कोरोना काल ने दिया राष्ट्रीय चरित्र गढ़ने का अवसर

पूरी दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो प्रकृति के हर स्वरूप को ईश्वर के रूप में पूजता है। इनका संदेश हमारे लिए सर्वोपरि है। इसीलिए यह भावना बननी चाहिए कि कोरोना के संकट में प्रकृति ने हमें जो संदेश दिया है, उसे हम प्राणप्रण से स्वीकार करेंगे और इसे एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में अपनाएंगे।

कुमार अज्ञात

कहते है कि हर संकट एक अवसर भी होता है, क्योंकि यह संकट आपको सबक देता है। आपको आपकी कमियां बताता है। आपको यह बताता है कि आपने आज तक जितना कुछ हासिल किया, वो किस हद तक उपयोगी है और अभी और क्या किया जाना है। कोरोना का संकट तो इस संदर्भ में अभूतपूर्व रहा है। एक ऐसा संकट जिसका मौजूदा पीढ़ी ने कभी अनुभव ही नहीं किया। युद्ध हुए, सुनामी और भूकम्प जैसी प्राकृतिक विपदाएं आईं, अकाल पड़े, स्वाइन फ्लू या डेंगू जैसी बीमारियां भी आईं, लेकिन ऐसी वैश्विक महामारी मौजूदा पीढ़ियों ने कभी नहीं देखी। इस संकट ने एक बार में मानव को प्रकृति के समक्ष उसकी लघुता का अनुभव करा दिया। अपनी वैज्ञानिक, औद्योगिक और भौतिक प्रगति पर इतराते -इठलाते मानव को इस संकट ने यह अहसास करा दिया कि आज भी प्रकृति ही सर्वोच्च है और मानव जिस गति से उसका दोहन और शोषण कर रहा था, वह उसे कतई मंजूर नहीं हुआ।

प्रकृति अपनी सीमा तक सहती रही। लेकिन एक झटके में उसने मानव को यह अनुभव करा दिया कि जब वह अपनी पर आती है, तो उसके सामने सब कुछ तुच्छ हो जाता है। हर कोई उसके समक्ष बौना और अस्तित्वहीन है।

गंगा का पानी पीने लायक हुआ

आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं कि इस संकट में यदि कुछ रुका है तो सिर्फ मानवजनित व्यवस्थाएं ही रुकी हैं। वह स्वयं, उसकी अर्थव्यस्था, उसके उद्योग, उसके काम धंधे, उसका व्यापार, उसकी शिक्षा, उसका परिवहन, लेकिन प्रकृति का हर काम पहले की तरह चल रहा है। नदियां उसी वेग से बह रही हैं, हवा अपनी गति से चल रही है, खेत में अन्न आज भी उग रहा है, पेड़ों पर फल भी लग रहे हैं, यहां तक कि मनुष्य के अलावा इस प्राणी जगत के जितने जीव जंतु हैं, वे भी स्वतंत्र रूप से विचरण कर रहे हैं। यानी प्रकृति पहले की तरह काम कर रही है, बल्कि अब ज्यादा बेहतर ढंग से कर पा रही है। नदी-नाले साफ हो गए हैं। हवा स्वच्छ हो गई है। जंगलों में मानव का दखल नहीं है तो पशु पक्षी भी दबावमुक्त दिख रहे हैं। प्रकृति का यह स्वरूप मानव के लिए एक संदेश है। संदेश एकदम साफ है कि जिसका जो काम है, वह उसे पूरी निष्ठा, समर्पण और बिना दूसरे को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किए हुए करे तो कभी किसी का कुछ नहीं रुकेगा। कभी लॉकडाउन की जरूरत नहीं पड़ेगी, बल्कि काम बेहतर ढंग से हो सकेगा।

हम भारतवासियों के लिए तो प्रकृति का यह संदेश बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि सम्भवत: पूरी दुनिया में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो प्रकृति के हर स्वरूप को ईश्वर के रूप में पूजता है। पर्वत, नदी, समुद्र, वायु, पशु पक्षी सभी हमारे लिए ईश्वर का स्वरूप हैं। यदि हम इन्हें सच्चे मन से पूजते हैं तो इनका संदेश तो हमारे लिए सर्वोपरि है और इसीलिए यह भावना बननी चाहिए कि कोरोना के संकट में प्रकृति ने हमें जो संदेश दिया है, उसे हम प्राणप्रण से स्वीकार करेंगे और इसे एक राष्ट्रीय चरित्र के रूप में अपनाएंगे।

यह बहुत बडा अवसर है जब हम हमारी राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था की कमियों और खामियों को दूर करते हुए नए सिरे से इनके बारे में सोचें और आगे बढें। भ्रष्ट आचरण को कुछ समय के लिए पूरी तरह भूल जाएं। तुष्टीकरण के बजाए सबके साथ समान व्यवहार पर ध्यान दें, औद्योगिकीकरण हो तो सही, लेकिन ज्यादा ध्यान सूक्ष्म और लघु उद्योगों पर दिया जाए और प्रकृति का पूरा ध्यान रखा जाए, कृषि को एक बार फिर वही सम्मान मिले जो औद्योगीकरण से पहले मिला करता था। समाज व्यवस्था में परिवार और वह भी संयुक्त परिवार पर फिर से जोर हो, क्योंकि इस लॉकडाउन ने संयुक्त परिवार के महत्व को बहुत मजबूत तरीके से रेखांकित किया है।

जरूरतें हम भले ही सीमित न करें, क्योंकि अर्थव्यवस्था का पहिया घुमाने के लिए जरूरतों को एक बार तो बढ़ाना ही होगा, लेकिन इतना जरूर करें कि हम उन्हें आस-पास के लोगों से पूरा करें, ताकि एक समुदाय के रूप में हम सबका काम चल सके। और सबसे ज्यादा जरूरी है राजनीतिक इच्छशक्ति। क्योंकि पिछले सत्तर वर्षों में हम अपनी सरकारों पर बहुत ज्यादा निर्भर हो गए हैं। संतोष की बात यह है कि केन्द्र में एक ऐसी सरकार इस समय है जो भारतीय संस्कृति को जानती समझती है। ऐसे में उसकी राजनीतिक इच्छा शक्ति से भारतीय संस्कृति के अनुरूप कुछ राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक निर्णय हो सकें तो निश्चित रूप से यह संकट का समय हमारे लिए राष्ट्रीय चरित्र गढ़ने का अवसर बन सकता है।

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