अमानवीय ‘जरायम पेशा’ कानून के विरुद्ध मीणा समाज का संघर्ष
पंकज मीणा
अमानवीय ‘जरायम पेशा’ कानून के विरुद्ध मीणा समाज का संघर्ष
स्वतंत्रता प्रिय, साहसी और अन्याय के विरुद्ध लड़ाकू जनजातियों को दबाने के लिए अंग्रेजों द्वारा बनाए गए जनजाति अपराध कानून जैसा ही अमानवीय जरायम पेशा कानून जयपुर रियासत में भी अंग्रेजों की शह पर लागू कर सम्पूर्ण मीणा जाति को अपराधी घोषित कर दिया गया था। इस अन्याय के विरुद्ध संगठित होकर मीणा समुदाय ने लंबा संघर्ष किया। प्रजा मंडल के माध्यम से पूरा हिंदू समाज उनके साथ खड़ा था। अंततः 28 वर्ष के लंबे संघर्ष के बाद सफलता मिली।
भारत देश के विभिन्न भागों में स्वाधीनता से पूर्व जहां सीधा शासन राजाओं का था, वहां स्वतंत्रता आंदोलन की जगह सुधार आंदोलन हुए। अंग्रेजों के द्वारा बनाए कानूनों को राजा यथावत अथवा थोड़ा बहुत बदलकर कठोरता से लागू करते थे। राजस्थान की वीरभूमि पर इनके विरोध में ऐसे ही कई बड़े आंदोलन हुए। ऐसा ही एक बड़ा आंदोलन ‘जरायम पेशा एक्ट हटाओ आंदोलन’ हुआ। जिसका प्रमुख केन्द्र राजस्थान का ढूंढाड़ व शेखावाटी क्षेत्र था। इस आंदोलन के प्रमुख नेतृत्वकर्ता थे जनजाति समाज के लक्ष्मीनारायण झरवाल, बद्रीप्रसाद दुखिया, भैरोलालकाला बादल, कैप्टन छुट्टन लाल, भगवताराम इत्यादि।
देश का जनजाति समाज प्रारंभ काल से स्वतंत्रता प्रिय समाज रहा है। शासकों के अन्यान्यपूर्ण कानून का डटकर विरोध करना तथा उसके विरुद्ध लड़ना इन लोगों के स्वभाव में ही रहा है। अन्याय के विरुद्ध जनजातियों के इस लड़ाका स्वभाव के कारण ही अंग्रेजों ने सन 1871 में “जनजाति अपराध कानून” (क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट) तथा सन 1874 में ‘जनजाति क्षेत्र कानून’ बनाया। इन कानूनों के माध्यम से जनजातियों को अपराधी श्रेणी में रखकर कठोरता बरती जाती और तरह–तरह की यातनाएं दी जाती थीं। राजस्थान में गोविंद गुरु के ‘भगत आंदोलन’ जिसकी परिणति में मानगढ़ में नरसंहार हुआ तथा मोतीलाल तेजावत के ‘एकी आंदोलन’ से डरे अंग्रेजों ने जयपुर व अलवर रियासत के माध्यम से मीणा जनजाति को जकड़ने हेतु ‘जनजाति अपराध कानून’ व ‘जनजाति क्षेत्र कानून’ का मिला–जुला रूप जरायम पेशा कानून बनाया। इस कानून के अंतर्गत मीणा जाति में जन्म लेने वाले बालक से लेकर बुजुर्ग तक सबको अपराधी की श्रेणी में रखा जाने लगा तथा इन पर कठोर निगरानी रखी जाने लगी। इस जाति के सभी लोगों के घूमने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस जाति के युवाओं को नियमित थाने में हाजिरी लगाने के लिए प्रतिबद्ध किया गया। इस कानून की वजह से मीणा जनजाति की सामाजिक प्रतिष्ठा को ठेस लगी, साथ ही इनकी आर्थिक व्यवस्था भी छिन्न–भिन्न हो गई। बिना किसी अपराध के घटित हुए ही संपूर्ण आदिवासी समाज को अपराधी घोषित किया और कठोर दंड दिया जाता था।
जैसा कि जनजातियों का स्वभाव होता है, अन्याय के विरुद्ध लड़ना, तो इस बार भी मीणा समाज एकजुट हुआ, परंतु सशस्त्र विरोध करने की जगह आंदोलन का रास्ता चुना। इन आंदोलनों का नेतृत्व शेखावाटी में गणपत राम बगराणियां, भगवताराम बुनस, अलवर में बद्रीप्रसाद दुखिया, कैप्टन छुट्टनलाल तथा जयपुर में लक्ष्मीनारायण, राजेन्द्र कुमार ‘अजेय’ जैसे महानुभावों ने संभाला। इन नेताओं की अगुवाई से जनता बड़ी संख्या में जुटने लगी और बड़े–बड़े सम्मेलन, धरने–प्रदर्शन इत्यादि होने लगे। ऐसा समय जब जनजाति समाज में शिक्षा नगण्य के बराबर थी, तब लाखों की संख्या में जनता का जुटना अपने आप में अभूतपूर्व था।
इन्हीं नेताओं की अगुवाई में जमवारामगढ़ (1931) शाहजहांपुर (1933) जयपुर (1938), नीम का थाना (1944), गुढ़ा पोंख (1945), डाबला (1945), नींदड़ बैनाड़ (1945), कोटपूतली (1946), सीकर (1946), बैराठ (1946), खेतड़ी (1946), भरतपुर (1946), झुंझुनू (1946), निवाई (1946), खेजरोली (1946), पावटा (1947), टोंक (1947), दूदू (1947) इत्यादि स्थानों पर विशाल सम्मेलन आयोजित किए गए। जागृति की यह लौ आगरा राजस्थान की सीमाओं से बाहर बुलंदशहर संयुक्त प्रांत (1942) और शिवपुरी (मध्य प्रदेश) तक भी पहुंची।
इन सम्मेलनों में जनजाति अपराधी कानून को हटाने की मांग प्रमुखता से उठाई जाती थी, साथ ही सामाजिक कुरीतियां समाप्त करने के प्रस्ताव भी पारित किए जाते थे। इन आंदोलनों का देशभर में ऐसा प्रभाव पड़ा कि कांग्रेस के तत्कालीन नेता पंडित नेहरू ने जयपुर में (1945 में) आकर आश्वासन दिया कि वह कांग्रेस के माध्यम से अंग्रेज सरकार से इस कानून को हटाने की मांग करेंगे, हालांकि यह कानून स्वतंत्रता पश्चात् समाप्त हुआ। परंतु राजस्थान के मीणा समाज ने इन सम्मेलन–आंदोलनों के माध्यम से इस कदर दबाव बनाया कि अंग्रेजों को पसीना आ गया और 1944 में मीणा जाति को इस कानून से डिलिस्ट किया गया। इन सम्मेलनों के माध्यम से समाज सुधारकों ने सामाजिक रूप से भी आमूल–चूल परिवर्तन करने की शुरुआत की। जिसकी वजह से सैकड़ों वर्षों से मुख्यधारा से कटे जनजातीय बंधु आज समाज के सभी वर्गों के साथ समान रूप से जीवन यापन कर रहे हैं।
(लेखक ‘सनातनी आदिवासी मीणा संस्था’, राजस्थान के अध्यक्ष हैं)
अंग्रेजी कानून के अनुसरण में तथा अंग्रेजों की शह पर जयपुर रियासत में 1930 में लागू किए गए अमानवीय ‘जरायम पेशा कानून’ के कारण स्वछन्द विचरण करने वाली बहादुर मीणा जनजाति सामान्य मानवाधिकारों से भी वंचित कर दी गई थी। इसका विरोध करने के लिए सन 1933 में ‘मीणा क्षेत्रीय महासभा’ की स्थापना कर जयपुर शासन से जरायम पेशा कानून रद्द करने की मांग की गई। रियासती शासन ने इस मांग को अस्वीकार करते हुए येन–केन–प्रकारेण संस्था का ही विघटन करा दिया। परन्तु उस कानून के विरोध में मीणा समाज लगातार संघर्ष करता रहा। अप्रैल, 1944 में जैन मुनि मगन सागर जी की अध्यक्षता में नीमका थाना में मीणा जनजाति का एक बड़ा सम्मेलन हुआ। वहां पर ‘जयपुर राज्य मीणा सुधार समिति’ नाम से एक संस्था बनाई गई। बंशीधर शर्मा अध्यक्ष, राजेन्द्र कुमार ‘अजेय’ मंत्री एवं लक्ष्मीनारायण झरवाल संयुक्त मंत्री बनाए गए। सम्मेलन में मीणा समाज में फैली बुराइयों को दूर करने, चौकीदारी प्रथा समाप्त करने तथा जरायम–पेशा जैसे कानूनों को रद्द करवाने के लिए आंदोलन करने का निश्चय किया गया। ‘मीणा सुधार समिति’ ने जयपुर प्रजा–मंडल के सहयोग से जयपुर शासन पर जरायम–पेशा कानून को रद्द करने के लिए दबाव डाला। समिति ने कई स्थानों पर सम्मेलन किए। राज्य द्वारा कोई कदम नहीं उठाने पर अप्रैल, 1945 में श्रीमाधोपुर में हुई बैठक में राज्यव्यापी आंदोलन करने का निर्णय हुआ। लक्ष्मीनारायण झरवाल संयोजक बनाए गए। प्रजामंडल के देशपाण्डे, रामकरण जोशी आदि भी वहां उपस्थित थे। सरकार ने झरवाल को भारत सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ्तार कर भारी यातनाएं दीं। प्रतिक्रिया स्वरूप स्थान–स्थान पर सभाएं हुईं। अंततः 17 मई, 1945 को झरवाल रिहा कर दिए गए। 31 दिसंबर, 1945 को उदयपुर में ‘अखिल भारतीय देशी राज्यलोक परिषद’ का अधिवेशन हुआ। जहां जरायम पेशा कानून की निंदा की गई। जवाहर लाल नेहरू तथा ठक्कर बापा ने भी अपना विरोध प्रकट किया। परिणामस्वरूप 4 मई, 1946 व उसके पश्चात क्रमशः जरायम पेशा कानून में ढील देना शुरू हुआ, परन्तु सरकारी निर्णय से असंतुष्ट मीणा समाज ने ‘मीणा सुधार समिति’ के आह्वान पर 6 जून, 1947 को जयपुर में विशाल प्रदर्शन कर ‘जरायम पेशा कानून’ का पुतला फूंका तथा कानून की प्रतियां जलाईं। उस दिन से उक्त कानून के अंतर्गत मीणा बंधुओं ने पुलिस थाने में हाजिरी देना बंद कर दिया। फलतः हजारों मीणा लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में यातनाएं दी गईं, परन्तु पुलिस मीणा लोगों को हाजिरी देने के लिए बाध्य करने में पूर्णतया असफल रही। अंग्रेजों द्वारा भारत की देशभक्त बहादुर जनजातियों को निःशक्त करने के लिए बनाए गए ‘क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट’ के अनुसरण में ही अंग्रेजों की शह पर जयपुर रियासत द्वारा बनाए गए ‘जरायम पेशा कानून’ को रद्द कराने में मीणा समुदाय को देश की स्वाधीनता के बाद भी संघर्षरत रहना पड़ा। प्रजा मंडल के माध्यम से हिंदू समाज के सभी लोग इस संबंध में मीणा समाज के साथ संघर्षरत थे और हर तरह का सहयोग करते रहे। अंततः 1952 में उक्त कानून रद्द हुआ और 28 वर्षों के लंबे संघर्ष में सफलता मिली। |