आदि गुरु शंकराचार्य, जिन्होंने भारतवर्ष को सांस्कृतिक एकता के सूत्र में पिरोया
शुभांगी उपाध्याय
” ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः”
ब्रह्म ही सत्य है, जगत मिथ्या और जीव ही ब्रह्म है, उससे भिन्न नहीं। वेदांत की इस वाणी को सिद्ध करने वाले महान मनीषी परमपूज्य आदि गुरु शंकराचार्य के नाम से विश्व विख्यात हैं। इस महान योगी की जन्मभूमि भारत का शाब्दिक अर्थ है :
भा – तेज (ज्ञान का तेज), रत – उसमें जो रत है, वही भारत है।
स्वयं को विश्वगुरु के रूप में प्रतिष्ठित करने वाला भारतवर्ष उस दौर से गुज़र रहा था जब ज्ञान की इस भूमि पर अज्ञानता रूपी अंधकार ने घेर रखा था। समूचे ब्रह्मांड में इस राष्ट्र की पहचान एक आध्यात्मिक राष्ट्र के रूप में है। किन्तु तत्कालीन समाज में धर्म और आध्यात्म के नाम पर अराजकता फैल रही थी। जिस प्रकार माँ गंगा के पवित्र प्रवाह में कहीं – कहीं मार्ग में नाले जैसे भी मिल जाते हैं वैसे पीढ़ियों से परंपराओं का पालन करते हुए भी समाज में विकृतियां जन्म ले लेती हैं।चार्वाक, लोकायत, कापालिक, शाक्त, सांख्य, बौद्ध, माध्यमिक तथा अन्य बहुत से सम्प्रदाय और शाखाएं बन गई थी। इस प्रकार के सम्प्रदायों की संख्या लगभग 72 हो गई थी। सब आपस में एक दूसरे के विरोधी थे। कहीं कोई शान्ति नहीं। अनाचार, अन्धविश्वास, द्वन्द और संघर्ष का बोलबाला था। लगता था हर तीसरे व्यक्ति का अपना दर्शन, अपना सिद्धान्त और अपना अनुगामी दल है। आध्यात्मिक क्षेत्र में हुए ऐसे पतन के समय आचार्य शंकर का अवतरण हुआ। आध्यात्म की नींव दर्शन शास्त्र है। आचार्य शंकर ने अद्वैत सिद्धांत को स्थापित किया, अपने अकाट्य प्रमाण, धारदार तर्क से नास्तिकों को परास्त किया। भाष्य लिखकर समाज को ज्ञान के भंडार से भर दिया।
वर्तमान के दक्षिण भारत के केरल राज्य में अवस्थित निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के ‘कालडी़ ग्राम’ में सन् 788 ईसा पूर्व श्री शिव गुरु तथा भगवती आर्यम्बा के घर इस महान बालक का जन्म हुआ। यद्यपि भगवान कृष्ण इनके कुल देवता थे तथापि इनके माता – पिता परम शिव भक्त थे। धार्मिक मान्यतानुसार आचार्य शंकर को भगवान शिव का ही अवतार माना जाता है। केवल 3 वर्ष की अल्पायु में ही परम प्रतापी बालक ने अपनी मातृभाषा मलयालम के अनेकों ग्रंथ कंठस्थ कर लिए थे। दुर्भाग्य से इतनी कम आयु में ही शंकर के सर से पिता का साया उठ गया। माता ने कर्त्तव्यपालन करते हुए पुत्र को ज्ञान अर्जित करने गुरुकुल भेजा। कुशाग्र बुद्धि वाले शंकर मात्र 8 वर्ष की आयु में चारों वेदों के ज्ञाता हो गए।
भगवती आर्यम्बा घर से दूर गाँव में बहने वाली पूर्णा नदी में स्नान हेतु नित्य जाया करती थी। एक दिन मार्ग में उन्हें चोट लगी और वे अचेत हो गयी। माँ की ऐसी अवस्था देखकर बालक शंकर ने पूरी निष्ठा और भक्ति से श्री कृष्ण की आराधना की और उनकी कृपा से नदी ने अपना मार्ग बदल लिया। आज भी केरल में हमें आचार्य शंकर के घर के पास ही बहती पूर्णा नदी और श्रीकृष्ण के भव्य मंदिर के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त है।
आचार्य शंकर का जन्म ही मानव कल्याण और सनातन धर्म की रक्षा के लिए हुआ था। उन्होंने गृह त्याग कर सन्यासी बनने का संकल्प ले लिया था। किंतु माता की आज्ञा के बिना यह कार्य संभव नहीं था। पूर्णा नदी से जुड़ी एक और घटना बालक शंकर को सन्यासी बना देती है। अपनी माता के साथ वे भी नित्य नदी स्नान को जाते हैं और तभी एक दिन उनका पैर फिसल जाता है। एक मगरमच्छ उनके पैरों को दबोच लेता है और वे पीड़ा से कराहते हुए अपनी माता से कहते हैं कि “मृत्यु से पूर्व मुझे सन्यासी बनने की प्रबल इच्छा थी, माँ कृपा करके मुझे आज्ञा दे दो”। रोती – बिलखती माता उन्हें जैसे ही अनुमति प्रदान करती हैं, वैसे ही मगरमच्छ उन्हें छोड़ देता है। गृह त्याग करने से पूर्व माता उनसे वचन लेती हैं कि मृत्यु पश्चात वे ही उनका अंतिम संस्कार करेंगे (शास्त्रों में सन्यासी के लिए यह वर्जित माना जाता है)।
सद्गुरु की खोज में निकले शंकराचार्य मध्य प्रदेश के नर्मदा तट पर स्थित परमपूज्य स्वामी श्री गोविंदपाद जी महाराज की शरण में जा पहुंचते हैं। उन्हें साक्षात महर्षि पतंजलि का अवतार माना जाता है, जिन्होंने विश्व को योग सूत्र रूपी अमूल्य निधि प्रदान किया था। गुरु के सान्निध्य में आचार्य शंकर और अधिक तेजस्वी हो गए। गुरु कृपा से ही उन्हें अद्वैत वेदांत का ज्ञान प्राप्त हुआ, योग में भी निपुण हो गए। उन्होंने अनेकों ग्रंथों पर भाष्य लिखे, किताबें लिखी।
तत्पश्चात गुरु की आज्ञा से उन्होंने ज्ञान की नगरी काशी की ओर प्रस्थान किया। भारतवर्ष में सदा से ही वैचारिक स्वतंत्रता रही है। जगह – जगह शास्त्रार्थ हुआ करते थे, हर तरफ ज्ञान की गंगा बहती थी। अन्यान्य मतावलंबियों, कट्टरपंथियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर किशोर सन्यासी ने धीरे-धीरे प्रसिद्धि प्राप्त कर ली। बड़े-बड़े विद्वानों से शास्त्रार्थ किए और उन सबको अपने दृष्टिकोण की ओर मोड़ा। उन्होंने भास्कर भट्ट, दण्डी, मयूरा हर्ष, अभिनव गुप्ता, मुरारी मिश्रा, उदयनाचार्य, धर्मगुप्त, कुमारिल, प्रभाकर आदि मूर्धन्य विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। सभी ने उन्हें अपना गुरु स्वीकारा।
काशी प्रवास शंकराचार्य जी के लिए वरदान सिद्ध हुआ। मणिकर्णिका घाट पर स्नान हेतु जाते हुए उनके मार्ग में एक चांडाल चार कुत्तों के साथ आ खड़ा हुआ। शिष्यों ने उसे मार्ग से हटने का आदेश दिया तिस पर वह चांडाल पूछ बैठा – “गंगा के तट पर बैठकर आप बड़ा उपदेश देते हैं कि सभी में वही एक तत्व विराजमान है, तो स्पर्श हो जाने से आप कैसे अशुद्ध हो सकते हैं? स्पर्श से आत्मा अशुद्ध हो जाएगी या देह? आप किसके स्पर्श से बचना चाहते हैं? “आचार्य शंकर को यह ज्ञात हो जाता है कि यह गूढ़ ज्ञान की बात करने वाला कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं हो सकता और वे तुरंत नतमस्तक होकर उस चांडाल को गुरु मान लेते हैं। मान्यता है कि चांडाल के रूप में स्वयं काशी विश्वनाथ जी ने उन्हें दर्शन दिया था।
भगवान विश्वनाथ ने इन्हें आशीर्वाद दिया और आज्ञा दी कि वेदान्त शास्त्रों पर भाष्य की रचना कर सनातन धर्म की रक्षा करो। प्रभु की इस आज्ञा को शिरोधार्य कर शंकर ने “प्रस्थानत्रयी” भाष्यों की रचना हेतु हिमालय की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में हरिद्वार प्रवास भी हुआ। वहाँ उन्होंने देखा कि मंदिर तो है किंतु वहाँ मूर्ति नहीं है। आश्चर्यचकित होकर उन्होंने स्थानिक निवासियों से पूछा तो पता चला कि चीन के डकैतों के भय से श्रीहरि विष्णु जी की मूर्ति को गंगा में छुपाया गया था, जो अब नहीं मिल रही। आचार्य शंकर ने पूरी आस्था से गंगा में डुबकी लगाई और स्वयं मूर्ति उनके सामने प्रकट हो गयी, जिसे मंदिर में प्रस्थापित किया गया।
श्री बद्रीनाथ में भी ऐसा ही डर था। चीन के दस्युओं के आतंक से नारद कुंड जो कि अलकनंदा नदी से जा मिलता है, में मूर्ति छुपाई गयी थी। एक बार पुनः शंकराचार्य जी के प्रयास से प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा मंदिर में की गई। उन्होंने स्वयं मंदिरों की पूजा – पद्धति को लिखित स्वरूप प्रदान किया। नए नियम बनाये, जिनका आज भी पूरी निष्ठा से पालन किया जाता है।
आचार्य ने ब्रह्मसूत्र, गीता और उपनिषदों की व्याख्याएं लिखी। अनेक स्त्रोतों की रचना की जिनमें शिवभुजयं, शिवानन्द लहरी, शिवपादादिके शान्तस्तोत्र, वेदसार शिवस्तोत्र, शिवपराधक्षमापनस्तोत्र, दक्षिणामूर्ति अष्टक, मृत्युंजयमानसिकपूजा, शिव पंचाक्षरस्तोत्र, द्वादशलिंगस्तोत्र, दशशलोकी स्तुति आदि उल्लेखनीय हैं। उन्होंने विष्णु सहस्रनाम पर भी भाष्य लिखा, जो अपने आप में अलौकिक है।
महिष्मति (वर्तमान बिहार) के एक प्रकाण्ड पंडित मण्डन मिश्र कर्म मीमांसा के विद्वान थे और सन्यासियों के प्रति उनके मन में कोई आदर नहीं था। उनके यहां का तोता भी संस्कृत श्लोक बोलता था। आचार्य शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी। इसमें निर्णायक की भूमिका का निर्वहन प्रकाण्ड विदुषी उदया भारती (मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी) ने किया। निश्चित हुआ कि यदि शंकर हार गए तो वे गृहस्थ हो जाएंगे और यदि मण्डन मिश्र हार गए तो वे सन्यासी हो जाएंगे। शास्त्रार्थ 17 दिन तक चला। मण्डन मिश्र की पत्नी ने निर्णायक की भूमिका में दोनों विद्वानों के गले में एक-एक माला डाल दी और कहा, ‘‘जिस किसी की माला के फूल पहले मुरझाने लगें तो वह स्वयं को पराजित मान ले।’’ सत्रहवें दिन मण्डन मिश्र की माला के फूल मुरझाने लगे। उन्होंने पराजय स्वीकार कर ली।
लेकिन, ‘‘नहीं – अभी नहीं।’’ उदया भारती ने यह पराजय स्वीकार नहीं की। उन्होंने शंकर से कहा, ‘‘मैं मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी हूँ। आपने अभी मण्डन के अर्धभाग को पराजित किया है, अभी आपको मुझसे शास्त्रार्थ करना है।’’ शंकर अनिच्छा से भारती से शास्त्रार्थ के लिए सहमत हुये। इस बार फिर शास्त्रार्थ की प्रक्रिया 17 दिन तक चली। अन्त में जब भारती को लगा कि शंकर को पराजित करना कठिन है, तब उन्होंने कामशास्त्र का सहारा लिया। उन्होंने शंकर से कामशास्त्र सम्बंधी प्रश्न पूछने शुरू किये। अन्ततः शंकर ने एक महीने का समय मांगा क्योंकि वे इस ज्ञान से अनभिज्ञ थे।
आचार्य शंकर काशी गए। वहाँ योग विद्या से अपने शरीर को छोड़ा। अपने शिष्यों से अपने शरीर की रक्षा करने को कहा और स्वयं एक सद्यमृत राजा अमरूक के शरीर में प्रवेश कर गए। राजा जीवित हो गया। यद्यपि राजा के रूप में जीवित व्यक्ति के कर्म, गुण, व्यवहार वास्तविक राजा से भिन्न थे। फिर भी वे राजा के रूप में राजगृह में रहे। गृहस्थ जीवन, पारिवारिक व्यवहार और दाम्पत्य रहस्यों को समझा। वे एक महीने बाद पुनः अपने चोले में आ गए और लौटकर उन्होंने मण्डन मिश्र की पत्नी से फिर शास्त्रार्थ करने के लिए कहा। अब वे उनके कामशास्त्र सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देने के लिए तैयार हो गए, मण्डन मिश्र और भारती ने पराजय मान कर शंकर को नमन किया। शंकर ने मण्डन मिश्र का नामकरण सुरेश्वराचार्य किया और बाद में उन्हें श्रृंगेरी मठ का कार्यभार सौंप दिया।
शंकराचार्य को हिन्दू, बौद्ध तथा जैन मत के लगभग 80 प्रधान सम्प्रदायों के साथ शास्त्रार्थ में प्रवृत्त होना पड़ा था। हिन्दू धर्मावलम्बी लोग यथार्थ वैदिक धर्म से विच्युत होकर अनेक संकीर्ण मतवादों में विभक्त हो गए थे। आचार्य शंकर ने वेद की प्रामाणिकता की प्रतिष्ठा की और हिन्दू धर्म के ‘‘सभी मतवादों का संस्कार कर जनसाधारण को वेदानुगामी बनाया। वेद का प्रचार उनका अन्यत्र प्रधान अवदान है। शंकर को वेदान्त के अद्वैतवाद सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने अनेक शास्त्रों का भाष्य लिखा। इनके अद्वैतवाद के अनुसार संसार का अन्तिम सत्य ‘दो नहीं’ एक होता है। इसी का नाम ब्रह्म है। ‘एकमेव हि परमार्थसत्यं ब्रह्म।’ अर्थात् ब्रह्म ही सर्वोच्च सत्य है। यही एक सत्य है शेष सभी असत्य है। शंकर ने हिन्दुत्व को पौराणिक धर्म से मोड़कर उपनिषदों की ओर उन्मुख कर दिया।
इनका एक अत्यंत महत्वपूर्ण परन्तु सबसे छोटा ग्रंथ है ‘भज गोविन्दम्’। इसमें वेदान्त के मूल आधार की शिक्षा अत्यंत सरल शब्दों में दी गई है। इसके श्लोकों की लय अत्यधिक मधुर है और इन्हें सरलता से याद किया जा सकता है। इसमें मात्र 31 श्लोक हैं। इसकी गणना भक्तिगीतों में की जाती है। इनमें पहले बारह श्लोक ‘‘द्वादष मंजरिका स्तोत्रम’’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका अर्थ है बारह श्लोक रूपी फूलों का गुच्छा। चौदह श्लोक ‘‘चतुर्दश मंजरिका स्तोत्रम्’ के नाम से विख्यात हैं। आचार्य के प्रत्येक शिष्य ने एक-एक श्लोक को गुरु प्रेरणा के रूप में कहा। इसके बाद आचार्य शंकर ने पुनः चार श्लोकों के माध्यम से सभी सच्चे साधकों को आशीर्वाद दिया। पहला श्लोक टेक रूप में है –
“भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम भज मूढ़मते।
सम्प्राप्ते सान्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृकरणें।”
सभी ग्रंथों की रचना के पीछे उनका एक ही भाव था कि मनुष्य को ब्रह्म का सान्निध्य प्राप्त करने का मार्ग स्पष्ट दिखायी देना चाहिए। अद्वैत को प्रमुखता देते हुए भी शंकर ने शिव, विष्णु, शक्ति और सूर्य पर स्तोत्र लिखे। इनका आग्रह समाज में समन्वय लाने का था। इन्हें आध्यात्मिक सुधारक भी माना जाता है क्योंकि शाक्त मन्दिरों में बलि देने की प्रथा का इन्होंने विरोध किया।
बदरिकाश्रम, द्वारका, जगन्नाथपुरी और श्रृंगेरी देश की चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना का कार्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। इस तरह से देश की भौगोलिक एकता को प्रत्यक्ष करने का गम्भीर कार्य शंकराचार्य ही कर सकते थे। इन मठों के अध्यक्ष आचार्य श्री शंकराचार्य के नाम से ही जाने जाते हैं। उन्होंने देश के साधु – सन्तों को एकत्र कर दस प्रमुख समूहों में एकत्रित किया। प्रत्येक मठ को इन्होंने एक-एक वेद का उत्तरदायित्व सौंपा – बदरिकाश्रम के ज्योतिर्मठ को अथर्ववेद दिया, शृंगेरी के शारदापीठ को यजुर्वेद, जगन्नाथपुरी के गोवर्धनमठ को ऋग्वेद और द्वारका के कलिका मठ को सामवेद सौंपा। ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य के मुताबिक, कांची कामकोटि मठ की स्थापना भी आदिगुरू शंकराचार्य ने ही की थी।
स्वामी शंकराचार्य जी का जन्म भले ही दक्षिण भारत में हुआ था किंतु उनका कार्यक्षेत्र समस्त भारतवर्ष रहा है। उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण कर वेद का प्रचार – प्रसार किया और दिग्विजयी हुए। आज यह पूरा विश्व वेदांत की ओर उन्मुख हो रहा है, इसका पूरा श्रेय जगद्गुरु शंकराचार्य को ही जाता है। उन्होंने मठों की स्थापना कर समूचे राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरो दिया, समाज में समन्वय स्थापित किया। जीवन भर वैदिक धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने जो प्रयत्न किए, उसे भविष्य में क्रियाशील रखने का प्रबन्ध करके मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में महाप्रस्थान करने का निश्चय किया। शिष्यों के साथ केदारनाथ पहुंचे और वहीं उन्होंने निर्विकल्प समाधि लगा ली। ऐसे अपूर्व विचारक, ब्रह्मज्योति से देदीप्यमान, दर्शनाचार्य, दैवीय प्रतिभा युक्त, युगद्रष्टा विरले ही पैदा होते हैं।
सहायक ग्रन्थ :
संस्कृति के चार अध्याय : रामधारी सिंह ‘दिनकर’, लोकभारती प्रकाशन
(लेखिका विवेकानंद केंद्र के पश्चिम बंग प्रान्त में विभाग युवा प्रमुख हैं और कलकत्ता विश्वविद्यालय की शोधार्थी भी।)