कबीरदास जयंती – 5 जून

– मीनू भसीन गेरा

कबीर का नाम आते ही आज की युवा पीढ़ी को भक्तिकालीन कवि का नाम याद आएगा हालांकि कबीर ने कभी कवि होने का दावा नहीं किया न ही उन्होंने कविताएं लिखी “मसि कागद छुओ नहीं….”वे अनपढ़ थे। उनके शब्दों का संकलन उनके शिष्यों ने किया। उन्होंने अपनी बात कहने के लिए किसी धर्म, पंथ या वाद का आश्रय नहीं लिया। उन्होंने समाज के खोखलेपन को स्पष्टवादिता, निडरता व साहस के साथ उजागर किया। वह संत पहले थे। समाज में रहकर समाज की बुराइयों – छुआछूत, वाह्य आडम्बर, जाति प्रथा का विरोध करना उनका लक्ष्य था। वे चाहते थे समाज के सब लोग मिलकर रहें समाज में समरसता स्थापित हो। अपनी बात कहने के ढंग से यदि कोई चमत्कार उत्पन्न हुआ है तो वह सहज है सायास नहीं। “जप माला छापा तिलक..” कहकर उन्होंने हिंदुओं को, तो “बहरा हुआ खुदा ….” कह कर मुसलमानों को भी फटकारा है। तत्कालीन परिस्थितियों में ऐसा साहस किसी और कवि में देखने को नहीं मिलता। ऐसा करने वाले वे अनूठे थे। क्या आज किसी में ऐसा साहस है जो बिना किसी लाग लपेट के समाज की विषमताओं पर प्रहार कर सके? ऐसा नहीं है कि उन्हें विरोध का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन उनकी फक्कड़ता इससे अछूती रही। आज के समाज को कबीर की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि ईश्वर को प्राप्त करना है तो स्वयं को साधना होगा अपनी आत्मा को पवित्र करना होगा। मानव यदि इस बात को समझ जाए तो कबीर का रहस्यवाद भी समझ में आ जाएगा। कबीर की विचार क्रांति को यदि हम समझ गए तो समाज में समरसता स्थापित हो जाएगी

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