सम्भाजी महाराज का बलिदान : औरंगजेब ने दीं कठोर यातनाएँ, जीभ काटी, चीरा लगाकर नमक भरा

सम्भाजी महाराज का बलिदान : औरंगजेब ने दीं कठोर यातनाएँ, जीभ काटी, चीरा लगाकर नमक भरा

11 मार्च 1689/ इतिहास स्मृति/ सम्भाजी महाराज का बलिदान

रमेश शर्मा

सम्भाजी महाराज का बलिदान : औरंगजेब ने दीं कठोर यातनाएँ, जीभ काटी, चीरा लगाकर नमक भरासम्भाजी महाराज का बलिदान : औरंगजेब ने दीं कठोर यातनाएँ, जीभ काटी, चीरा लगाकर नमक भरा

पिछले दो हजार वर्षों में संसार का स्वरूप बदल गया है। बदलाव केवल शासन करने के तरीके या राजनैतिक सीमाओं में ही नहीं हुआ, अपितु परंपरा, संस्कृति, जीवनशैली और सामाजिक रूप में भी हुआ है। किंतु भारत इसमें अपवाद है। असंख्य आघात सहने के बाद भी यदि भारतीय संस्कृति और परंपराएँ दिख रहीं हैं, तो इसके पीछे ऐसे बलिदानी हैं, जिन्होंने कठोरतम प्रताड़ना सहकर भी स्वत्व की रक्षा की है। झुकना या रंग बदलना स्वीकार नहीं किया। ऐसे ही बलिदानी हैं सम्भाजी महाराज, जिन्हें पंथ बदलने के लिये 38 दिनों तक कठोरतम यातनाएँ दी गईं, जीभ काटी गई, शरीर में चीरे लगाकर नमक भरा गया, लेकिन वे स्वत्व पर अडिग रहे।

सम्भाजी महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज के पुत्र थे। उन्हें धोखे से बंदी बनाकर इतनी क्रूरतम प्रताड़ना दी गयी, जिसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। प्रताड़ना का यह दौर कोई 38 दिन चला। प्रतिदिन नयी क्रूरता और यातना। उल्टा लटकाया गया, पिटाई की गई, आँखें निकाली गईं, शरीर के विभिन्न अंगों में चीरा लगा कर नमक भरा गया। जीभ काटी गई। उनपर दबाव था कि वे मतान्तरण स्वीकार कर लें। सनातन धर्म त्याग कर इस्लाम अपना लें। लेकिन वे न डिगे। जब यातना देने वाले थक गये, तब उनका एक एक अंग काटकर उनके प्राण लिये गए और उन अंगों को कचरे की तरह नदी में फेंक दिया गया।

ऐसे अमर बलिदानी वीर छत्रपति सम्भाजी राजे महाराज का जन्म 14 मई 1657 को पुरन्दर के किले में हुआ था। माता यसुबाई भी युद्ध कला में निपुण थीं। पर बालक सम्भाजी को माँ का संरक्षण न मिल पाया। जब वे केवल दो वर्ष के थे, तभी माता का निधन हो गया था। उनका पालन पोषण दादी के संरक्षण में हुआ। वे कुल बत्तीस वर्ष इस संसार में रहे। उनके शासन की अवधि कुल नौ वर्ष रही। उनका पूरा जीवन संघर्ष में बीता। माता के निधन के साथ जो संघर्ष आरंभ हुआ वह जीवन की अंतिम श्वाँस तक रहा। जब वे केवल नौ वर्ष के थे, तभी से युद्ध से उनका रिश्ता जुड़ गया था। वे नौ वर्ष की आयु में ही पिता शिवाजी महाराज के साथ औरंगजेब की आगरा जेल में बंदी रहे थे। जेल से निकलते ही शिवाजी महाराज ने अपने इस नन्हें पुत्र को अपने से अलग कर दिया था। सुरक्षा कारणों से यह आवश्यक भी था। इसलिये योजना अनुसार वे शिवाजी महाराज के विश्वस्त रघुनाथ राव कोर्डे के साथ ब्राह्मण के वेष में रहे। जिस युक्ति से शिवाजी महाराज जेल से निकले थे, उससे औरंगजेब कितना बौखलाया होगा। तलाश में क्या क्या नहीं किया होगा। यह समझना कठिन नहीं है। वेष बदल कर वे कोई डेढ़ वर्ष तक रहे। संस्कृत सीखी कुछ ग्रंथ भी पढ़े और उचित अवसर आने पर वे दक्षिण भारत पहुँचे। इस बालक ने स्वयं को बचाते हुए उत्तर भारत से दक्षिण भारत तक की लंबी यात्रा की। इस प्रकार प्रति क्षण जीवन के संघर्ष के बीच वे बड़े हुए और पूरा जीवन संघर्ष करते रहे। अपने जीवनकाल में वे 210 युद्धों में सहभागी रहे। उन्होंने सभी युद्घ जीते। दक्षिण भारत से यदि मुगलों को खदेड़ा गया तो इसमे छत्रपति सम्भाजी राजे का शौर्य और युद्ध कौशल ही रहा है। यह उनके शौर्य और पराक्रम की विशेषता थी कि सम्भाजी महाराज के राज्यारोहण के बाद औरंगजेब सबसे ज्यादा ध्यान दक्षिण भारत पर देने पर विवश हुआ। मराठों को दबाने के लिये मुगल सेना की चार चार टुकड़ियाँ दक्षिण में ही रहीं। इन चारों टुकड़ियों के सरदारों को कह दिया गया था कि जब तक सम्भाजी महाराज का अंत न हो जाए, तब तक लौटकर न आना। मुगलों के इस अभियान से पूरा मराठा क्षेत्र मानों युद्ध स्थल में बदल गया था।

सम्भाजी राजे की बचपन से ही युद्ध कौशल और शत्रु को धता बताकर सफलता पाने में महारथ हासिल हो गई थी। यह सब उन्होंने अपने पिता शिवाजी महाराज से सीखा था। यद्यपि शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने उन्हें पंच हजारी मनसब देकर अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव दिया था। औरंगाबाद में इसकी विधिवत घोषणा भी कर दी गई थी। पर यशस्वी पिता के पुत्र सम्भाजी ने इसे अस्वीकार कर दिया था। इससे क्रुद्ध औरंगजेब ने मराठा क्षेत्र पर प्रबल आक्रमण कर दिया। पर संभाजी न डरे। वे भारत राष्ट्र की संस्कृति और स्वत्व की रक्षा के लिये संकल्पबद्ध थे। वे हिन्दवी स्वराज्य की सुरक्षा के संघर्ष को आगे बढ़ाने के काम में लग गये।

छत्रपति शिवाजी महाराज का निधन 3 अप्रैल 1680 को हुआ था। तब कुछ समय तक शिवाजी महाराज के अनुज राजाराम को हिन्दू पदपादशाही पर सत्तारूढ़ कर दिया गया था। 16 जनवरी 1681 को सम्भाजी महाराज का विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ। इसी वर्ष औरंगजेब का एक विद्रोही पुत्र अकबर दक्षिण भारत भाग आया और सम्भाजी महाराज से शरण की याचना की। छत्रपति सम्भाजी महाराज जितने वीर और पराक्रमी थे उतने ही भावुक भी। उन्होंने शहजादे अकबर को अपने यहाँ शरण और सुरक्षा प्रदान की। इससे औरंगजेब और बौखलाया। यह वही शहजादा अकबर था जो सम्भाजी महाराज के बलिदान के बाद अपने परिवार के साथ राजस्थान चला गया था और वहाँ वीर दुर्गादास राठौर के संरक्षण में रहा। सम्भाजी महाराज ने चारों ओर मोर्चा लिया था। एक ओर मुग़लों से तो दूसरी ओर पोर्तगीज एवं अंग्रेज़ों से भी। इसके साथ अन्य आंतरिक शत्रु थे सो अलग। इतने संघर्ष के बीच भी उन्होंने मराठा साम्राज्य को विस्तार दिया।

1689 में पुर्तगालियों को पराजित करने के बाद वे संगमेश्वर में व्यवस्था बनाने लगे। सम्भाजी महाराज ने तीन दिशाओं में एक साथ युद्ध किए। मुगलों से, निजाम से और पुर्तगालियों से भी। पर वे कोई युद्ध न हारे। अंतिम युद्ध में उनके साथ विश्वासघात हुआ।। यह 31 जनवरी 1689 का दिन था। वे संगमेश्वर में थे और अपना राजकीय कार्य पूरा करके रायगढ़ जाने वाले थे। तभी उन्हें मार्ग में फंसाने की योजना बन गई थी। उन्होंने अपनी यात्रा की तिथि निर्धारित की, तभी कुछ ग्रामवासी उनसे आकर मिले। ये लोग गणोजी शिर्के के साथ आये थे। गणोजी को वे अपना विश्वासपात्र मानते थे। वह किसी रिश्ते में उनकी पत्नी का भाई लगता था। गणोजी ने बताया कि क्षेत्रवासी उनका सम्मान करना चाहते हैं। यह आग्रह कुछ इस प्रकार किया गया कि सम्भाजी टाल न सके। उन्होंने मार्ग में रुकना स्वीकर कर लिया। इसके लिये सम्भाजी महाराज ने अपने केवल 200 सैनिक साथ रखे और सेना को रायगढ़ रवाना कर दिया। उन्हें बताया गया था कि मुगल सेना रायगढ़ की ओर आ रही है। इसलिए सम्भाजी महाराज ने सेना रवाना की और केवल दो सौ सैनिकों के साथ उस क्षेत्र की ओर चल दिये। यह आमंत्रण की योजना एक षड्यंत्र था। मुगल सैन्य सरदार मकरब खान ने गणोजी शिर्के को लालच दिया था कि यदि वह सम्भाजी को पकड़वाने में सहयोग करेगा तो दक्षिण का आधा राज्य दे दिया जायेगा। गणोजी लालच में आ गया और वह षड्यंत्र में शामिल हो गया। आमंत्रण के नाम पर षड्यंत्र की यह योजना उसी ने बनाई थी। जब सम्भाजी महाराज ने सहमति दे दी तो उसने यह सूचना मुगल सरदार को भेज दी और रास्ता भी समझा दिया। मुग़ल सरदार मुकरब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5 हजार सिपाहियों की फ़ौज के साथ वहां जा पहुंचा। यह वह रास्ता था जो केवल मराठों को पता था। इसलिए सम्भाजी महाराज को कभी संदेह भी न हुआ था कि शत्रु इस ओर से भी आ भी सकता है। लेकिन शिर्के ने मुगल सेना को पूरे मार्ग का विवरण भेज दिया था। मार्ग संकरा था। उसमें से किसी समूह के साथ नहीं निकला जा सकता था। एक एक करके ही निकलना संभव था। सम्भाजी महाराज अपने निजी सुरक्षा सैनिकों के साथ इसी प्रकार चलने लगे। लेकिन शत्रु की जमावट बहुत तगड़ी थी। पाँच हजार सैनिक तैनात थे। इतनी बड़ी फौज के सामने दो सौ सैनिकों का प्रतिकार नहीं हो पाया चूंकि सैनिक एक एक करके निकल रहे थे। इसलिए वे या तो पकड़े गये या बलिदान हुए। औरंगजेब ने सम्भाजी महाराज को जीवित पकड़ने का आदेश दिया था। इसलिये सम्भाजी महाराज अपने मित्र कवि कलश के साथ एक फरवरी 1689 को बंदी बना लिये गये। उन्हें जंजीर से बाँधकर तुल्लापुर किले में लाया गया। औरंगजेब ने समर्पण करने पर पूरा राज्य लौटाने का लालच दिया। समर्पण की शर्त इस्लाम कुबूल करना थी। सम्भाजी महाराज ने इंकार कर दिया। तब औरंगजेब ने यातनाएँ देकर समर्पण को राजी करने के आदेश दिये। और तब क्रूरताओं का क्रम चला । औरंगजेब के राज में मतान्तरण करने के लिये क्रूरतम यातनाएँ देना नया नहीं था। कभी किसी को परिवार सहित कोल्हू में पीसा गया, कभी किसी को आरे से चीरा गया, कभी गर्म कढ़ाही में डाला गया। कभी किसी को जिन्दा घोड़े से बाँधकर घसीटा गया। ऐसी ही क्रूरतम यातनाओं का क्रम सम्भाजी के साथ चला। यह सब कोई 38 दिन चला। उन्हें उल्टा लटका कर पीटा गया, आँखें निकालीं गईं, चीरा लगाकर नमक लगाया गया, जीभ काटी गई। और अंत में एक एक अंग काटकर तुलापुर नदी में फेंक दिया गया। इस प्रकार 11 मार्च 1689 को उनका बलिदान हुआ। एक फरवरी से 11 मार्च तक क्रूरता पूर्ण यातनाओं का यह क्रम चला। लेकिन ये क्रूरताएं भी सम्भाजी महाराज को झुका न सकीं।

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