैंसेट पब्लिक हेल्थ’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना वायरस संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों में अवसाद एवं घबराहट की शिकायतें देखने को मिल रही हैं। सात दिन या उससे अधिक समय तक कोरोना वायरस संक्रमण से पीड़ित रहे लोगों में अवसाद एवं घबराहट की दर उन लोगों की तुलना में अधिक थी, जो संक्रमित रोगी कभी अस्पताल में भर्ती नहीं हुए अर्थात वे अपने परिजनों के मध्य ही रहे। रिपोर्ट के अनुसार सार्स-कोव-2 संक्रमण वाले ऐसे रोगी जो अस्पताल में भर्ती हुए, उनमें 16 महीने तक अवसाद के लक्षण देखे गए, परन्तु जिन रोगियों को अस्पताल में भर्ती नहीं होना पड़ा, उनमें अवसाद और घबराहट के लक्षण दो महीने के भीतर ही कम हो गए। सात दिनों या उससे अधिक समय तक बिस्तर पर रहने वाले लोगों में 16 महीने तक अवसाद और घबराहट की समस्या 50 से 60 प्रतिशत अधिक थी।
मनोचिकित्सकों के अनुसार अवसाद से निकलने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अपने परिजनों एवं मित्रों के साथ समय व्यतीत करे। किसी भी समस्या या संकट के समय परिजनों से बात करे। स्वयं को अकेला न समझे। सकारात्मक विचारों वाले व्यक्तियों से बात करे। परिजनों को भी चाहिए कि वे अवसादग्रस्त लोगों में सकारात्मक विचार पैदा करने का प्रयास करें, उन्हें अकेला न छोड़ें। उन्हें उनकी किसी भी नाकामी के लिए ताने न दें, अपितु उनको प्रोत्साहित करें तथा उनके आत्मविश्वास को बढ़ाएं।
वास्तव में आज तकनीकी ने समस्त संसार के लोगों को जितना समीप कर दिया है, उतना ही एक-दूसरे से दूर भी कर दिया है। मोबाइल के माध्यम से व्यक्ति क्षण भर में विदेश में बैठे व्यक्ति से भी बात कर लेता है। परन्तु मोबाइल के कारण ही लोगों को परिवार के सदस्यों से बात करने का समय नहीं मिल पाता। व्यक्ति व्यक्ति से दूर होता चला जा रहा है। ऐसे में आवश्यकता है सामूहिक संवाद की। प्रत्यक्ष संवाद मन, भाव व विचार से हमें जोड़ता है। दुख :सुख में सहायक होकर साथ होने की अनुभूति प्रदान करता है।
(लेखक- हैपीनेस/ अनुभूति कार्यक्रम के प्रभारी हैं- बेसिक शिक्षा, उत्तर- प्रदेश)