आत्मनिर्भर भारत अभियान देश की मजबूती की ओर एक कदम
अमित कुमार ठाकुर
भले ही कुछ लोग आत्मनिर्भर भारत अभियान के देश के संकल्प पर अविश्वास जताते हैं, लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता के आंदोलन के दौरान विदेशी उत्पादों के बहिष्कार के समय पीसी रे जैसे रसायनशास्त्र के अध्यापकों ने जब स्वदेशी उद्योग स्थापित करके सफलतापूर्वक उत्पादन प्रारंभ कर दिया था तो अंग्रेज भी चकित रह गए थे।
इतिहास अपने को दोहराता है। आज से 100 वर्ष पहले भी स्पेनिश फ्लू जैसी महामारी ने विश्व को आक्रांत किया हुआ था। तब भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत थोपा हुआ वैश्वीकरण का एक शोषणकारी मॉडल भारतीय अर्थव्यवस्था की जीवन शक्ति को चूस रहा था। उस समय गाँधीजी के कंठ से निकला असहयोग का नारा वास्तव में करोड़ों भारतीयों के हृदय से निकला था। तब भारत ब्रिटिश साम्राज्यवाद के आर्थिक शोषण का मुकाबला ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं को अपना कर ही कर सकता था।
गाँधीजी के आह्वान पर जब करोड़ों भारतीयों ने चर्खा अपना कर खादी पहनना प्रारंभ किया तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की कमर ही टूट गई थी। सरकारी रिकॉर्ड बताते हैं कि असहयोग आन्दोलन के दौरान ब्रिटेन से भारत को होने वाले निर्यातों में भारी गिरावट आई थी और मेनचेस्टर तथा लंकाशायर के उद्योगपति बौखला उठे थे। वहीं जब भारतीयों ने देशी उत्पादकों के उत्पादों को क्रय करना प्रारंभ किया तो भारतीय बुनकरों, दस्तकारों और अन्य उत्पादकों की आय बढ़ने से उनकी हालत अच्छी होने लगी थी। भारत की जनता 1905 में स्वदेशी आन्दोलन के दौरान भी यह प्रयोग कर चुकी थी। लाल बाल पाल के नेतृत्व में चले उस आन्दोलन ने भी ब्रिटिश आर्थिक हितों पर गहरी चोट की थी ।
भले ही कुछ लोग आत्मनिर्भर भारत अभियान के देश के संकल्प पर अविश्वास जताते हैं, लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि स्वतंत्रता के आंदोलन के दौरान विदेशी उत्पादों के बहिष्कार के समय पीसी रे जैसे रसायनशास्त्र के अध्यापकों ने जब स्वदेशी उद्योग स्थापित करके सफलतापूर्वक उत्पादन प्रारंभ कर दिया था तो अंग्रेज भी चकित रह गए थे।
आज भी परिस्थितियाँ वैसी ही हैं। आज वैश्वीकरण के जिस मॉडल के अंतर्गत रची गई विश्व अर्थव्यवस्था में भारत कार्य कर रहा है वह ब्रेटन वूडस समझौते पर आधारित है। जिसे अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश अपने हितों के संवर्धन के लिए संचालित करते हैं। ऐसी आर्थिक प्रणाली में भारत जैसे विकासशील देश निश्चित रूप से घाटे में रहते हैं। बहुराष्ट्रीय निगम इन विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर कब्जा जमा लेते हैं और उनका मनमाना शोषण करते हैं। स्वाभाविक रूप से विकासशील देशों के उत्पादकों का व्यापार और श्रमिकों का रोजगार प्रतिकूल रूप से प्रभावित होता है। भारत में भी वर्तमान में ऐसा ही हो रहा है। चीनी वायरस कोरोना के कारण स्थिति और अधिक चिन्ताजनक हो गई है ।
स्वाभाविक है कि इन विषम परिस्थितियों में भारत की आवाज हमारा पुन: मार्गदर्शन करे। 1905 में यह लाल-बाल-पाल के स्वर के रूप में गूँजी थी तो 1920 में यह गाँधीजी की सम्मोहनकारी वाणी के रूप में सुनाई पड़ी और आज 2020 में यह प्रधानमंत्री मोदी के लाल किले से राष्ट्र के नाम सम्बोधन में अनुप्राणित हो रही है । किसी के भी कंठ से निकले, यह भारत की आवाज है जो भारत माँ की कोटि कोटि सन्तानों के हृदयों में उमड़ती भावनाओं की अनुगूँज है। जब प्रधानमंत्री आत्मनिर्भर भारत, मेक इन इंडिया, वोकल फ़ॉर लोकल, मेक फ़ॉर वर्ल्ड, स्टार्ट अप का आह्वान करते हैं तो उनके कंठ से निकलने वाली यह ध्वनि वास्तव में भारत की वही आवाज है जो 1905 में लाल-बाल- पाल और 1920 में गाँधीजी के मुख से निकली थी।
1905 और 1920 में यह आवाज केवल आयात प्रतिस्थापन के लिए थी, आज यह आह्वान भारत को निर्यातोन्मुखी अर्थव्यवस्था बनाने के लिए है। हमें एक बात के प्रति सचेत रहने की भी आवश्यकता है। वर्ष 1905 और 1920 में भारतीयों ने स्वदेशी का प्रारंभ बड़े जोर शोर से किया किन्तु इस जोश को लम्बे समय तक बनाए नही रख पाए। इस बार हमें अपनी कमर पूरी तरह से कस लेनी है और अपने लक्ष्य को हासिल किए बिना विश्राम नहीं करना है। इस यात्रा में हमें विवेकानंद का यह आदर्श वाक्य सदैव याद रखना है:
जागो, उठो और तब तक न रुको,
जब तक तुम्हारा लक्ष्य हासिल न हो जाये।
अतिसुंदर