डॉ. अंबेडकर एक नेता से ज्यादा राष्ट्र निर्माता हैं
विवेक उपाध्याय
आज के दिन 14 अप्रैल 1891 को बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म हुआ। बाबा साहब ने अपने उच्च आदर्शों के सामने कभी भी अपनी विशिष्ट छवि की चिंता नहीं की। उनका आदर्श था एक समतामूलक स्वतंत्र भारतीय समाज की स्थापना करना था, जिसके लिए बाबा साहब ने अपने जीवन के 56 वर्ष ब्रिटिश भारत तथा 9 वर्ष स्वतंत्र भारत में संघर्ष करते हुए बिताए और 6 दिसम्बर 1956 को जब अंतिम साँस ली तो उनका उद्देश्य संवैधानिक ढांचा प्राप्त कर चुका था। इस प्रत्यक्ष उपलब्धि के आधार पर डॉ. अम्बेडकर के समर्थक तथा विरोधी दोनों ही उन्हें अनुसूचित जाति के समाज नेता के संकीर्ण ढांचे में सीमित करने का प्रयास करते हैं। उनके कट आउट के आकार से अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं। जबकि उनका कद उससे कहीं विस्तृत है। यह राष्ट्र निर्माण को तत्पर राजमर्मज्ञ, अर्थशास्त्र के महान ज्ञाता, विचारक और बौद्ध करुणा की पुनर्प्रतिष्ठा करने वाले धर्मदूत के रूप में है। उनके व्यक्तित्व का सबसे बड़ा आकर्षण इन भूमिकाओं के निर्वहन के दौरान राष्ट्रीय चेतना के स्थायी भाव को बनाए रखने में है।
भाव की इस पवित्रता को विकसित करने में उनके अध्ययन की भूमिका रही। कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनके परास्नातक शोधपत्र का विषय ही ‘भारत का राष्ट्रीय लाभांश- एक ऐतिहासिक और विश्लेषणात्मक अध्ययन’ था। इस अध्ययन ने उनकी चेतना को दादा भाई नौरोजी तथा आर सी दत्त जैसे भारतीय अर्थशास्त्रियों की उस धारा से जोड़ दिया जिसने पूरी दुनिया से ब्रिटिश उपनिवेशवाद के नैतिक मुखौटे को उतारकर शोषक चेहरे को उजागर कर दिया। समाज के आर्थिक विश्लेषण की विभिन्न स्तरों के परिचय ने विदेशी आक्रमण तथा भारत विभाजन जैसे जटिल विषयों पर भी स्पष्ट दृष्टिकोंण प्रदान किया। फलस्वरूप तत्कालीन फैशन के विपरीत उन्होंने अपनी पुस्तक ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में मध्यकालीन आक्रमणों के पीछे के धार्मिक उद्देश्यों को उजागर किया।
डॉ. अम्बेडकर यदि चाहते तो इस्लाम या इसाईयत को ग्रहण कर अंतर्राष्ट्रीय नायक बन सकते थे। उनको हैदराबाद के निज़ाम ने धन का प्रलोभन दिया तथा पोप ने सीधा संपर्क किया। यहाँ तक कि वामपंथी भी आजीवन उनको प्रभावित करने का प्रयास करते रहे। उन्होंने सबको नकार दिया तो इसका सबसे बड़ा कारण इन धर्मों तथा विचारों की जड़ों का विदेश में होना था। धर्म परिवर्तन के विषय मे उनके निकट सहयोगी तथा संघ विचारक दत्तोपंत ठेंगड़ी से संवाद दिलचस्प है, जिसे उन्होंने अपने लेख ‘समरसता के मंत्रदृष्टा डॉ. बाबा साहब अंबेडकर’ मे वर्णित किया है। इस संवाद में डॉ. अंबेडकर हिन्दू समाज में सुधारों की धीमी गति और चेतनासंपन्न हो रहे अनुसूचित जाति समाज को मिल रहे प्रलोभनों के बारे में चेतावनी देते हैं तथा अपने जीते जी अनुयायियों को बेहतर विकल्प प्रदान करने की इच्छा प्रकट करते हैं। डॉ. अंबेडकर की राष्ट्रीय चेतना उपलब्ध विकल्पों को भारतीय परंपरा के ढांचे मे ही रखने को बाध्य कर रही थी। इसलिए उन्होंने नास्तिकता की तुलना में धार्मिकता को चुना और बौद्ध धर्म ग्रहण करने से पहले मात्र एक विकल्प सिख धर्म पर विचार किया।
अपने तार्किक विश्लेषण के बल पर ही डॉ. अंबेडकर ने संविधान सभा में संस्कृत को राष्ट्रीय भाषा बनाने की पैरवी की। उनका तर्क था कि संस्कृत भारतीय भाषाओं की जननी है तथा सबको शब्द सम्पदा प्रदान करने वाली है। इसलिए वह राष्ट्रीय भाषा बनने की सबसे प्रबल अधिकारिणी है। इसके अतिरिक्त जब तिलक जैसे प्रखर राष्ट्रवादी अंग्रेजों के मनोवैज्ञानिक दुष्प्रचार मे फँसकर आर्यों को विदेशी मानने लगे थे, तब डॉ. अंबेडकर ने अपने विद्वतापूर्ण तर्कों से इस धारणा को खंडित कर दिया। इस संदर्भ मे उन्होंने जो अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए उनमें प्रमुखतः भाषा वैज्ञानिक हैं, जैसे- आर्य शब्द की गुणवाचक अभिव्यक्ति। उनका मानना है की वेदों मे 33-34 बार जब जब आर्य शब्द आया है तब तब श्रेष्ठ जन के ही संदर्भ मे आया है। वेदों मे गंगा नदी का बार बार उल्लेख भी विदेशी आक्रमणकारी नहीं कर सकते थे।
डॉ. अंबेडकर भारतीय राष्ट्र के विकास में बंधुता भाव के विकास को आवश्यक मानते थे। इसके लिए राजनीतिक समानता के साथ आर्थिक तथा सामाजिक समानता भी आवश्यक थी। संविधान के प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप मे उन्होंने इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया। साथ ही स्वतंत्र भारत के प्रथम विधि मंत्री के रूप में राजा राम मोहन राय से प्रारम्भ सामाजिक सुधार को हिन्दू कोड बिल के रूप मे एक पड़ाव तक पहुंचाया। कुछ आलोचक डॉ. अंबेडकर के योगदान को कमतर करने के लिए संविधान में निरंतरता के अभाव का आरोप लगाते हैं। इसका उत्तर बाबा साहब के शब्द देते हैं-“यदि मसौदा समिति ने विषयांतर किया तो उसने ऐसा परिस्थितियों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किए बिना नहीं किया। उसने अकस्मात मछली पकड़ने के लिए बंसी नहीं डाली। वह जिस मछली के पीछे थी, उसे प्राप्त करने के लिए परिचित जलाशयों की खोज की”।
इसके साथ ही गांधी और अंबेडकर के द्वंद्व को भाव और तर्क के द्वंद्व के रूप में देखना चाहिए। दोनों समानता की कल्पना करते हैं लेकिन गांधी जी का समाधान भाव आधारित है तो अंबेडकर का तर्क आधारित। गांधी ग्राम विकास की बात करते हैं तो अंबेडकर गांवों को ‘कूपमंडूकता का परनाला’ बताते हैं। उस समय के इतिहास तथा गोदान जैसे साहित्य अंबेडकर को सही बताते हैं तो कोरोना महामारी में शहरी पलायन गांधी को सही साबित करता है। आज का नदी संकट भले पुनर्मूल्यांकन की मांग करे लेकिन तात्कालिक रूप से अंबेडकर समर्थित बड़ी नदी घाटी परियोजनाएं भारत के स्वावलंबन में सहायक रहीं।
राष्ट्रीय आंदोलन के आखिरी चरण की सबसे खास बात है कि उस समय के तीन सबसे लोकप्रिय संगठनकर्ता गांधी, अंबेडकर और गोलवरकर भारतीयता को बचाने तथा भारत में वामपंथ के उभार को रोकने मे प्रयासरत थे। गांधी का हिंसक विचारधारा से टकराव तो स्वाभाविक है, डॉ. अंबेडकर का वक्तव्य, “अनुसूचित जतियों और कम्युनिस्म के अंबेडकर अवरोध है तो सवर्ण हिंदुओं और कम्युनिस्म के बीच गोवलकर अवरोध है”, अन्य धाराओं के विरोध को पुष्ट करता है। जब स्वतन्त्रता उपरांत कम्युनिस्म भारत की आज़ादी को झूठी बताने के साथ विखंडन के स्वप्न देखने लगा तब तीनों की दूरदृष्टि सही साबित हुई।
भारत में दो अखिल भारतीय आन्दोलन हुए एक मध्य काल का भक्ति आन्दोलन तथा दूसरा राष्ट्रीय आन्दोलन। दोनों ही आन्दोलनों ने राष्ट्र को एक से बढ़कर एक प्रेरक व्यक्तित्व दिए। दोनों ही आंदोलनों में राष्ट्रीय एकीकरण का ही भाव प्रबल दिखता है। जिस प्रकार भक्ति आन्दोलन में नियामक व्यक्तित्व तुलसी का है तथा उसके सापेक्ष कबीर का व्यक्तित्व भंजक है,वो पुराने को तोड़ कर नवनिर्माण की कल्पना करते हैं। उसी प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गाँधी के सापेक्ष बाबा साहब का व्यक्तित्व है। इनमें से कोई भी एक दूसरे का विरोधी नहीं है बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। भारत की गुलामी एक अभिशाप थी इसको दूर करने में जो एक कदम भी चला वो हमारे लिए आदरणीय है। डॉ. अंबेडकर की तो पूरी पीढ़ी ही स्वराज के लिए समर्पित थी। आज उनके जन्मदिन पर हमें उस सम्पूर्ण पीढ़ी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाहिए।