कार्यसमिति की विवशता (व्यंग्य रचना)

कार्यसमिति की विवशता (व्यंग्य रचना)

शुभम वैष्णव

कार्यसमिति की विवशता (व्यंग्य रचना)

चिट्ठी मनुहार के बाद नेताओं के द्वारा मीडिया से एजेंट और एजेंडा के बारे में बातें की जा रही थीं और बेचारी कार्यसमिति अपनी विवशता लिए खड़ी थी। मन तो उसका भी था कि वह एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करे और सबको बताए कि उसका नाम कार्यसमिति नहीं बल्कि कार्यसीमित होना चाहिए था क्योंकि उसका दायरा एक परिवार की मनुहार तक ही सीमित है। उसकी सीमाएं सीमांत नहीं बल्कि सीमित हैं। पिछले कई वर्षों से उसे एहसास हो चुका है कि योग्यता हर द्वार पर है, परंतु योग्य माना जाना केवल एक परिवार के द्वार तक ही सीमित है। वहॉं योग्यता पैमानों से नहीं बल्कि नामों और उपनामों से नापी जाती है, तोली जाती है और सबको परोसी भी जाती है।

जैसे एक वेटर को पता होता है कि वह पानी को जिस ग्लास में भरेगा पानी उसी बर्तन का स्वरूप ले लेगा। परंतु एक धक्के के बाद जब वह पानी जमीन पर गिरेगा तो उसका कोई स्वरूप नहीं होगा कार्यसमिति का मानना है कि उस पानी की तरह ही उसका स्वरूप भी गढ़ा जा रहा है जबकि वास्तविकता यह है कि कुछ लोगों के द्वारा ही उसका स्वरूप बिगाड़ा जा रहा है। कार्यसमिति अज्ञानी तो नहीं है इसीलिए वह अपने ज्ञान के आधार पर निष्कर्ष निकालकर कहती है कि- हां और ना का स्वर भी कुछ लोगों तक ही सीमित है। वैसे गणित के नियमानुसार वर्ग की चारों भुजाएं समान होती हैं। परंतु पारिवारिक नियमानुसार कार्यसमिति की भुजाएं असमान हैं। समानता का पैमाना गणित तक ही सीमित है।

पारिवारिक पैमाने पर इसका कोई औचित्य नहीं है। इसलिए कार्यसमिति ने अपने भीतर कार्य सीमित जैसा भाव समेट लिया है ताकि पारिवारिक दबाव और प्रभाव दोनों को अच्छी तरह से सह सके।

Print Friendly, PDF & Email
Share on

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *