अर्नब की गिरफ्तारी के मायने क्या हैं?
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ
प्रणय कुमार
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वविवेक का नियंत्रण तो ठीक है, परंतु उस पर सरकारी पहरे बिठाना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सीधा हनन है। लोकतंत्र के सभी शुभचिंतकों एवं प्रहरियों को ऐसे किसी भी कृत्य का विरोध करना चाहिए।
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ माना जाता है। लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने में मीडिया की विशेष भूमिका होती है। उसका उत्तरदायित्व निष्पक्षता से सूचना पहुँचाने के साथ-साथ जन सरोकार से जुड़े मुद्दे उठाना, जनजागृति लाना, जनता और सरकार के बीच संवाद का सेतु बनना और जनमत बनाना भी होता है। सरोकारधर्मिता मीडिया की सबसे बड़ी विशेषता रही है। यह भी सत्य है कि सरोकारधर्मिता की आड़ में कुछ चैनल-पत्रकार अपना-अपना एजेंडा भी चलाते रहे हैं। हाल के वर्षों में टीआरपी एवं मुनाफ़े की गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा ने मीडिया को अनेक बार कठघरे में खड़ा किया है। उनका स्तर गिराया है। उनकी साख़ एवं विश्वसनीयता को संदिग्ध बनाया है। निःसंदेह कुछ चैनल-पत्रकार पत्रकारिता के उच्च नैतिक मानदंडों एवं मर्यादाओं का उल्लंघन करते रहे हैं। जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम से जुड़े होने के कारण उन्हें जो सेलेब्रिटी हैसियत मिलती है, उसे वे सहेज-सँभालकर नहीं रख पाते और सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि मर्यादा और नैतिकता की यह लक्ष्मण-रेखा किसी बाहरी सत्ता या नियामक संस्था द्वारा आरोपित न होकर पत्रकारिता के धर्म से जुड़े यशस्वी मीडियाकर्मियों एवं पत्रकारों द्वारा स्वतःस्फूर्त दायित्वबोध से ही खींचीं गई है। स्वतंत्रता-पूर्व से लेकर स्वातन्त्रयोत्तर काल तक भारतवर्ष में पत्रकारिता की बड़ी समृद्ध विरासत एवं परंपरा रही है। उच्च नैतिक मर्यादाओं एवं नियम-अनुशासन का पालन करते हुए भी पत्रकारिता जगत ने जब-जब आवश्यकता पड़ी लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। सत्य पर पहरे बिठाए जाने की निरंकुश सत्ता की हर कोशिश को नाकाम करने में मीडिया ने हमेशा बड़ी भूमिका निभाई है। आपातकाल के काले दौर में भी मीडिया ने अपनी स्वतंत्र एवं निर्भीक आवाज़ को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। पत्रकारिता के गिरते स्तर पर बढ़-चढ़कर बातें करते हुए हमें मीडिया की इन उपलब्धियों और योगदान को कभी नहीं भुलाना चाहिए।
फिर हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संक्रमण के दौर से भला आज कौन-सा क्षेत्र अछूता है? ऐसे में केवल मीडिया से निष्पक्षता एवं उच्चतम नैतिकता की अपेक्षा रखना सर्वथा अनुचित है। माना कि कुछ मीडिया घराने और पत्रकार निष्पक्ष नहीं हैं और होंगें भी नहीं। कुछ के बहस के तरीके भी आक्रामक, एकपक्षीय, हास्यास्पद या शोर भरे हो सकते हैं। परंतु क्या केवल इसी आधार पर आए दिन मीडिया पर होने वाले हमलों को जायज़ ठहराया जा सकता है? आज मीडिया पर चारों ओर से जो हमले हो रहे हैं, सत्ता की जैसी हनक और धमक दिखाई जा रही है, उसके विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों में जिस प्रकार की याचिकाएँ डाली जा रही हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत तो निश्चित ही नहीं है।
सवाल यह भी उठना चाहिए कि क्या पक्षधर पत्रकारिता अपराध है? ऐसी पत्रकारिता कब और किस दौर में नहीं रही? बल्कि पत्रकारिता-जगत के तमाम जाने-माने, चमकदार चेहरे गाजे-बाजे के साथ पक्षधर पत्रकारिता की पैरवी करते रहे। विचारधारा विशेष के प्रति उनकी पक्षधरता ही उनकी प्रसिद्धि की प्रमुख वजह रही। उनमें से कई तो सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते रहे कि पक्ष तो सबका अपना-अपना होता है।
सवाल अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी से जुड़े हैं। केवल अर्नब ही सत्ता के आसान शिकार और कोपभाजन क्यों? प्रशस्ति-गायन पर उपकृत करने और विरोध या असहमति पर दंडित किए जाने की परिपाटी स्वस्थ और लोकतांत्रिक तो कदापि नहीं! लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने की आज़ादी है। संविधान अभिव्यक्ति की आज़ादी देता है। असहमति या विरोध की क़ीमत गिरफ़्तारी नहीं है। महाराष्ट्र पुलिस-प्रशासन ने जिस प्रकार मुँह अँधेरे रिपब्लिक चैनल के प्रमुख अर्नब गोस्वामी को एक पुराने एवं लगभग बंद प्रकरण में गिरफ़्तार किया है, वह उसकी मंशा एवं कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करता है।
अर्नब गोस्वामी का कोई आपराधिक अतीत नहीं, वे कोई सजा प्राप्त मुज़रिम नहीं हैं। सुबह-सुबह दल-बल सहित पुलिस का उनके घर धमक पड़ना और बिना किसी पूर्व सूचना या कारण बताए उन्हें गिरफ़्तार करके ले जाना, पूछ-ताछ की फ़ौरी कार्रवाई कम और प्रतिशोधात्मक अधिक प्रतीत होती है। यदि महाराष्ट्र सरकार को लगता है कि रिपब्लिक चैनल उसकी छवि धूमिल कर रहा है तो उन्हें अन्य चैनलों एवं माध्यमों के ज़रिए जनता तक अपनी बात पहुँचानी चाहिए। छवि चमकाने के लिए अर्नब को गिरफ़्तार करके ज़बरन उनकी आवाज़ को दबाने की कहाँ आवश्यकता है?
और आश्चर्य है कि अर्नब की गिरफ़्तारी पर अधिकांश चैनल और मीडिया घराने चुप हैं। क्या व्यावसायिक मुनाफ़ा सभी सरोकारों पर भारी पड़ता है? सनद रहे कि ऐसी चुप्पी सत्ता को निरंकुश बनाती है और असहमति, आलोचना, विरोध को हमेशा-हमेशा के लिए ख़ारिज करती है। क्या स्वस्थ लोकतंत्र में असहमति एवं आलोचना के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए? और यदि अर्नब ने कुछ ग़लत किया है तो न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत पारदर्शी तरीके से कार्रवाई होनी चाहिए, न कि जोर-जबरदस्ती से? यदि निष्पक्षता पत्रकारिता का धर्म है तो कार्यपालिका एवं सरकार का तो यह परम धर्म होना चाहिए। उसे तो अपनी नीतियों एवं निर्णयों के प्रति विशेष सतर्क एवं सजग रहना चाहिए।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वविवेक का नियंत्रण तो ठीक है, परंतु उस पर सरकारी पहरे बिठाना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का सीधा हनन है। और लोकतंत्र के सभी शुभचिंतकों एवं प्रहरियों को ऐसे किसी भी कृत्य का विरोध करना चाहिए।