इजरायल पर आतंकी हमला— 9/11 और 26/11 से कम नहीं

इजरायल पर आतंकी हमला— 9/11 और 26/11 से कम नहीं

बलबीर पुंज

इजरायल पर आतंकी हमला— 9/11 और 26/11 से कम नहींइजरायल पर आतंकी हमला— 9/11 और 26/11 से कम नहीं

भारतीय सड़कों पर सुरक्षा की दृष्टि से एक पंक्ति अक्सर देखने और सुनने को मिलती है— सावधानी हटी, दुर्घटना घटी। यह चेतावनी 7 अक्टूबर को विश्व के एकमात्र घोषित यहूदी राष्ट्र इजराइल पर फिलीस्तीनी इस्लामी आतंकवादी संगठन हमास द्वारा किए गए अप्रत्याशित हमले पर चरितार्थ होती है। यूं तो इस्लामी आतंकवादियों और इजरायल के शत्रुओं की त्वरित पहचान करने में इजरायली खुफिया एजेंसी ‘मोसाद’ विख्यात है। किंतु इस बार के हमले ने ‘मोसाद’ की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। यह ठीक है कि इजरायल अपनी बेहतर तकनीक और मारक सैन्य शक्ति के बल पर हमास को संभवत: निर्णायक रूप से कुचल देगा, परंतु इस हमले ने जो घाव इजरायल को 1200 निरपराधों (कई महिला-बच्चों सहित) की मौत, 2,700 घायल और 130 लोगों को बंधक बनाकर दिया है, उससे रक्त शायद कई दशकों तक रिसता रहेगा।

एक समय था, जब समस्त मुस्लिम देश मजहबी कारणों से इजरायल के धुर-विरोधी थे। वर्ष 1948-49, 1956, 1967, 1973, 1982 और 2006 में विभिन्न मुस्लिम देशों— अरब, मिस्र, जॉर्डन, इराक, सीरिया, लेबनान ने इस यहूदी देश के साथ सैन्य संघर्ष किया है। 1987-93 और 2000-05 के अतिरिक्त हर एक अंतराल पर इजरायल, फिलिस्तीनी विद्रोह को भी झेल रहा है। तब जिहादियों को अरब देशों आदि इस्लामी देशों का प्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त रहता था। परंतु इस बार स्थिति अलग है।

जहां ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, कतर सहित कुछ इस्लामी देश फिलिस्तीनी आतंकियों का समर्थन कर रहे हैं, वहीं कई अरब-मुस्लिम देशों के रुख में तुलनात्मक रूप से नरमी दिख रही है। हमास इस्लाम के जिस मध्यकालीन स्वरूप से प्रेरणा पाकर यहूदियों सहित अन्य ‘काफिरों’ का नामोनिशान मिटाना चाहता है— उसकी वर्तमान वैश्विक अनुकूलता, उदारवाद और आधुनिकता में स्वीकार्यता नहीं है। इस्लामी आस्था के केंद्रबिंदु सऊदी अरब में शाही परिवार, विशेषकर मोहम्मद बिन सलमान द्वारा किए गए सामाजिक सुधार— इसका प्रमाण हैं। इसी परिवर्तन को आत्मसात करते हुए सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने बीते वर्षों में अमेरिका और पश्चिमी देशों की मध्यस्थता से इजरायल के साथ शांति समझौता भी कर लिया।

इस पृष्ठभूमि में वैश्विक इस्लामी समाज अर्थात्— ‘उम्माह’ का एक वर्ग अब भी मजहब के नाम पर इजरायल-यहूदियों के प्रति घृणाभाव और हमास के लिए सहानुभूति को नहीं त्याग पा रहा है। कई गैर-इस्लामी देशों के साथ भारत में भी मुस्लिम समाज का एक बड़ा हिस्सा और उन्हें केवल अपना वोटबैंक मानने वाला विकृत राजनीतिक कुनबा इस मानसिकता से ग्रसित है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में छात्रों द्वारा हमास-फिलीस्तीन के समर्थन में मार्च निकालते हुए भड़काऊ नारे लगाना, दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और जामिया मिलिया इस्लामिया में छात्र ईकाइयों द्वारा फिलीस्तीन का समर्थन करना, राजस्थान में युवा कांग्रेस के प्रदेश सचिव मोहम्मद शान द्वारा इजरायल पर हमला करने वाले जिहादियों को ‘सलाम’ करना और कांग्रेस राष्ट्रीय कार्यसमिति द्वारा इजरायल पर हुए भीषण आतंकी हमले की निंदा किए बिना फिलीस्तीन अधिकारों के संरक्षण का राग अलापना— इसका प्रमाण है।

इजरायल में जिस तरह का दानवी कृत्य हमास के जिहादियों ने किया है, जिसमें उन्होंने काफर अजा नामक एक इजराइली गांव में 2 से 4 वर्षीय 40 मासूमों की गला रेतकर हत्या तक कर दी— उसके समर्थन में भारत में वाम-जिहादी कुनबे द्वारा नैरेटिव बनाया जा रहा है कि हमास का हमला ‘फिलीस्तीन पर जबरन इजराइली कब्जे और दमन की कार्रवाई’ का प्रतिकार है। ऐसा कहने वाले वही हैं, जो जिहाद का शिकार हुए कश्मीरी पंडितों की वेदना और लव-जिहाद को प्रोपेगेंडा बताते हैं, तो 27 फरवरी 2002 को जिहादियों द्वारा ट्रेन की बोगी में 59 कारसेवकों को जीवित जलाकर मारने को अब भी हादसा बताने का प्रयास करते हैं। वास्तव में, देश में यह सेकुलरवाद और मानवाधिकारों के आड़ में इस्लामी कट्टरता को पोषित करने के चिंतन से जनित आत्मघाती विमर्श है।

स्वतंत्र भारत में इस्लामी कट्टरपंथियों को तुष्ट करने की परिपाटी प्रारंभिक नेतृत्व ने खूब आगे बढ़ाया है। इसी के परिणामस्वरूप, भारत के प्रति मित्रवत व्यवहार रखने और संकट के समय साथ देने के बावजूद भी कांग्रेस नीत पूर्ववर्ती सरकारों ने अरब-मुस्लिम राष्ट्रों और देश में इस्लामी कट्टरपंथियों को अप्रसन्न नहीं करने हेतु 1948 से स्वतंत्र देश के रूप में स्थापित आधुनिक इजराइल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने में 44 वर्ष लगा दिए।

इजरायल-हमास के बीच जारी खूनी युद्ध में भारत के लिए बहुत बड़ा संकेत छिपा है। हमास ने जिस तरह का भीषण आतंकवादी हमला इजरायल पर किया, उसकी संभावना भारत में भी प्रबल है। बीते वर्षों में भारत ऐसे कई हमलों को झेल भी चुका है। 1947 में पाकिस्तान का कश्मीर पर आक्रमण, वर्ष 2001 में भारतीय संसद पर आतंकवादी हमला, वर्ष 2008 में मुंबई पर 26/11 के रूप में जिहादी कहर के साथ दर्जनों स्थानों बम विस्फोट में हजारों निर्दोषों की हत्या, कश्मीर में 1989-91 में हिंदुओं का नरंसहार और लाखों कश्मीरी हिन्दुओं का विवशपूर्ण पलायन— इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

वास्तव में, इजरायल-विरोधी हमास और भारत-विरोधी पाकिस्तान, दोनों के वैचारिक अधिष्ठान, एक ही ‘काफिर-कुफ्र चिंतन’ से प्रेरणा पाते हैं। पाकिस्तान-बांग्लादेश और अफगानिस्तान बहुलतावादी और वैदिक संस्कृति से प्रेरित भारत के वे हिस्से हैं, जिनपर इस्लाम ने आतंकवाद के माध्यम से कब्जा किया है, जहां गैर-मुस्लिमों को सम्मान के साथ जीने का अधिकार भी प्राप्त नहीं है। इसी दर्शन के कारण यह पूर्ववर्ती भारतीय क्षेत्र लगभग हिंदू-सिख-बौद्ध विहीन हो चुका है। या तो इन गैर-मुस्लिमों की इनके मजहब के कारण हत्या कर दी गई या उनका मतांतरण कर दिया गया या फिर वे अपनी जान बचाकर विश्व के अलग-अलग हिस्सों में जाकर बस गए।

आतंकवादी/जिहादी मानसिकता को भौगौलिक सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। जिस त्रासदी को भारत और इजरायल सदियों से झेल रहे हैं, उसे शेष विश्व वर्ष 2001 में न्यूयॉर्क पर हुए भयंकर 9/11 आतंकवादी हमले से लेकर मैडरिड (2004), लंदन (2005, 2017), पेरिस (2012, 2015, 2016, 2017, 2018), ब्रुसेल्स (2014, 2016), नीस (2015, 2016, 2020) आदि जिहादी हमलों के रूप में भुगत चुका है। यदि सभ्य समाज को इस विषैले दर्शन से बचना है, तो उसे सतत सावधान रहना होगा।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *