वर्तमान परिदृश्य में डीलिस्टिंग की अनिवार्यता

वर्तमान परिदृश्य में डीलिस्टिंग की अनिवार्यता

डॉ.  दीपमाला रावत

वर्तमान परिदृश्य में डीलिस्टिंग की अनिवार्यतावर्तमान परिदृश्य में डीलिस्टिंग की अनिवार्यता

डीलिस्टिंग कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। यह विषय है जनजाति समाज की धरोहर, उसकी संस्कृति, परम्पराओं और इनमें निहित उसकी मूल पहचान को बचाने का। जनजातियों का कन्वर्जन कोई साधारण प्रक्रिया नहीं है, बल्कि उसकी सांस्कृतिक परम्पराओं को समूल नष्ट करने का षड्यंत्र है। यदि किसी समाज के अस्तित्व को समाप्त करना हो, तो सबसे आसान और सरल तरीका है उसे उसकी मूल संस्कृति, आस्थाओं और परम्पराओं से दूर कर दो।

इतिहास साक्षी है कि जनजातीय सामाजिक व्यवस्था अत्यधिक सुदृढ़ है, उसके सामाजिक मूल्यों को समाप्त करने का षड्यंत्र है कन्वर्जन। सर्व समाज आगे आए और चिंतन करे जनजाति समाज के गौरवशाली इतिहास को सहेजने का उसके अस्तित्व और अस्मिता के साथ सर्वांगीण विकास का। इतिहास में न जाने कितने आक्रांताओं के प्रहार और संघर्षों के बाद भी आज अपनी परंपराओं संस्कृति को सहेजे हुए मजबूती से खड़े जनजाति समाज के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए डीलिस्टिंग अनिवार्य है।

जनजातियां और उनका धर्म 
सन् 1911 की जनगणना रिपोर्ट में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, कि जनजातियां कौन हैं और उनका धर्म क्या है? उसमें यह कहा गया है कि जीववाद या सर्वात्मवाद (Animism) उनका विश्वास है और धर्म भी। यह दार्शनिक, धार्मिक या आध्यात्मिक विचार है कि आत्मा न केवल मनुष्य में होती है वरन सभी जीव, जंतु, वनस्पतियों, चट्टानों, प्राकृतिक परिघटना में भी होती है। वे जंगलों, पहाड़ों, नदियों में वास करने वाले देवी-देवताओं पर विश्वास करते हैं। संक्षिप्त में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि वे सनातन हिंदू धर्म संस्कृति के ध्वज वाहक हैं।

डीलिस्टिंग

हमें डीलिस्टिंग के बारे में जानना आवश्यक है क्योंकि यह विषय जनजाति समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक परम्पराओं, अस्तित्व, अस्मिता और इन सब को बनाए रखने के लिए प्राप्त आरक्षण के लाभ को उद्घाटित करने का संवेदनशील विमर्श है। यह खेद का विषय है कि 75 वर्षों का भारतीय इतिहास इस शोषण का साक्षी है। भारत के जंगलों से कराहती आवाज को स्वाधीन भारत नहीं पहचान सका। यह सच है कि जिसे आंखें नहीं देख सकतीं, उसके लिए दिल में पीड़ा भी नहीं हो सकती। जनजाति समाज के व्यक्ति की ईसाइयत में कन्वर्ट होने के बाद जनजातीय पहचान भी रहती है और वह ईसाई होने के नाते अल्पसंख्यक भी कहलाता है। इस आधार पर उसे दोहरी सुविधाएं मिलती हैं। इससे सरकार पर दोहरा आर्थिक भार तो पड़ता ही है, मूल जनजाति समाज के प्रति अन्याय भी होता है। अकेले मध्यप्रदेश में जनजाति समाज के आरक्षण का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा क्रिप्टो ईसाई उपवर्ग के द्वारा हड़प लिया गया है। स्वास्थ्य व चिकित्सा विभाग, शैक्षणिक विभाग, राजस्व विभाग आदि विभागों में अलग-अलग प्रशासनिक पदों पर 60 प्रतिशत से अधिक कन्वर्टेड लोग जनजाति को मिलने वाले आरक्षण का लाभ लेकर पदस्थ हैं। जो लोग जनजाति समाज की संस्कृति, परम्पराओं, रीति-रिवाजों से अलग हो गए हैं, जिनके कन्वर्जन से जनजातियों का अस्तित्व, उनकी पहचान खतरे में है, जो लोग जनजातीय संस्कृति के पतन का कारण बने हैं, उन्हें नौकरियों व छात्रवृत्तियों में आरक्षण और शासकीय अनुदान का लाभ नहीं देने और ऐसे कन्वर्टेड लोगों को डीलिस्ट करने की मांग अब जोर पकड़ने लगी है।

संविधान के अनुच्छेद 341 में अनुसूचित जाति के लिए प्रबंध किए गए हैं कि यदि वे कन्वर्ट होते हैं तो आरक्षण की सुविधाएं उन्हें नहीं मिलेंगी, जबकि अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजाति के लिए अलग नियम हैं। डीलिस्टिंग की मांग करने वाला जनजाति समुदाय संविधान के अनुच्छेद 342 में संशोधन करने के लिए आंदोलनरत है। उसका मानना है कि कन्वर्टेड भारतीय ईसाई अल्पसंख्यकों को दिए जाने वाले आरक्षण का लाभ भले लें लेकिन जनजाति समाज के विशेषाधिकार का भाग हड़पने के प्रयास ना करें।

पांच दशकों से लंबित है डीलिस्टिंग का मुद्दा
भारत में पहली बार 1967 में तत्कालीन सांसद डॉ. कार्तिक उरांव द्वारा अनुच्छेद 342 में संवैधानिक व कानूनी विसंगति को दूर करने का प्रयास किया गया। उनके द्वारा रचित पुस्तक “बीस वर्ष की काली रात” जो अब लंबी होते होते 60 वर्ष की होने जा रही है- में जनजाति समाज के प्रति उनकी पीड़ा और समाज पर हो रहे अन्याय की अभिव्यक्ति है। यह आज भी प्रासंगिक है।

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आदेश संशोधन विधेयक 1967 

यह विधेयक 10 जुलाई 1967 को लोकसभा में प्रविष्ट किया गया। विचार विमर्श के लिए एक संयुक्त समिति गठित की गई। 17 नवंबर 1969 को लोकसभा में संयुक्त समिति की सिफारिशों में एक सिफारिश (पृष्ठ 29, पंक्ति 38 की अनुसूची 2 कंडिका (2अ) में निहित किसी बात के होते हुए कोई भी व्यक्ति, जिसने जनजाति, ‘आदि’ मत तथा विश्वासों का परित्याग कर दिया हो और ईसाई या इस्लाम ग्रहण कर लिया हो, वह अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं माना जाएगा” संयुक्त समिति ने इसे सर्वसम्मति से पारित किया था। इसके बाद एक वर्ष तक इसकी बहस लोकसभा में नहीं हुई। भारत के कोने- कोने से तत्कालीन प्रधानमंत्री पर ईसाई मिशन से दबाव आने लगे कि वे इसका विरोध करें। इस विरोध के पक्ष में कन्वर्जन को पोषित करने वाली विचारधारा के 50 संसद सदस्यों ने हस्ताक्षर पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री को सौंपा। दिनांक 10 नवंबर 1970 तक 338 संसद सदस्यों (322 लोकसभा से और 26 राज्यसभा से) द्वारा हस्ताक्षरित स्मरण पत्र तत्कालीन प्रधानमंत्री को सौंपा गया। 16 नवंबर 1970 को लोकसभा में बहस शुरू हुई। 17 नवंबर 1970 को भारत सरकार की ओर से एक संशोधन आया कि संयुक्त समिति की सिफारिश विधेयक से हटा ली जाये। 24 नवंबर 1970 को डॉ. कार्तिक उरांव को विधेयक पर बहस करनी थी। उसी दिन सुबह सरकार की ओर से कांग्रेस सदस्यों को एक सचेतक मिला कि कांग्रेस के सभी सदस्य सरकार के हर संशोधन का साथ दें और अन्य सभी सिफारिशों का जो सरकार के समर्थन के बाहर हैं, विरोध करें। इसके बावजूद  डॉ. कार्तिक उरांव ने संसद में डीलिस्टिंग विषय पर 55 मिनट तक बहस की। 75% सदस्यों ने संयुक्त समिति का साथ दिया। ऐसी परिस्थिति में सरकार ने विधेयक की बहस को स्थगित करना ही उचित समझा और यह आश्वासन दिया गया कि विधेयक की बहस उसी सत्र के अंत में की जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। 27 दिसंबर 1970 को लोकसभा भंग कर दी गई और अनुसूचित जनजाति का भविष्य भी अंधकारमय हो गया। आज दशकों की काली रात के बाद भी जनजातियों के जीवन में ज्योति नहीं आई। अब यह संघर्ष केवल जनजाति समाज का नहीं वरन समस्त सत्य एवं न्यायप्रिय भारतवासियों का है।

(विषय विशेषज्ञ, जनजातीय प्रकोष्ठ भोपाल मध्यप्रदेश)

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