किसान आंदोलन के नाम पर भ्रम और अराजकता फैलाना कितना उचित?
शशांक शर्मा
भारत में पिछले छह वर्षों से सरकार के निर्णयों का विरोध करने की शृंखला चल रही है। जनता के द्वारा चुनी गई एक मजबूत सरकार पर अपने निर्णय बदलने के लिए दबाव की राजनीति की जा रही है। यह देश में सरकार के काम पर अड़ंगा लगाने और देश में अराजकता पैदा कर विकास कार्यों को अवरूद्ध करने के प्रयास हैं। अभी किसानों के लिए बनाए गए कानूनों का विरोध करने के नाम पर देश को बंधक बनाने की कोशिश हो रही है।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए ने 2019 में दोबारा जीत हासिल की तो विपक्ष के होश उड़ गए। 2014 से कहीं ज्यादा समर्थन और सीटें जनता ने एनडीए की झोली में डाल दीं। जब जनता का समर्थन मिला तो नई सरकार ने भी अधिक उत्साह से काम प्रारंभ किया। स्वतंत्रता के बाद के 40 वर्षों के दौरान पैदा की गई समस्याओं के निराकरण का काम प्रारंभ हो गया। धारा 370 का खत्म होना, राममंदिर का न्यायालयीन निराकरण, तीन तलाक़ की जकड़ से मुसलमान बहनों को मुक्त करने का कानून, नागरिकता संशोधन कानून को संसद में पारित करने जैसे एक के बाद एक चमत्कार होते गए।
भला देश की समस्याओं का निराकरण हो, ऐसी भावना राजनीति की क्या कभी रही? सभी समस्याओं के समाधान हो गए तो राजनीति की रोटियां किस तवे पर सेंकेंगे? ऐसे विचारों ने विपक्ष को हर तरह से सरकार का विरोध करने के लिए एक मंच पर लाने में सफलता पा ली। पहले शाहीन बाग़ मॉडल से सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने की साज़िश रची गई और अब किसानों के नाम पर देश दुनिया के अराजक तत्वों को एकजुट करने में लगे हुए हैं।
भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था है, यह व्यवस्था किसी परंपरा से नहीं बनी है, एक लिखित संविधान के माध्यम से संचालित है। इसमें किसी व्यक्ति, संगठन को सरकार के निर्णय के खिलाफ विरोध करने का अधिकार है। स्वतंत्रता के बाद जिस तरह के सरकार के प्रति विरोध जताने का तरीका रहा है, उससे अलग तरीका अब मोदी सरकार के विरोध के लिए क्यों अपनाया जा रहा है? सरकार के निर्णय का विरोध करने के नाम पर किसी शहर को बंधक बना लेना कितना उचित है? नागरिकता कानून के खिलाफ शाहीन बाग़ को बंधक बनाने को सर्वोच्च न्यायालय ने भी सही नहीं माना था।
अब किसान आंदोलन के नाम पर दिल्ली को घेरने का कौन सा तरीका है? किसी शहर, राज्य या देश को विरोध के चलते बंद करने की पद्धति को राज्यों की हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे चुकी है, इसके बावजूद संविधान की दुहाई देने वालों ने कोर्ट के निर्देशों का पालन न कर फिर भारत बंद करने का प्रयास किया गया।
विरोध कृषि कानूनों का हो रहा है। ये कानून संसद द्वारा पारित किए गए हैं। जो कानून को गलत बता रहे हैं, वह किसी अनुभव के आधार पर नहीं बल्कि गलत होने के अंदेशे को लेकर है। क्या किसी परिणाम के गलत होने के पूर्वानुमान के आधार पर देश को बंधक बना लेना उचित है? कहा जा रहा है कि पूरे देश के किसानों को नुक़सान होगा, ऐसा आंकलन करने का क्या आधार है? क्या कोई सर्वेक्षण किया है? लेकिन ऐसा कुछ नहीं बस मान लिया कि किसानों को नुक़सान होगा। वास्तविकता यह है कि अंग्रेज देश की कृषि व्यवस्था का बंटाधार करके गए।
स्वतंत्रता के बाद कभी भारतीय पद्धति के आधार पर कृषि का पुनर्गठन करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। विदेशी तकनीक की नकल कर रासायनिक खाद और कीटनाशक के दम पर एक हरित क्रांति को अंजाम दिया गया। इससे देश के कुछ क्षेत्र में खेती को तो फायदा हुआ लेकिन देश का क्षेत्रीय आर्थिक संतुलन बिगड़ गया। उपज बढ़ी तो खाद और कीटनाशक पर खर्च बढ़ गया, मिट्टी की उर्वरता प्रभावित हुई। किसान को उपज का दाम नहीं मिला। बहुमूल्य ज़मीन का मालिक किसान गरीब रहा, उसकी किसी ने चिंता नहीं की। अब जब कृषि व्यवस्था को सुधारने की पहल हो रही है तो किसानों के कंधे पर बंदूक रख कर विरोध किया जा रहा है।
ऐसी बात भी नहीं कि राजनैतिक पार्टियां और नेता नहीं जानते कि पारित कानूनों से किसानों का हित है। जब कांग्रेस सत्ता में थी तब उसने भी यह व्यवस्था बदलने का प्रयास किया था। लेकिन निर्णय लेने की अक्षमता और लागू करने के कुप्रबंधन के कारण वे ऐसा नहीं कर सके। यहां तक कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान अपने घोषणा पत्र में कांग्रेस ने मंडी व्यवस्था को सुधारने की बात की थी, अब विरोध कर रही है।
यही बात पंजाब के नेताओं को भी है। बात किसी कानून या सरकार के विरोध की भी नहीं है। जिस किसान आंदोलन के नाम पर वामपंथी संगठन देश विरोधी तत्वों को एकजुट कर रहे हैं, उससे किसान आंदोलन में खालिस्तान समर्थकों को अपनी ताकत दिखने का अवसर मिल गया है। पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई भी सक्रिय नजर आ रही है।
किसानों के नाम पर गैर कृषक देश विरोधी संगठन सड़क पर उतर आए हैं। यह आंदोलन किसान के हित में कम मोदी सरकार की छवि बिगाड़ने के लिए अधिक प्रयोग में आ रहा है।
कुल मिलाकर शाहीन बाग़ की तरह एक बार फिर मोदी विरोधी अराजकता फैलाने का काम कर रहे हैं। भारत में संसदीय लोकतंत्र है, अभी आम चुनाव को डेढ़ साल नहीं बीते हैं, जिसमें जनता ने भाजपा और एनडीए को सरकार चलाने और देशहित में काम करने का अधिकार नरेंद्र मोदी सरकार को दिया है। इसलिए छल से, भ्रम फैलाकर, अराजकतावादी तत्वों को आंदोलन के नाम पर देश को बंधक बनने का अधिकार संविधान भी नहीं देता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)