अखण्ड भारत : अखण्डता का अर्थ क्या? (भाग दो)

अखण्ड भारत : अखण्डता का अर्थ क्या? (भाग दो)

देवेंद्र स्वरूप

अखण्ड भारत : अखण्डता का अर्थ क्या? (भाग दो)अखण्ड भारत

मनुस्मृति आर्यावर्त पर आकर रुक जाती है। उसके आगे सांस्कृतिक प्रवाह की यात्रा का वर्णन नहीं करती। यह वर्णन हमें महाभारत व पुराणों में प्राप्त होता है। पुराण हमें भारत नाम की उत्पत्ति, उसकी भौगोलिक सीमाओं, उसके नदी प्रवाहों, पर्वतों, नगरों और आसेतु हिमाचल बिखरे जनपदों का परिचय देते हैं। उनके अनुसार वैवस्वत मनु की वंश परम्परा के नाभि के पौत्र एवं ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारत नामकरण हुआ। भरत ने सरस्वती के तट पर अनेक यज्ञ किए। कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् में वर्णित दुष्यंत पुत्र भरत का उल्लेख कोई पुराण नहीं करता। कुछ प्राच्यविद् भारत नाम का स्रोत सरस्वती नदी के तट पर भरत नामक जन को मानते हैं। यदि सरस्वती तट पर विकसित वैदिक सरस्वती का आधार भरत जन था तो यह बहुत संभव है कि उस लम्बी सांस्कृतिक यात्रा, जिसने उस पूरे भूगोल को जिसे भारत वर्ष नाम मिला, एक सांस्कृतिक व्यक्तित्व प्रदान करने का माध्यम भरत जन ही रहा होगा।

महाभारत ने भारतवर्ष नाम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का वर्णन करते हुए उसका कीर्तिगान किया। भीष्म पर्व के नवें अध्याय में महाभारतकार कहता है कि अब तुम्हारे लिए उस भारतवर्ष का कीर्तिगान करूंगा जो देवराज इन्द्र, वैवस्वत मनु, वैन्यपृथु, इक्ष्वाकु, ययाति, अम्बरीष, मान्धाता, नहुष, मुचुकुन्द, उशिनर, ऋषभ, एल नृग, कुशिक, सोमक, दिलीप आदि राजाओं को प्रिय था। ये सभी नाम महाभारत युद्ध से पुराने हैं और एक लम्बी इतिहास यात्रा के सूचक हैं। पुराण, ग्रन्थ इस इतिहास यात्रा में से जन्मी-बढ़ी सांस्कृतिक पक्ष को महत्व देते हैं। विष्णु पुराण कहता है कि भारतवर्ष में ही चार युग (कृत, त्रेता, द्वापर और कलि) होते हैं अन्यत्र कहीं नहीं। इसी देश में परलोक के लिए मुनिजन तपस्या करते हैं, याज्ञिक लोग यज्ञानुष्ठान करते हैं और दान देते हैं। जम्बूद्वीप में भी भारतवर्ष सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह कर्मभूमि है। अन्य देश केवल भोग भूमियां हैं। जीव को सहस्रों जन्मों के अनन्तर महान पुण्यों का उदय होने पर ही इस देश में जन्म प्राप्त होता है। मनुष्य तो मनुष्य स्वर्ग के देवता भी एक ही गीत गाते हैं कि धन्य हैं वे जिन्हें भारतभूमि में जन्म मिला, क्योंकि वहां स्वर्ग और अपवर्ग दोनों को प्राप्त कराने वाला कर्म पथ उपलब्ध है। विष्णु पुराण भारत को मोक्ष भूमि व कर्म भूमि कहता है। (विष्णु पुराण, द्वितीय अंश, अध्याय 3, श्लोक 19-25)

विष्णु पुराण की इन पंक्तियों में भारत की ज्ञान यात्रा की त्रयी विद्या से ब्राह्म विद्या की ओर प्रगति का संकेत भी छिपा है। ये पंक्तियां हमें भगवद्गीता (अध्याय 9, श्लोक 20-21) के इस कथन का स्मरण दिलाती हैं कि सोमपान करने वाले त्रैविद्य यज्ञों के द्वारा स्वर्ग पाने की प्रार्थना करते हैं। वे अपने पुण्यों के फलस्वरूप इन्द्रलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में देवतुल्य भोग भोगते हैं। किन्तु उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर अपने पुण्यों के क्षीण होने पर पुन: मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस त्रयी धर्म का अनुसरण करने वाले, भोगों की कामना वाले लोगों को आवागमन के चक्र में फंसे रहना पड़ता है। एक अन्य स्थान पर गीता कहती है कि तीनों वेद (ऋक्, यजु: और साम) त्रिगुणात्मक हैं। तू उनसे आगे बढ़। ब्राह्म को जानने वाले व्यक्ति के लिए सब वेदों का प्रयोजन उतना रह जाता है जितना कि सब ओर से परिपूर्ण विशाल जलाशय के प्राप्त हो जाने पर किसी कुंए का होता है। (गीता, अध्याय-2, श्लोक 45-46) भारत की ज्ञान यात्रा गतिमान है। उसने एक बिन्दु पर पहुंच कर जीव, जगत और ब्राह्म के वास्तविक स्वरूप का साक्षात्कार किया। देश और काल से बंधे दृश्य जगत के परे जाने के लिए योगमार्ग का आविष्कार किया। स्वर्ग से आगे मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य को मानव जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। और अनेक जन्मों में उस लक्ष्य तक पहुंचाने वाले श्रेष्ठ दैवी गुणों का प्रतिपादन किया। इनके समुच्चय को ही “धर्म” कहा। मानव की अर्थ और काम की जन्मजात ऐषणाओं को “धर्म” के द्वारा संयमित करने का प्रयास किया- धर्मानुसार अर्थ, अर्थानुसार काम जैसे सूत्र प्रदान किए। व्यक्ति को कुल, जाति, ग्राम, जनपद और राष्ट्र की सीढ़ियों पर चढ़ते हुए “वसुधैव कुटुम्बकम्” के आदर्श तक पहुंचाने वाली समाज रचना खड़ी की, जीवन की विविधता को केवल सहन ही नहीं तो शिरोधार्य किया। “एकोऽहं बहुस्यामि” और “एकं सद्विप्रा: बहुधा वदन्ति” जैसे सूत्र वाक्यों के द्वारा उसे दार्शनिक अधिष्ठान दिया।

अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा कि इस भूमि पर अनेक बोलियां बोलने वाले और अनेक आचार-विचार को मानने वाले लोग रहते हैं पर यह भूमिमाता अपने उन सब पुत्रों को समान रूप से दूध पिलाती है। वह मेरी माता है, मैं उसका पुत्र हूं। कृतज्ञता से भरे भारतीय मन ने माता-भूमि सम्बन्ध के द्वारा अपने को इस भूमि से मान लिया। इसके कण-कण में अपनी श्रद्धा के बीज बोये जिनमें से एक विशाल तीर्थ मालिका का जन्म हुआ। यह मातृभूमि के प्रति भक्ति की अनेकमुखी विविधता को बांधने वाला सूत्र बन गयी। भारत ने प्रत्येक व्यक्ति को अपनी रुचि, प्रकृति के अनुकूल इष्ट देवता और उपासना पद्धति को चुनने की छूट दी। गीता में कृष्ण ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि जो मुझे जिस जिस रूप में भजना चाहता है मैं उसकी श्रद्धा को उसी रूप में दृढ़ कर देता हूं। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार सब नदियों का जल बहकर समुद्र में जाता है उसी प्रकार उपासना के सब मार्ग मुझ तक ही पहुंचाते हैं। मनुष्य के आत्मिक विकास की एकमात्र कसौटी है “आत्मवत् सर्वेभूतेषु” और “सर्वभूतहिते रत:।” इस प्रकार भारत माता के प्रति पुत्र भाव और एक श्रेष्ठ जीवन दर्शन के प्रति अस्था ने ही हमारी सब विविधताओं को एक सूत्र में बांधे रखा है। इसी को राष्ट्र-धर्म कहते हैं। भूमि के प्रति भक्ति का यह भाव सांस्कृतिक प्रवाह के साथ-साथ आगे बढ़ता गया। संस्कृति और भारत एकरूप हो गए। इसीलिए भारतवर्ष की व्याख्या ब्राह्मावर्त, ब्राह्मर्षि देश, मध्य देश, आर्यवर्त, कन्याकुमारी से हिमालय तक के कुमारी खंड से आगे बढ़कर नवद्वीपवती तक पहुंच गयी। भारत ने बृहत्तर भारत का रूप धारण कर लिया।

क्रमश:

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