आरक्षण और विसंगतियां

आरक्षण और विसंगतियां

अवधेश कुमार

आरक्षण और विसंगतियांआरक्षण और विसंगतियां

राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने कुछ राज्यों में पिछड़ा वर्ग आरक्षण को लेकर जिन विसंगतियों की जानकारियां दी हैं, वे हैरत में तो डालती ही हैं, चिंता भी पैदा करती हैं। इनमें विशेष रूप से चार राज्यों- पश्चिम बंगाल, बिहार, राजस्थान और पंजाब की चर्चा है। अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार, इन चारों राज्यों में पिछड़ा वर्ग के लोगों को सरकारी अनदेखी, नियमों और नीतियों के कारण नौकरियों तथा शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के लाभ से वंचित होना पड़ रहा है। हैरत की बात है कि सरकारों के पास इसकी सूचना है, किंतु वो इस दिशा में कदम उठाने को तैयार नहीं हैं। वास्तव में पिछड़ा वर्ग आयोग ने जब उनके सामने ये बातें रखीं तो राजनीतिक बयानबाजी की जाने लगी है। कहीं सरकारी नियम तो कहीं अन्य ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से आरक्षण के पात्र वंचित हो रहे हैं। कुछ राज्यों में कई जिलों में पिछले अनेक वर्षों से किसी को आरक्षण मिला ही नहीं है। पिछड़ा वर्ग आयोग अगर इनकी ओर ध्यान नहीं देता तो इन राज्यों के रवैये को देखते हुए यह मानने का कोई कारण नहीं है कि हमारे आपके समक्ष सच्चाई आती।

पहले बिहार की ओर आते हैं। बिहार में क्रीमी लेयर से नीचे आने के लिए आर्थिक प्रमाण पत्र में माता- पिता के साथ भाई बहनों की आय का भी लेखा-जोखा लिखा जाता है। यही नहीं उसमें कृषि से होने वाली आय भी शामिल है। परिणामतः अनेक लोग जिन्हें आरक्षण मिलना चाहिए वो वंचित रह जाते हैं।‌ नीतीश सरकार में आरक्षण प्राप्तकर्ताओं की सूची या जाति प्रमाण पत्र को गहराई से देखेंगे तो वहां आज भी कुर्मी जाति को कोष्ठक में छोटा नागपुर लिखा जाता है। झारखंड बिहार से अलग हो चुका है और छोटा नागपुर उसका भाग है। स्वयं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुर्मी जाति से आते हैं। यह जाति उनके साथ राजनीति में खड़ी रहती है। क्या वे मानते हैं कि बिहार के कुर्मियों के साथ कोष्ठक में छोटा नागपुर लिखा जाना चाहिए था। अगर इसकी वैधानिक समीक्षा हो तो इस प्रमाण पत्र पर मिले सारे आरक्षण अवैध करार दिये जा सकते हैं। हैरत की बात है कि सब कुछ जानते हुए इस समाज के पढ़े-लिखे लोग भी ऐसे सर्टिफिकेट प्राप्त करते रहे हैं। वैसे भी कुर्मी जाति के बारे में यह कहना ऐतिहासिक रूप से गलत है कि उनका मूल स्थान छोटा नागपुर होगा। कभी अंग्रेजों ने उन्हें इस प्रकार से चिन्हित किया और दुर्भाग्य देखिए आज तक यही चल रहा है।

प्रश्न है कि नीतीश सरकार ने इस प्रकार क्रीमी लेयर के संदर्भ में आय प्रमाण पत्र का नियम क्यों बनाया हुआ है? बिहार में नीतीश कुमार एवं लालू प्रसाद यादव दोनों मंडलवादी राजनीति के कारण शीर्ष पर पहुंचे। यद्यपि वे आपातकाल के विरुद्ध जयप्रकाश नारायण आंदोलन की उपज हैं, पर मंडल आयोग की सिफारिश पर हुई राजनीति ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है। पहले काका कालेलकर और फिर मंडल आयोग पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण देने की अनुशंसा के लिए गठित हुआ था। दोनों नेता आज भी स्वयं को पिछड़ी जातियों का मसीहा घोषित करते हैं और उनकी राजनीतिक शक्ति का मूलाधार यही है। ऐसे लोग अगर अपने सरकारी नियमों से इन्हीं जातियों को आरक्षण से वंचित कर रहे हैं तो इसे क्या कहा जाए? पिछड़ी जाति में आने वाले बिहार के लोगों को इस सच्चाई को समझना चाहिए तथा इसके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए।

पश्चिम बंगाल की स्थिति अधिक चिंताजनक है। यहां लगभग 179 जातियों को पिछड़ा वर्ग में शामिल किया गया है। इनमें 118 जातियां मुस्लिम समुदाय से हैं। यानी हिंदुओं की केवल 61 जातियां। मुसलमानों में पिछड़े वर्ग से आने वाले पात्रों को आरक्षण की परिधि में रखना अस्वाभाविक नहीं है। पर यह तो विचार करना पड़ेगा कि आखिर हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों में पिछड़ी जातियां क्यों हैं? इस संदर्भ में जब आयोग ने पूछा तो बताया गया कि अनेक पिछड़ी जातियां हिंदू से इस्लाम में परिवर्तित हो गईं। राज्य सरकार से जब इसका आंकड़ा मांगा गया तो उत्तर आया कि कितनी जातियां कितनी संख्या में इस्लाम में परिवर्तित हुईं इसका आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इसके अर्थ क्या हैं? आप देखेंगे कि पश्चिम बंगाल में 1971 के बाद मुसलमानों की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है। यहॉं हिंदू समुदाय की जनसंख्या का प्रतिशत गिरा है और वहीं लगातार मुस्लिम समुदाय का प्रतिशत बढ़ता गया है। 1981 में बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या 21.5 प्रतिशत थी जबकि 2011 में यह 27.05% हो गई। जनसंख्या के अनुपात में यह असामान्य वृद्धि है। इस समय अनुमान यह है कि बंगाल में मुसलमानों की जनसंख्या लगभग 30 प्रतिशत है। इसका ठीक प्रकार से अध्ययन होना चाहिए कि क्या इसके पीछे आरक्षण की भी भूमिका है? राजस्थान में तो सात जिलों में पिछले अनेक वर्षों से किसी को भी अन्य पिछड़ा वर्ग का प्रमाण पत्र ही नहीं मिला है। इन जिलों में काफी संख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग रहते हैं। राजस्थान में भी लगभग बिहार की तरह ही आय प्रमाण पत्र का आधार तय किया गया है और इस कारण भारी संख्या में अन्य पिछड़ा वर्ग में आने वाले पात्र आरक्षण से वंचित हो रहे हैं।

हमारे देश की समस्या यह है कि जैसे ही किसी विषय और मुद्दे में मुसलमानों की बात आती है हम चर्चा करने से बचते हैं। थोड़ी भी गहराई से इन तीनों राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण की समीक्षा करेंगे तो साफ दिख जाएगा कि इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण का लाभ मुस्लिम समुदाय को अधिक मिल रहा है। स्पष्ट है कि इसके पीछे वोट बैंक की राजनीति है। 2018 में नरेंद्र मोदी सरकार ने जब पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया, तो राज्यों को यह छूट मिली कि वे राज्य स्तर पर पिछड़े वर्ग की सूची में जातियों को शामिल कर सकते हैं। इन तीनों सहित कई राज्यों ने भारी संख्या में मुस्लिम समुदाय को इनमें शामिल किया। वैसे तो यह आसानी से गले नहीं उतरता कि जब इस्लाम में जाति की व्यवस्था है ही नहीं, तो फिर मुसलमानों को किसी जाति का किस आधार पर माना जाए? किंतु इस प्रश्न को थोड़ी देर के लिए परे रख दें, तब भी यह प्रश्न उठता है कि आखिर इतनी संख्या में मुस्लिम जनसंख्या को पिछड़े वर्ग में शामिल करने का कारण क्या हो सकता है? ध्यान रखिए, पश्चिम बंगाल में 71 जातियों को ममता सरकार ने पिछड़ा वर्ग में शामिल किया है, जो मुस्लिम समुदाय की हैं। इसके पूर्व वहां 108 जातियां पिछड़े वर्ग में शामिल थीं, जिनमें 53 मुस्लिम तथा 55 हिंदू समुदाय की थीं। यह एक उदाहरण मात्र है कि वोट बैंक की राजनीति ने किस तरह आरक्षण व्यवस्था का घातक दुरुपयोग किया है। राजस्थान में भी हिंदू समुदाय के पिछड़े वर्ग से ज्यादा लाभ पिछले कुछ सालों में मुस्लिम समुदाय का पिछड़ा वर्ग प्राप्त कर रहा है। यह सब सरकारी नीतियों के कारण ही हुआ है। क्या यह ऐसा मुद्दा है जिसे चुपचाप छोड़ दिया जाए? किसी भी समुदाय के पिछड़ों के आरक्षण की व्यवस्था है तो उन्हें अवश्य मिले, किंतु किसी एक समुदाय की कीमत पर, वह भी इसलिए कि हमें वोट मिले। दूसरे समुदाय के लोगों को इस तरह आरक्षण का लाभ दिए जाने का अनैतिक आधार बनाए रखना क्या अवसरों की समानता का पर्याय हो सकता है? अगर आरक्षण का आधार संविधान की धारा 16 और 16 ए है, तो यह नीति उसके अनुकूल नहीं मानी जा सकती? पश्चिम बंगाल के हिंदू संगठनों तथा अनेक समाजशास्त्रियों ने समय-समय पर यह प्रश्न उठाया कि वहां सरकारी लाभ के लालच में भी रिलीजियस कन्वर्जन हो रहा है। बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या को देखते हुए यह न मानने का कोई कारण नहीं है कि वहां आरक्षण भी रिलीजियस कन्वर्जन का एक कारक बना होगा। निस्संदेह, यह भयावह स्थिति है। कम से कम आरक्षण की कल्पना करने वाले हमारे पूर्वजों ने इस स्थिति की कल्पना नहीं की होगी कि वोट के लिए राजनीतिक दल इस तरह इसका दुरुपयोग करेंगे। समय आ गया है कि वस्तुपरक अध्ययन कर इनको दुरुस्त करने के कदम उठाए जाएं। हालांकि जब तक आरक्षण के लाभ से वंचित जातियां उसके विरुद्ध खड़ी नहीं होंगी, सरकारों को विवश नहीं करेंगी ऐसा होना असंभव है।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *