असेंबली में बम के धमाके से देश-विदेश में गूंजी सशस्त्र क्रांति की आवाज
अमृत महोत्सव लेखमाला : सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ (भाग-13)
नरेन्द्र सहगल
असेंबली में बम के धमाके से देश-विदेश में गूंजी सशस्त्र क्रांति की आवाज
सरदार भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने लाहौर में खुले स्थान पर दिनदहाड़े अत्याचारी अंग्रेज अफसर सांडर्स को गोलियों से उड़ा दिया। हत्या करने के पश्चात चारों क्रांतिकारी चारों ओर की चाकचौबंद घेराबंदी को धता बताकर प्रशासन की आंखों में धूल झोंक कर, लाहौर से सुरक्षित निकलकर कर कलकत्ता जा पहुंचे। इस घटनाक्रम से भारत समेत सारे अंतर्राष्ट्रीय जगत में तीन संदेश पहुंचे। प्रथम भारत में अंग्रेज तानाशाही अपने चरम पर है। दूसरा भारत की आम जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और तीसरा भारत में सक्रिय सशस्त्र क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद का तख़्त उखाड़ने के लिए अपने बलिदानों की झड़ी लगा दी है।
सांडर्स की हत्या के बाद सुरक्षित कलकत्ता पहुंचकर भगत सिंह ने क्रांति की गतिविधियों को आगे बढ़ाने के लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब में भी कलकत्ता की तरह बम बनाने की फैक्ट्री लगाने का निश्चय किया। प्रसिद्ध क्रांतिकारी यतीन्द्रदास की सहायता से काम भी शुरू कर दिया गया। भगत सिंह का आगामी कार्यक्रम किसी बहुत बड़े धमाके के साथ विश्व भर में यह संदेश देना था कि भारत में अंग्रेजों को समाप्त करने के लिए बकायदा एक सशस्त्र युद्ध चल रहा है।
उधर सरकार ने भी जनता को और ज्यादा दबाने और बमों के धमाके करने वाले युवा क्रांतिकारियों से निपटने की एकतरफा योजना तैयार कर ली। योजना अनुसार सरकार ने केंद्रीय विधानसभा में दो प्रस्ताव लाने की घोषणा कर दी। एक था ‘पब्लिक सेफ्टी एक्ट’ और दूसरा ‘ट्रेड्स डिस्प्यूट एक्ट’। इन दोनों कानूनों के द्वारा सरकार जनता में अंग्रेजों के प्रति बढ़ रहे रोष को दबाने और भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट करना चाहती थी। ये दोनों प्रस्ताव डंके और डंडे के जोर से पारित किए जाने थे। असेंबली में विपक्ष का बहुमत होने के कारण सरकार इन्हें वायसराय के विशेषाधिकार का प्रयोग करके, सीधे आदेश से पारित करवाना चाहती थी।
‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ ने इस अवसर पर असेंबली में बम धमाका करके सरकार के बहरे कानों में भारतीयों की आवाज पहुंचाने का निर्णय किया। क्रांतिकारियों की इस योजना का उद्देश्य स्पष्ट था कि यदि सरकार जनता के प्रतिनिधियों की आवाज को अनसुना करके अपनी राक्षसी शक्ति के बल पर प्रस्ताव लाना चाहती है तो जनता भी अपने बल से इसका विरोध कर सकती है। क्रांतिकारी इस विस्फोट से यह भी जताना चाहते थे कि अंग्रेजों द्वारा बनाई गई विधानसभाएं एक ढोंग मात्र हैं। इनमें खुली बहस का कोई प्रावधान नहीं है और इसके सदस्यों की भी कोई राजनैतिक औकात नहीं है।
क्रांतिकारियों की केंद्रीय समिति ने सर्वसम्मति से निर्णय किया कि असेम्बली में बम फेंक कर भागा ना जाए। धमाका करने वाले अपने आप को पुलिस के हवाले कर दें ताकि बाद में न्यायालय में सशस्त क्रांति के उद्देश्यों पर क्रांतिकारियों के बारे में प्रचारित की जा रही भ्रांतियों को दूर किया जा सके। इस तरह समाचार पत्रों के माध्यम से क्रांतिकारियों के वैचारिक आधार को आम भारतीयों तक पहुंचाया जा सकता है। इस जोखिम भरे और विद्वतापूर्ण कार्य के लिए सरदार भगत सिंह ने स्वयं को प्रस्तुत किया। कार्य समिति के सदस्यों ने भारी मन से भगत सिंह का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। यद्यपि सब जानते थे कि वे अपने प्रिय एवं योग्य नेता को मौत के मुंह (बलिदान) में भेज रहे हैं। भगत सिंह के साथ एक क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त ने भी इस कार्य के लिए अपनी इच्छा व्यक्त की, जिसे मान लिया गया।
सरकार को क्रांतिकारियों की इस बम विस्फोट की योजना का कोई सुराग नहीं लगा। उधर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली की दर्शक दीर्घा में जाकर बैठने की गुप्त व्यवस्था कर ली। 8 अप्रैल 1929 को सरकार ने विधानसभा में वायसराय के विशेष आदेश से दोनों प्रस्तावों को पारित करना चाहा। सरकार के होम सेक्रेटरी जॉन सुस्टर जैसे ही दोनों प्रस्तावों के पारित होने की घोषणा करने के लिए खड़े हुए, भगत सिंह ने खाली पड़ी कुर्सियों पर बम फैंक दिया। इसी वक्त बटुकेश्वर दत्त ने भी उसी स्थान पर पूरे जोर से बम का दूसरा धमाका कर दिया।
दोनों बमों के धमाके इतने भयंकर थे कि असेम्बली हॉल की खिड़कियाँ, दरवाजे और शीशे बम की आवाज से थरथरा उठे, मानो कोई भूचाल आ गया हो। अपने प्राण बचाने के लिए कई सदस्य बेंचों और कुर्सियों के नीचे छुप गए। कुछ घने धुएं के कारण बेहोश हो गए। कई शौचालयों में जा घुसे। पंडित मदन मोहन मालवीय, मोतीलाल नेहरू और जिन्ना अपनी कुर्सियों पर बैठे रहे। संभवतया वह क्रांतिकारियों द्वारा किए इस कृत्य पर हंस रहे हों।
बम फेंकने के बाद इन क्रांतिकारियों ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ – ‘क्रांति अमर रहे’ – ‘ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो’ के नारों से असेम्बली हॉल को गुंजा दिया। इन नौजवानों के उद्घोषों की आवाज बम के धमाकों से भी ज्यादा भयानक थी। इस प्रकार इन दोनों स्वतंत्रता सेनानियों ने भविष्य में होने वाली क्रांति का बिगुल बजा दिया।
नारों की गगनभेदी ऊंची आवाज के साथ ही इन्होंने हॉल में इधर-उधर छिपे सदस्यों के सामने लाल पर्चे फेंके। इन पर्चों में घोषणा की गई थी कि – “बहरों को सुनाने के लिए विस्फोट की बहुत ऊंची आवाज की जरूरत होती है — आज जब साइमन कमीशन से भारतीय जनता कुछ सुधारों के टुकड़ों की उम्मीद लगाए बैठी थी, विदेशी सरकार इस प्रकार के काले कानूनों के रूप में अपने जुल्मों को और भी ज्यादा सख्त करने का प्रयास कर रही है।”
इस परिस्थिति में अपने फर्ज को समझते हुए ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ ने हमें यह कदम उठाने की आज्ञा दी। इसका उद्देश्य है कि कानून का यह अपमानजनक ड्रामा बंद किया जाए। विदेशी नौकरशाही जो चाहे करे, यह बेकार का नाटक समाप्त किया जाए।”
“जनता के प्रतिनिधियों से हम निवेदन करते हैं कि इस विधानसभा के पाखंड को छोड़कर, अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बता देना चाहते हैं कि हम देश की जनता की ओर से सार्वजनिक सुरक्षा और औद्योगिक विवाद के दमनकारी कानूनों और लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में यह कदम उठा रहे हैं।”
“हम मनुष्य जीवन को पवित्र समझते हैं और मानव रक्त को बहाने के लिए अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रांति द्वारा सबको समान स्वतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने के लिए थोड़ा बहुत रक्तपात जरूरी हो जाता है।”
उल्लेखनीय है कि विधानसभा में हुए इस बम धमाके ने इंग्लैंड ही नहीं, पूरे विश्व के कोने-कोने में तूफान खड़ा कर दिया था। बम के धमाकों के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने अपने संगठन के आदेशानुसार अपने आप को सहर्ष पुलिस के हाथों में सौंप दिया। उन्हें गिरफ्तार करने वाले अफसर सार्जेंट टेरी ने दोनों से पूछा – “क्या आपने ही बम फेंका है?” शायद सार्जेंट ने समझा होगा कि दोनों क्रांतिकारी डरकर कह देंगे हमने बम नहीं फेंका, परंतु यहां तो उल्टा हो गया। दोनों ने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे के साथ सीना फुला कर कहा – “हां हमने यह बम गिराया है, आपकी सरकार के बहरे कानों को खोलने के लिए।”
दोनों क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करके नई दिल्ली के पुलिस स्टेशन में ले जाया गया। थाने में इन दोनों क्रांतिकारियों के साथ पुलिस ने खासतौर पर अंग्रेज सिपाहियों ने कितनी अमानवीय यातनाएं दी होंगी, कितनी अनर्गल और गंदी भाषा का प्रयोग किया होगा और कितना दबाव डाला होगा, इसकी कल्पना करना भी भयावह लगता है। तो भी पुलिस को पता चल गया होगा कि भारत माता के ये दोनों पुत्र देशभक्ति के उस इस्पात से बने हैं, जिसे कोई तोड़ने का प्रयास करेगा तो उसके अपने हाथ टूट जाएंगे।
फिर न्यायालय का पुराना नाटक चला। दोनों अभियुक्तों पर विस्फोटक पदार्थ रखने तथा दहशत फैलाने के आरोप लगाए गए। न्यायाधीशों ने जब दोनों क्रांतिकारियों को अपना पक्ष रखने के लिए कहा तो दोनों के चेहरों पर एक तेजस्विता भरी मुस्कान फैल गई। इन्हें सशस्त्र क्रांति के वास्तविक उद्देश्य को देश और विदेश की जनता के समक्ष रखने का स्वर्णिम अवसर मिल गया। दोनों क्रांतिकारियों के विद्वत्तापूर्ण ऐतिहासिक वक्तव्य के प्रमुख अंश इस प्रकार हैं।
हम स्वीकार करते हैं कि – “हम ने ही असेंबली में बम फेंका है। परंतु बम फेंकने का हमारा उद्देश्य महान था और इतिहास में उसे सदा एक महत्वपूर्ण कार्य के रूप में याद किया जाएगा। हमें मनुष्य के प्रति प्रेम किसी से भी कम नहीं है और किसी व्यक्ति के विरुद्ध घृणा भाव तो दूर रहा। हम मनुष्य-जीवन को वास्तविक रूप में समझते हैं। हम उस पर प्रकार के घिनौने कलंक करने वाले नहीं हैं जैसा कि दीवान चमन लाल या लाहौर का ट्रिब्यून और कुछ अन्य लोग हमें बताते हैं। असेंबली द्वारा पारित किए गए दोनों प्रस्ताव नगण्य समझकर घृणा से पैरों तले कुचले गए हैं और वह भी कहां? यहां इस भारतीय पार्लियामेंट के भवन में — इंग्लैंड को अपने सुख स्वप्न से जगाने के लिए बम जरूरी है, इसीलिए हमने बम फेंके हैं। —- हमारा उद्देश्य यह था कि हम बहरों के कान खोल दें — बेपरवाहों को चुनौती दे दें। ये जो नई हलचलें देश में पैदा हुई हैं, यह उन आदर्शों द्वारा पैदा हुई हैं, जिनके द्वारा श्री गुरु गोविंद सिंह, छत्रपति शिवाजी और वाशिंगटन जैसे लोग प्रेरित हुए थे — बम ने बस उतना ही काम किया है जितने के लिए वह बनाए गए थे — स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि हमारी बातों की ओर ध्यान ना दिया गया तो एक भयंकर युद्ध होगा। सब बाधाएं उखाड़ कर फेंक दी जाएंगी और सर्वजन सत्ता की स्थापना होगी — इंकलाब जिंदाबाद।”
इस वक्तव्य के बाद कुछ दिन न्यायालयी प्रक्रिया चली। दोनों अभियुक्तों के वकील देशभक्त नेता आसफ अली थे। परंतु इस अनुभवी वकील द्वारा प्रस्तुत की गई ठोस दलीलों को अनसुना करके भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास दे दिया गया। यह एकतरफ़ा क्रूर न्यायालयी तमाशा यहीं समाप्त नहीं हुआ। लाहौर में अंग्रेज अफसर सांडर्स की हत्या किसने की? इस हादसे की योजना किसने की? इन प्रश्नों के उत्तर के लिए प्रशासन ने एड़ी चोटी का जोर लगा लिया तो भी कुछ हाथ नहीं लगा।
आखिर एक दिन पुलिस ने उस स्थान की पहचान कर ली जहां बम बनाने का कारखाना था और जहां पर असेंबली में फेंके गए दोनों बम बनाए गए थे। इन बमों के खोल बनाने वाले एक लोहार गुलाम रसूल ने उस गुप्त स्थान की जानकारी पुलिस तक पहुंचा दी। पुलिस ने इस मकान को घेर कर छापा मारा। इस कार्यवाही में तीन प्रमुख क्रांतिकारी सुखदेव, जय गोपाल और किशोरी लाल पकड़े गए। भारी संख्या में बनाए गए बम और बम बनाने का सामान भी पुलिस के हाथ में लग गया। उसी समय लाहौर में ही एक स्थान पर कुछ क्रांतिकारियों ने बम का एक और धमाका कर दिया। इस धमाके के बाद पुलिस की तलाशी अभियान में लगभग 25 क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए।
इन सभी क्रांतिकारियों को भीषण यातनाएं देकर पुलिस सांडर्स की हत्या के सब राज प्राप्त करना चाहती थी। दो क्रांतिकारी जय गोपाल और हंसराज वोहरा ने यातनाओं से घबराकर और प्रशासन द्वारा क्षमा कर देने के आश्वासन के बाद सरकारी गवाह बनना स्वीकार कर लिया। इन दोनों कायर और डरपोक गद्दारों ने सांडर्स हत्याकांड के वे सारे राज और योजना को न्यायालय में बक दिया। इन मुखबिरों ने भगत सिंह को सांडर्स का हत्यारा बताकर अपनी जान सुरक्षित कर ली।
जेल में प्रशासन के अनुचित और कठोर व्यवहार के विरुद्ध भगत सिंह और यतीन्द्र दास ने मरण व्रत (भूख हड़ताल) शुरू कर दिया। 62 दिन की निरंतर भूख हड़ताल के कारण क्रांतिकारी यतीन्द्र दास की जीवन लीला समाप्त हो गई। यह देश भक्त मां भारती के लिए बलिदान हो गया। भगत सिंह के द्वारा की जा रही भूख हड़ताल 63वें दिन में पहुंच गई। वायसराय द्वारा गठित की गई जांच कमेटी के आश्वासन पर भगत सिंह ने अन्न ग्रहण कर लिया। परंतु यह सरकारी वादा भी खोखला साबित होने पर क्रांतिकारियों ने पुनः भूख हड़ताल शुरू कर दी।
भगत सिंह और उनके साथियों ने अब न्यायालय का बायकाट कर दिया। इसके बाद सरकार ने बहुत सोची समझी चाल के अंतर्गत यह सारा मुकदमा एक ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया। सरकार ने एक गैर कानूनी और नीचता का खेल खेला। अभियुक्तों की गैर हाजिरी में और उनके वकील की अनुपस्थिति में भी मुकदमा चलता रहा। न्यायालय के नाम पर अंग्रेजों द्वारा किया जाने वाला यह घोर अन्याय था।
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