कर्नाटक चुनाव, कांग्रेस और बजरंगबली

कर्नाटक चुनाव, कांग्रेस और बजरंगबली

अवधेश कुमार

कर्नाटक चुनाव, कांग्रेस और बजरंगबलीकर्नाटक चुनाव, कांग्रेस और बजरंगबली

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सारे सर्वेक्षण बता रहे थे कि कांग्रेस भाजपा से आगे है। अचानक बजरंगबली के प्रवेश ने सर्वेक्षणकर्ताओं व विश्लेषकों को नए सिरे से पूरे चुनावी माहौल का आंकलन करने को विवश किया। कांग्रेस द्वारा घोषणा पत्र में बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात के साथ ऐसा लगा जैसे पूरा चुनाव इस पर केंद्रित होता जा रहा हो। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सभाओं में बोल रहे थे कि कांग्रेस ने एक समय श्रीराम को ताले में जकड़ा और अब बजरंगबली को बंद करने की बात कर रहे हैं। हर सभा में जय बजरंगबली नारा गूंज रहा था और पूरे प्रदेश में हनुमान चालीसा से लेकर हनुमान मंदिरों में पूजा-पाठ व अन्य कार्यक्रम होने लगे। यह सब अस्वाभाविक नहीं। ‌‌यह ऐसी घोषणा थी जिसके विरुद्ध हिंदू एकजुटता का आह्वान करना आसान था।

कांग्रेस के कुछ नेता भाजपा पर चुनाव के हिंदूकरण करने का भले ही आरोप लगाएं, लेकिन यह अवसर उन्होंने स्वयं अपनी नासमझी से दिया। कोई भी कल्पना कर सकता था कि भाजपा सहित विहिप, बजरंग दल जैसे संगठन इसका न केवल पुरजोर विरोध करेंगे बल्कि अपने पक्ष में वातावरण बनाने की भी हरसंभव रणनीति अपनाएंगे। क्या घोषणा पत्र में बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का मुद्दा डालने वाले मान रहे थे कि भाजपा इसे यूं ही जाने देगी? अगर वे ऐसा सोच रहे थे तो यही कहना पड़ेगा कि अपनी दुर्दशा के बावजूद कांग्रेस ने न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीति में आविर्भाव के बाद देश के बदले हुए मानस और माहौल को समझा, न अपनी गलतियों से कोई सीख ली है।

किसी को कांग्रेस की परेशानी को लेकर संदेह हो तो वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वीरप्पा मोइली तथा प्रदेश अध्यक्ष डीके शिवकुमार के बयान और गतिविधियों पर दृष्टि डालें। एक, डीके शिवकुमार न सिर्फ इस घोषणा पर हंगामे के बाद मंदिर पहुंचे बल्कि यह घोषणा कर दी कि पार्टी सत्ता में आई तो राज्य में जगह-जगह हनुमान मंदिर बनवाए जाएंगे और पुराने हनुमान मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया जाएगा। दो, उन्होंने मैसूर में बजरंगबली की पूजा करने के बाद कहा कि हनुमानजी के सिद्धांतों को जवानों तक पहुंचाने के लिए विशेष कार्यक्रम भी आयोजित कराए जाएंगे।

समझ सकते हैं कि डीके शिवकुमार के सामने इस घोषणा से कैसी परिस्थितियां पैदा हो गई हैं। अगर कांग्रेस ने यह घोषणा नहीं की होती तो उन्हें ऐसा बयान देने को विवश नहीं होना पड़ता। तीन, कांग्रेस की दशा का एक प्रमाण वीरप्पा मोइली का वह बयान है कि बजरंग दल को प्रतिबंधित करने का कोई प्रस्ताव ही नहीं है। उन्होंने कहा कि प्रदेश सरकार प्रतिबंध लगा ही नहीं सकती। तो ऐसी कारगुजारी की किसने? उन्होंने कहा कि प्रदेश अध्यक्ष शिवकुमार इस बारे में स्थिति स्पष्ट कर सकते हैं।

प्रदेश के इतने बड़े नेता और प्रदेश अध्यक्ष तक को अगर पता नहीं कि उनके घोषणा पत्र में यह विषय आ रहा है तो फिर कांग्रेस के रणनीतिकार हैं कौन लोग? जी परमेश्वर घोषणा पत्र समिति के अध्यक्ष हैं। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने किसी संगठन का नाम ही नहीं लिया। यानी कोई जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं है।

चुनाव पर इसका कितना असर होगा कहना कठिन है, किंतु अगर कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन नहीं करती है या बहुमत से वंचित रह जाती है तो बदलते माहौल को देखते हुए यह बेहिचक कहा जा सकता है कि इस घोषणा की उसमें सबसे बड़ी भूमिका होगी। हालांकि इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। कुछ सच्चाईयां देखें। लंबे समय से कांग्रेस अपने विचार और व्यवहार में प्रदर्शित करती रही है कि उसकी सोच इसी दिशा में है। कांग्रेस की सोच यही है कि संघ, भाजपा व हिंदुत्व पर आक्रमण से मुस्लिम व ईसाई मतों के साथ तथाकथित सेकुलर मतों का ध्रुवीकरण उसके पक्ष में होगा। ऐसा लगता है कि ईसाई और मुस्लिम मतों के एकमुश्त ध्रुवीकरण की नीयत से बजरंग दल पर प्रतिबंध की घोषणा की गई। बजरंग दल का ईसाई मिशनरियों तथा कट्टरपंथी मुस्लिम समूहों के साथ टकराव होता रहा है। केवल संतुलन बनाने के लिए पीएफआई का नाम दिया गया। पीएफआई को केंद्र सरकार पिछले वर्ष ही प्रतिबंधित कर चुकी है।

सोनिया गांधी द्वारा कांग्रेस का अध्यक्ष पद संभालने के बाद धीरे-धीरे देश की वो शक्तियां उनके इर्द-गिर्द एकत्रित होने लगीं, जिनकी विचारधारा में सबसे ऊपर संघ व भाजपा को हर हाल में समाप्त करना तथा अपनी तरह का लिबरल सेकुलर लेफ्ट नीतियों का परिवेश कायम करना था। ऐसे लोग यूपीए शासनकाल में उनकी सलाहकार परिषद में थे। जो सोनिया गांधी के पास नहीं पहुंच सकते, उन्होंने राहुल गांधी के इर्द-गिर्द अपना स्थान बनाया।

इसके कुछ परिणाम साफ साफ दिखाई दिए।
• एक, मुसलमानों की दशा पर सच्चर कमेटी का गठन और उसकी रिपोर्ट इसी सोच की उपज थी।
• द़ो, गुजरात दंगों को केंद्र बनाकर नरेंद्र मोदी विरोधी अभियान का स्रोत वही था।

• तीन, वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह को जेल तक की हवा खानी पड़ी।
• चार, दंगा विरोधी कानून के बनाने के लिए लक्षित हिंसा विधेयक आया।
• पांच, इशरत जहां मुठभेड़ को गलत साबित करने के लिए सीबीआई को लगा दिया गया, जिसकी गृह मंत्रालय के अंतर्गत ही आइबी से टकराव हो गया।
• छह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके संगठनों को स्थाई रूप से समाप्त करने के लिए भगवा आतंकवाद, हिंदू आतंकवाद, संघी आतंकवाद जैसी शब्दावलियां उत्पन्न की गईं और झूठे मुकदमों तथा रिपोर्टों से ऐसे ताने-बाने बुनने के प्रयास हुए जिससे कि पूरा संघ परिवार ही मजहब आधारित संगठित हिंसा का आरोपी साबित हो जाए। इसके बाद संघ को प्रतिबंधित करना आसान होता।
• सात, 2013 में कांग्रेस की बैठक में तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने बयान दिया कि भाजपा के शिविरों में हथियारों का प्रशिक्षण दिया जाता है। यद्यपि कांग्रेस के कई नेताओं ने ही इसको स्वीकार नहीं किया, किंतु इससे प्रमाणित होता था कि पार्टी नेतृत्व के इर्द-गिर्द कैसी विचारधारा और सोच के लोग प्रभावी स्थिति में हैं।

इस धारा वाले लोगों का ही प्रभाव राहुल गांधी के बयानों में दिखता है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान संघ के पुराने निकर वाले गणवेश को जलते हुए दिखाना या वीर सावरकर के विरुद्ध बार-बार अपमानजनक भाषा का प्रयोग इसी का प्रमाण है। अपने घोषणा पत्र में देशद्रोह कानून समाप्त करने से लेकर अफस्पा हटाने का वायदा के बाद कांग्रेस की विचारधारा को लेकर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए था।

हालांकि सारे कांग्रेसी इससे सहमत नहीं हो सकते, लेकिन जिनके हाथों नेतृत्व है, पार्टी की नीतियां उन्हीं के द्वारा निर्धारित होंगी और हो रही हैं। बार-बार कांग्रेस के नेताओं द्वारा नरेंद्र मोदी के विरुद्ध अपमानजनक शब्दों का प्रयोग या संघ या फिर हिंदुत्व विचारधारा के सम्माननीय व्यक्तित्वों के विरुद्ध बयान आदि वर्तमान नेतृत्व को खुश करने की सोच के अंतर्गत दिए जाते हैं। बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाने की बात इसी सोच और व्यवहार का विस्तार है।

2014 तक इस सोच और व्यवहार के विरुद्ध जनता के अंदर हो रही प्रतिक्रियाओं ने ऐसा वातावरण बनाया था, जिसमें नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा में अकेले बहुमत प्राप्त किया, जिसकी स्वयं ज्यादातर भाजपाई कल्पना नहीं कर पा रहे थे। देश का मानस बदल रहा था और कांग्रेस का व्यवहार इसके विरुद्ध था। नरेंद्र मोदी का इतना लोकप्रिय और प्रभावी होना भारतीय राजनीति में पैराडाइम शिफ्ट का परिचायक था। पर कांग्रेस नेतृत्व के चारों ओर ऐसी तस्वीरें प्रस्तुत की जाती रहीं, जिसमें उन्हें सच समझ ही नहीं आ सकता। इसलिए वे बार-बार वही गलती दोहरा रहे हैं। आज भाजपा अपनी गलतियों या पार्टी के अंदर मतभेद के कारण कुछ विधानसभा चुनावों में भले कमजोर प्रदर्शन करे, लेकिन लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय वातावरण बिल्कुल उसके अनुरूप है।

यह दुर्भाग्य है कि देश में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाली पार्टी इस तरह की घोषणाएं कर रही है। वीरप्पा मोइली ने ठीक ही कहा कि राज्य सरकार प्रतिबंध नहीं लगा सकती। वास्तव में राज्य सरकार केंद्र को प्रस्ताव भेज सकती है। देश के संविधान, कानून, राज्य केंद्र के बीच विभाजक रेखा आदि समझने वाले घोषणा पत्र बनाते तो ऐसी आत्मघाती नासमझी नहीं करते। वैसे भी 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद कांग्रेस ने बजरंग दल पर प्रतिबंध लगाया था, जो न्यायालय में नहीं टिक सका। संघ पर भी तीन बार प्रतिबंध लगे और सरकार को मुंह की खानी पड़ी। बावजूद स्वयं को संघ, भाजपा और इस तरह की विचारधारा का कट्टर विरोधी साबित करने के लिए कांग्रेस ऐसी आत्मविनाशी हरकत कर रही है, क्योंकि भारत के बदले मानस को समझने वाले परिपक्व और व्यावहारिक नेताओं के हाथों नीति- रीति और रणनीति बनाने का दायित्व नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि वर्तमान कांग्रेस नेतृत्व इसी तरह की सोच से आगे भी कदम उठाएगा। आघात के बाद थोड़े बहुत परिवर्तन कर सकता है, किंतु वह अस्थायी होगा। यह वर्तमान कांग्रेस का स्वाभाविक चरित्र हो चुका है।

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