कर्नाटक चुनाव : सफल रहा मुस्लिम तुष्टीकरण का दांव
बलबीर पुंज
कर्नाटक चुनाव : सफल रहा मुस्लिम तुष्टीकरण का दांव
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत प्राप्त किया। यह बड़ी जीत, राजस्थान सहित कई राज्यों में संकट (आंतरिक गतिरोध सहित) झेल रही कांग्रेस को प्राणवायु देने वाली है। विमर्श बनाया जा रहा है कि कर्नाटक की जनता ने ‘भ्रष्ट’, ‘सांप्रदायिक’ और ‘अक्षम’ भाजपा को सत्ता से हटा दिया, तो उसने ‘सेकुलर’ ढांचे को बचाने हेतु कांग्रेस का निर्णायक समर्थन किया है। परंतु यह विवेचना, सत्य से कोसों दूर है।
कांग्रेस की विजय स्थापित सत्य है, किंतु भाजपा की पराजय संदिग्ध है। कांग्रेस का मत प्रतिशत अवश्य बढ़ा, परंतु ऐसा भाजपा के वोट की कीमत पर नहीं हुआ है। भाजपा का मत प्रतिशत (36%) तो जस का तस है। फिर कांग्रेस यह चमत्कार कैसे कर पाई, जिससे उसे 55 सीटों का लाभ भी मिल गया? कांग्रेस ने जनता दल सेकुलर (जेडीएस) के जनाधार में सेंध लगाई है। पिछले चुनाव की तुलना में कांग्रेस को जितने मतों— 5 प्रतिशत का लाभ हुआ, उतना ही नुकसान जेडीएस ने झेला है।
क्या कर्नाटक में भ्रष्टाचार मुद्दा था? भाजपा नेताओं के साथ कांग्रेस के शीर्ष नेता— डीके शिवाकुमार और सिद्धारमैया भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं। जहां शिवाकुमार के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति मामला चल रहा है, तो सिद्धारमैया के विरुद्ध लोकायुक्त आयोग में 50 से अधिक मामले लंबित हैं। यही नहीं, कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर भी आय से अधिक संपत्ति का आरोप है।
कर्नाटक में चुनाव, आर्थिक विकास जैसे मुद्दों को विमर्श में रखकर नहीं लड़ा गया। विगत पांच वर्षों (2018-23) में प्रदेश ने 68 प्रतिशत की दर से आर्थिक प्रगति की है। वर्ष 2018-19 में जहां प्रदेश का सकल घरेलू उत्पाद 13 लाख 33 हजार करोड़ रुपये का था, वह 2022-23 में बढ़कर 22 लाख 41 हजार करोड़ रुपये पर पहुंच गया। कर्नाटक देश की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, तो प्रति व्यक्ति वार्षिक आय के मामले में शीर्ष तीन राज्यों में शामिल है। आश्चर्य है कि इस पर कोई चर्चा नहीं हुई।
चुनाव में कांग्रेस के साथ भाजपा ने भी कई लोकलुभावन वादे किए थे। भाजपा ने जहां अपने घोषणापत्र में बीपीएल परिवारों को तीन मुफ्त गैस सिलेंडर, प्रतिदिन आधा लीटर दूध देने और 30 लाख महिलाओं के मुफ्त बस यात्रा का वादा किया, तो कांग्रेस ने 200 यूनिट मुफ्त बिजली, डिप्लोमाधारक-स्नातक बेरोजगारों को मासिक 1,500-3,000 रुपये, परिवार की प्रत्येक महिला मुखिया को 2,000 रुपये प्रति माह देने और महिलाओं को निशुल्क बस यात्रा आदि की घोषणा की। फिर कांग्रेस ने कैसे बाजी मारी?
वास्तव में, कांग्रेस ने मजहबी पहचान और भावनात्मक सरोकारों को केंद्र में रखकर अपना चुनावी रण लड़ा। कर्नाटक की साढ़े छह करोड़ की जनसंख्या में मुसलमान लगभग 82 लाख हैं। वर्षों से कांग्रेस और जेडीएस को मुस्लिम मतदाताओं का औसतन बराबर समर्थन मिलता रहा है। किंतु इस चुनाव में दो तिहाई से अधिक मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस को मुश्त होकर समर्थन दिया। भाजपा को किसी भी सूरत में पराजित करने हेतु मुस्लिम लामबंद थे। इसके कई कारण हो सकते हैं।
कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में असंवैधानिक चार प्रतिशत मुस्लिम आरक्षण को बहाल करने पर प्रतिबद्धता जताई है, जिसे पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने निरस्त कर दिया था। कट्टरपंथी मुस्लिमों को वशीभूत करने हेतु कांग्रेस अपनी सरकार में क्रूर आक्रांता टीपू सुल्तान की राजकीय जयंती मनाती थी, जिसे भाजपा ने अपने शासन में समाप्त कर दिया। जब चुनाव से डेढ़ वर्ष पहले हिजाब के नाम पर बहुलतावादी वातावरण दूषित करने का प्रयास किया गया, तब भाजपा की सरकार ने शैक्षणिक संस्थानों में आदर्श एकरूपता को अक्षुण्ण रखने हेतु वैसा ही आदेश पारित किया, जैसा लगभग केरल की वामपंथी सरकार कर चुकी थी। किंतु कर्नाटक में भाजपा के ही इस कदम को कांग्रेस आदि ने मुस्लिम-विरोधी बता दिया। जब 2022 में भाजपा सरकार ने छल-बल से होने वाले जबरन कन्वर्जन के विरुद्ध विधानसभा में कानून पारित किया, तब कांग्रेस ने इसके विरुद्ध सदन से वॉकआउट कर दिया।
इसके अतिरिक्त— शीर्ष अदालत द्वारा असंवैधानिक घोषित करने के बाद तीन तलाक विरोधी कानून बनाने, धारा 370-35ए के संवैधानिक क्षरण, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और काशी-मथुरा मामले पर न्यायालयों में निष्पक्ष सुनवाई जैसे राष्ट्रीय घटनाक्रम ने भी कर्नाटक के कट्टरपंथी मुस्लिमों को भाजपा के विरुद्ध एकजुट करने में बड़ी भूमिका निभाई। स्पष्ट है कि इस वर्ग के लिए पिछले पांच वर्षों का विकास, लोकलुभावन वादे और भ्रष्टाचार निरर्थक थे। यह रोचक है कि 1938 की पीरपुर रिपोर्ट के बाद जिन विशेषणों— ‘फासीवादी’, ‘मुस्लिम-विरोधी’, ‘गौरक्षक’, ‘जबरन हिंदी थोपने’ आदि का उपयोग करके जिहादियों और वामपंथियों ने तत्कालीन कांग्रेस को ‘सांप्रदायिक’ घोषित कर दिया था, अब वहीं जुमले वामपंथी-जिहादी कुनबे के साथ कांग्रेस ने भाजपा के लिए आरक्षित कर दिए हैं।
कर्नाटक में कांग्रेस प्रदत्त इको-सिस्टम ने हिंदू समाज को क्षेत्रवाद-जातिवाद के नाम पर विभाजित करने का प्रपंच रचा। भाजपा को ‘हिंदी भाषी’, ‘उत्तर-भारत केंद्रित’ और ‘बाहरी’ पार्टी कहकर संबोधित किया। यह संवाद शैली कांग्रेस द्वारा 1970 के दशक में ‘आउटसोर्स’ वामपंथी चिंतन के अनुरूप है, जिसका वैचारिक उद्देश्य वर्तमान भारत के टुकड़े-टुकड़े करना है। इस मानसिकता की झलक— राहुल गांधी द्वारा गढ़े “जितनी आबादी, उतना हक” विभाजनकारी नारे और कांग्रेस द्वारा सोशल मीडिया पर चुनाव को कर्नाटक की “संप्रभुता” से जोड़ने में भी मिलती है। सच तो यह है कि इस कुटिल समूह का उद्देश्य, समाज में व्याप्त समस्याओं का परिमार्जन नहीं, अपितु उसे अपने राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु सदैव जीवित रखना है।
ऐसे ही चिंतन से प्रेरित होकर कांग्रेस ने कर्नाटक में जिहादी संगठन पीएफआई के साथ ‘बजरंग दल’ पर प्रतिबंध लगाने का चुनावी वादा किया है। यह स्थिति तब है, जब भारत सरकार पहले ही पीएफआई पर प्रतिबंध लगा चुकी थी। वास्तव में, यह विमर्श उस मिथक, फर्जी और मनगढ़ंत ‘हिंदू/भगवा आतंकवाद’ को पुन: स्थापित करने का प्रयास है, जिसे स्थापित इस्लामी आतंकवाद को गौण करने हेतु 1993 के मुंबई श्रृंखलाबद्ध बम धमाके में सर्वप्रथम आगे बढ़ाया गया था। तब इस जिहादी हमले में 257 निरपराध मारे गए थे। उस समय महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री (वर्तमान रा.कं.पा. अध्यक्ष) शरद पवार ने आतंकियों की मजहबी पहचान से ध्यान भटकाने हेतु झूठ गढ़ दिया कि एक धमाका मस्जिद बंदर के पास भी हुआ था, जिसमें श्रीलंकाई चरमपंथी संगठन लिट्टे का हाथ था। इस फर्जी ‘सेकुलरवाद’ को पवार मुखर होकर स्वीकारते हैं। यह परिपाटी संप्रगकाल में पी. चिंदबरम और सुशील कुमार शिंदे के केंद्रीय गृहमंत्री काल में भी जारी रही, तो दिग्विजय सिंह ने वर्ष 2008 के भीषण 26/11 मुंबई आतंकवादी हमले का आरोप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लगाकर पाकिस्तान को बेगुनाह बता दिया। ऐसा ही षड्यंत्र अब बजरंग दल के विरुद्ध रचा जा रहा है।
कर्नाटक के परिणाम से भाजपा क्या सबक ले सकती है? मई 2014 से मोदी सरकार “सबका साथ, सबका विश्वास और सबका प्रयास” के बहुलतावादी सिद्धांत पर आगे बढ़ रही है। यह भारतीय संस्कृति से प्रेरित भी है, जिसे “ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः” वेदस्तोत्र से शक्ति मिलती है। यह अकाट्य सत्य है कि मोदी सरकार द्वारा बिना किसी जातिगत-मजहबी भेदभाव के चलाई जा रही जनकल्याणकारी योजनाओं का एक बड़ा लाभ मुसलमानों को मिला है और आगे भी मिलेगा। निसंदेह, “सबका साथ, …सबका विश्वास” एक पावन संकल्प है, परंतु इसका भाजपा के चुनावी गणित से कोई सरोकार नहीं।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)