इस्लामी आक्रमण से पहले का अरब कैसा था?
प्रागैस्लामी अरब में हिंदू-संस्कृति- (भाग-1)
गुंजन अग्रवाल
सातवीं शती ईसवी (सन् 622 ई.) में नवस्थापित इस्लाम की आँधी ने अरब का उसके अतीत से संबंध बिलकुल ही विच्छेद कर दिया। अतीत से जोड़ने वाली हर कड़ी तोड़ डाली गयी। अपने नये मजहब के निर्माण के लिए प्राचीन ढाँचा (हिंदू-धर्म) गिराना आवश्यक समझकर सभी प्रतीकों को मिटा दिया गया।
इनसाइक़्लोपीडिया ब्रिटैनिक़ा (Encyclopædia Britannica) एवं इनसाइक़्लोपीडिया ऑफ़ इस्लाम (Encyclopædia of Islam) के अनुसार अरबवासी इस्लाम के प्रादुर्भाव के पूर्व के अपने इतिहास के बारे में अनभिज्ञ हैं। इस काल को ‘ज़ाहिलिया’ (Jahiliyyah, al-Jahiliyah or jahalia) अर्थात् अज्ञान का युग कहकर नज़र अन्दाज़ किया जाता है। एक देश, जो अपने अतीत के विषय में अज्ञान में है, वह भविष्य में अपनों द्वारा निन्दित और तिरष्कृत होता है। राष्ट्रीय अतीत की यह अज्ञानता अरबवासियों द्वारा स्वयं की गढ़ी, स्वयं की सीखी और स्वयं की ओढ़ी हुई है।
सातवीं शती ईसवी (सन् 622 ई.) में नवस्थापित इस्लाम की आँधी ने अरब का उसके अतीत से संबंध बिलकुल ही विच्छेद कर दिया। अतीत से जोड़नेवाली हर कड़ी तोड़ डाली गयी। अपने नये धर्म के निर्माण के लिए पुराना ढाँचा (हिंदू-धर्म) गिराना आवश्यक समझकर मुहम्मद साहब (पैग़ंबर मुहम्मद, Prophet Muhammad : 570 ?-632) ने अपने अनुयायियों को सभी प्रतीकों, चिह्नों को मिटाने का आदेश दिया। फलस्वरूप सभी मूर्तियाँ तोड़ दी गयीं; धर्मग्रन्थ एवं पाण्डुलिपियाँ नष्ट कर दी गयीं; मन्दिरों को अपवित्र किया गया; विश्वविद्यालय और पुस्तकालय जला डाले गये; सांस्कृतिक केन्द्रों को लूटा गया, विद्वज्जनों की निर्ममतापूर्वक हत्याएँ की गयीं- अर्थात् हर वह वस्तु, जो अतीत से संबंध जोड़ती थी, नष्ट कर दी गयी।
इतिहास से यह ज़ानकारी मिलती है कि मुस्लिम-आक्रान्ता पुस्तकालयों तथा ज्ञानवर्धक पुस्तकों से घृणा करते थे। इसलिए उन्होंने दुनिया के बड़े-बड़े पुस्तकालय जलाकर राख कर दिये, जिसमें अनेक विषयों की पुस्तकें संरक्षित थीं। उनका उद्देश्य था कि मुहम्मद ने सीधे अल्लाह से हासिलकर जो कुछ ज्ञान दिया, उसके अलावा किसी ज्ञान का अस्तित्व नहीं रहना चाहिये। इसलिए मुस्लिम-आक्रान्ताओं ने उन विद्वानों को मार डाला, जिनके पास ज्ञान का भण्डार था और जो इस मुस्लिम-अहंकार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि धरती पर कुरआन के पृष्ठों के सिवा कहीं और ज्ञान है।
प्राचीनकाल से विभिन्न देशों में नष्ट किए ग्रन्थ-भण्डारों का विस्तृत विवरण रूसी-मूल के ऑस्ट्रेलियाई लेखक एवं शोधकर्त्ता एण्ड्रिउ टॉमस (Andrew Tomas : 1906-2001) ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘वी आर नॉट द फ़र्स्ट’ (‘We are not the first’ ) में दिया है। इस ग्रन्थ में लेखक ने स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार की शास्त्रीय प्रगति पर वर्त्तमान पीढ़ी को गर्व है, वैसी ही शास्त्रीय प्रगति या उससे भी अधिक प्रगति के युग अतीत में भी बीत चुके हैं।
प्रागैस्लामी अरब में प्रवेश करने के क्रम में हम देश के नाम से ही प्रारम्भ करते हैं। ‘अरब’ शब्द संस्कृत के ‘अर्व’ शब्द का ही यूनानी-रूपांतरण है, जिसका अर्थ होता है घोड़ा। संस्कृत का ‘व’ प्राकृत के ‘ब’ में परिवर्तित हो जाता है। यह देश अच्छी नस्ल के घोड़ों के पाए जाने के कारण ‘अर्वस्थान’ कहलाता था, जो बाद में ‘अरबस्तान’ या ‘अरब’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भारत-अरब-संबंध का इतिहास दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। प्रथम शताब्दी ई.पू. में भारत और सेल्यूसिड साम्राज्य (Seleucid Empire) के बीच व्यापारिक संबंध थे। व्यापार सड़क और समुद्री— दोनों मार्गों से होता था। सड़क-मार्ग उत्तर में तक्षशिला से सेल्यूसिया, कपिसा, बैक़्ट्रिया (Bactria), हिके़टोमोपाइलस (Hekatomopylos) होकर जाता था, जो एक महत्त्वपूर्ण सड़क-मार्ग था, जबकि दक्षिण से दूसरा सड़क-मार्ग सीस्तान और कार्मेनिया होकर जाता था।
ऐतिहासिक दृष्टि से अरब और भारत के पश्चिमी समुद्रतटीय क्षेत्र के मध्य की कड़ी काफ़ी मज़बूत है। इस्लाम के जनक मुहम्मद साहब से बहुत पहले से ही अरबी-देशों का दक्षिण-पूर्वी देशों से समुद्र-मार्ग द्वारा भारत के मालाबार तट पर होते हुए बड़ा भारी व्यापार था। सन् 60 ई. के एक सुप्रसिद्ध यूनानी यात्रा-ग्रन्थ ‘द पेरिप्लस ऑफ़ द एरिथ्रेयन सी’ (The Periplus of the Erythraean Sea ) में ऐसे अरब-व्यापारियों का उल्लेख किया गया है, जो अपने जहाजों से भारतीय-बन्दरगाहों की यात्रा करते थे। इस पुस्तक से यह भी ज्ञात होता है कि भारतीय-व्यापारी भी अरब से व्यापार करने में रुचि रखते थे। भृगुकच्छ बन्दरगाह से अरब के साथ व्यापार होता था और दक्षिणी अरब के बन्दरगाह व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे।
भारतीय और अरब-व्यापारियों के बीच अच्छी प्रतिस्पर्धा थी। अरबी-व्यापारी भारतीय-व्यापरियों के लिए बाधा उत्पन्न करते थे, ताकि वे पश्चिम में अपना व्यापारिक वर्चस्व स्थापित न कर सकें। परन्तु भारतीय-व्यापारियों ने स्वयं को पहले ही डायोर्स्कोडिया (Dioscordia) में स्थापित कर लिया था, जिस कारण अरबी-व्यापारी भारतीय-व्यापारियों को रोकने में असमर्थ रहे। भारतवर्ष से हाथी-दाँत की वस्तुओं, कछुए की हड्डी, हीरे-जवाहरात, रंग, लोहा, लकड़ी आदि के साथ-साथ गोंद-रेजिन और उत्तम क़िस्म का महीन एवं मोटा कपड़ा, मसाले भी अर्वस्थान को निर्यात किए जाते थे। अर्वस्थान से भारत में खाल के कोट, रंगीन लाख, घोड़े, अंगूर की शराब, एन्टीमनी आदि आयात होता था। अनुमान है कि प्रतिवर्ष दस हज़ार घोड़े आयात होते थे। भारत-अरब-व्यापारिक संबंध प्रथम शताब्दी ई.पू. से मध्यकाल तक बरकरार रहे।
…. क्रमश: अगले सोमवार को
(लेखक महामना मालवीय मिशन, नयी दिल्ली में शोध-सहायक हैं तथा ‘सभ्यता-संवाद हिंदी-त्रैमासिक के कार्यकारी सम्पादक हैं)