कोराना वायरस और भारत – चीन की आर्थिक नीति

चीन जैसे देशों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्वसनीयता के सिद्धांत के पालन में अग्रणी भूमिका निभानी होगी, तभी संपूर्ण भूमंडल के लिए वैश्विक राजनीति का लाभकारी वातावरण निर्मित हो पाएगा क्योंकि इस महामारी ने विश्व को एक शिक्षा अवश्य दी है कि आर्थिक और सामरिक शक्ति की अपेक्षा पारस्परिक संबंधों की प्रगाढ़ता ही समस्त नकारात्मकता का विनाश करने में सक्षम है।

प्रीति शर्मा

हाल ही में 1 अप्रैल को भारत और चीन अपने 70 वर्ष पुराने कूटनीतिक संबंधों के साक्षी बने। भारत और चीन ने 1950 में जिस ऊर्जा और समायोजन के साथ इन संबंधों की शुरुआत की थी और पंचशील को एशिया की भू राजनीति में दोनों देशों के बीच प्रगाढ़ता का आधार बनाया था, वही 70 वर्ष बाद भारत की सकारात्मक भूमिका के बावजूद चीन की संदेहास्पद भूमिका के चलते कुछ शिथिल सा जान पड़ता है। इसके पीछे कोविड 19 महामारी के काल में चीन द्वारा वुहान में आई आपदा को संपूर्ण विश्व से छिपाना मूल कारण रहा है। वर्ष 2019 में चीन के राष्ट्रपति की मामल्लपुरम यात्रा के समय भारत और चीन के बीच कूटनीतिक संबंधों की 70 वीं वर्षगांठ को संपूर्ण ऊर्जा और जोश के साथ मनाने का निर्णय लिया गया था, जिसे चीन की महत्वाकांक्षा के कुटिल खेल ने धूमिल सा कर दिया।

भारत ने यूरोपियन यूनियन, संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया आदि सभी देशों की राह पकड़ते हुए अपने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीतियों में कुछ संशोधन किए, जिसके अंतर्गत सहज मार्ग से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को रोकने के लिए चीन की तरफ से होने वाले निवेश पर प्रतिबंध आरोपित किए गए। भारतीय विदेश नीति का आधारभूत मूल्य पड़ोसी मित्र राष्ट्रों एवं समस्त अन्य राष्ट्रों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने के साथ-साथ भौगोलिक वातावरण को शांतिपूर्ण एवं विकास उन्मुख बनाना रहा है। किंतु चीन की एशिया की भू राजनीति में अपना आधिपत्य स्थापित करने की कुटिल इच्छा ने वर्षों से भारत के साथ अपने राजनीतिक आर्थिक एवं कूटनीतिक संबंधों का उल्लंघन करते रहने की नीति ने दोनों देशों के बीच विश्वास का आधार संदेह पूर्ण कर दिया। भारत के निरंतर शांतिपूर्ण एवं सकारात्मक प्रयासों के बावजूद चीन की धोखाधड़ी पूर्ण नीतियों में कोई कमी नहीं आई है और आज स्थिति यह हो गई कि भारत को अपने पड़ोसी राष्ट्र के साथ आर्थिक संबंधों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर रोक लगानी पड़ी।

भारत के साथ-साथ चीन ने संपूर्ण विश्व के साथ महामारी का सत्य छिपा कर जीवन, अर्थव्यवस्था और बाजार को आहत करने का प्रयास किया है, जिससे एशियाई भू राजनीति में ही नहीं, संपूर्ण विश्व में उसकी छवि मलिन हुई है। चीन की वर्तमान वैश्विक नीतियों के चलते भारतीय कंपनियों पर आधिपत्य को रोकने के लिए भारत को यह कदम उठाना पड़ा जो कि वह पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ पहले ही कर चुका है। इस कदम से भारत महामारी के काल में अवमूल्यन झेल रही कंपनियों की रक्षा कर सकेगा। प्रतिक्रिया स्वरूप चीन ने इसे समस्त देशों के प्रति निवेश संबंधी भेदभाव रहित नीति के विश्व व्यापार संगठन के सिद्धांत का उल्लंघन माना है। किंतु भारतीय अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञों के अनुसार भारत सरकार का यह कदम देश की अर्थव्यवस्था को सुरक्षित करने के लिए पूर्णत: अपेक्षित है।

वर्तमान में विश्व के चीन के प्रति इस रवैए को समझते हुए इस साम्यवादी देश को वैश्विक स्तर पर अपनी छवि सुधारने की आवश्यकता है क्योंकि वैश्वीकरण के इस युग में किसी एक देश की भूल या इरादतन नीतियों का न केवल अन्य देशों बल्कि स्वयं पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि वैश्वीकरण ने ‘संपूर्ण विश्व को एक गांव में’ रूपांतरित कर दिया है।

आज एशिया में स्थानांतरित भू राजनीतिक शक्ति के परिदृश्य में भारत और चीन के द्वारा संभलकर कदम उठाने की अपरिहार्यता स्पष्ट जान पड़ती है। जहां भारत अनेक देशों को मदद का हाथ बढ़ाकर अपनी चिर परिचित सौहार्दपूर्ण छवि को बनाए रखने में सफल रहा है, वहीं चीन अपने साम्यवाद के दम पर विकास के ऊर्ध्वमुखी ग्राफ के निरंतर पतन की दिशा में बढ़ रहा है। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का आधार महात्मा गांधी के ‘पवित्र साध्य की प्राप्ति हेतु पवित्र साधन’ रहा है, जिसके चलते भारत की छवि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में एक विश्वसनीय सदस्य के रूप में बनी रही है। चीन जैसे देशों को अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्वसनीयता के इस सिद्धांत के पालन में अग्रणी भूमिका निभानी होगी तभी संपूर्ण भूमंडल के लिए वैश्विक राजनीति का लाभकारी वातावरण निर्मित हो पाएगा। इस महामारी ने विश्व को एक शिक्षा अवश्य दी है कि आर्थिक और सामरिक शक्ति की अपेक्षा पारस्परिक संबंधों की प्रगाढ़ता ही समस्त नकारात्मकता का विनाश करने में सक्षम है।

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