कोरोना या विचार करो ना?

हिंदू विचार दर्शन, जिसका आधार ईशावास्यं इदम् सर्वम् है, हमें एक वैकल्पिक पथ का निर्देश करता है। क्या एक नए विश्व, जिसमें अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आधार परस्पर आदर व सहभाग, आर्थिक नीतियों का आधार प्रकृति प्रेम और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व एवं समस्त मानवीय चेष्टाओं का मूल “सर्वे भवंतु सुखिनः” हो, की प्रतिस्थापना का उचित समय आ गया है? 

समुत्कर्ष

पृथ्वी आज एक ऐसी समस्या से जूझ रही है जो संभवतः द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के सबसे गंभीर हालात पैदा करने वाली है। कोविड-19 नाम की इस महामारी ने विश्व के 200 से अधिक देशों के लगभग 350 करोड़ मनुष्यों के दैनंदिन जीवन को गंभीर प्रतिबंधों के बीच संघर्ष में बदल दिया है। इस सब कोलाहल के बीच मुझे लगता है कि ऐसी वैश्विक समस्या, जिसने संपूर्ण मानव जाति को चुनौती दी है, पर विचार करते समय थोड़ा गहराई में जाना चाहिए। क्या यह संभव है कि यह समस्या, जैसा कि हिंदू दर्शन में कहा गया है, हमारे ही कर्मों का फल हो? आज क्यों यूरोप और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं? इसका उत्तर शायद हमें इतिहास के पन्नों में मिल सके।

इतिहास की चुनिंदा घटनाओं ने आज के विश्व का स्वरूप गढ़ने में महती भूमिका निभाई है। आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व यूरोप से बहुत से नाविक अन्य देशों और जातियों की खोज में निकले जिनमें से सर्वप्रथम परिणाम लाने वाले थे क्रिस्टोफर कोलंबस, जिन्होंने 1492 में कैरीबियन द्वीप पर अपने कदम रखे। इतिहास साक्षी है कि इनके अमेरिका में कदम रखने के 150 वर्ष के भीतर उस महाद्वीप की जनसंख्या 50 लाख से घटकर 5 लाख रह गई। इसका कारण जानने के लिए अंग्रेज सैन्य कमांडर जेफ्री एम्हर्स्ट का उदाहरण देखते हैं। यह कमांडर अमेरिका की शांतिप्रिय जनजातियों के प्रमुखों को उपहार स्वरूप स्मॉल पॉक्स से संक्रमित कंबल देता था और उसका अपनी सेना को स्थाई आदेश था कि ऐसे और जितने भी तरीके इन घृणित जातियों को समाप्त करने के लिए अपनाए जा सकते हैं उन्हें अपनाया जाए। भारत में ही अंग्रेजी राज्य का उदाहरण लें तो ध्यान में आता है कि 1866 के उड़ीसा में पड़े अकाल के समय जब 15 लाख लोग काल के ग्रास में समा रहे थे, अंग्रेजों ने 20 करोड़ पॉण्ड अनाज की लूट को अपने देश में पहुंचाया था। जलियांवाला हत्याकांड का स्मृति दिन भी कल ही गया है जिसके लिए आधिकारिक क्षमा याचना की भारत अब भी प्रतीक्षा कर रहा है। यही अनुभव किंबहुना सभी उपनिवेशों के हैं, जहाँ के नागरिकों के खून से पश्चिम की समृद्धि की चकाचौंध सनी हुई है। यहां तर्क उठ सकता है कि अर्वाचीन काल में पश्चिमी ताकतों ने विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं के माध्यम से अपने पापों का प्रायश्चित कर लिया है। एक बानगी इसकी भी देख लेते हैं।

1991 में विकसित देशों की तरफ से विकासशील देशों की ओर जो सहायता राशि गई वह है 49 अरब डालर और इसी अवधि में प्रॉफिट रिपेट्रिएशन के रूप में विकासशील देशों की ओर से विकसित देशों की ओर जो राशि आई वह है 147 अरब डॉलर। क्या यह एक नव उपनिवेशवाद नहीं है? शायद इन्हीं कुत्सित कर्मों ने आज यूरोप और अमेरिका को इस परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है। और केवल यही देश नहीं हम सबके अपने अपने कर्म हैं जिनका फल हमको भोगना होगा।

आज हमें यह विचार करना होगा कि हम किन सिद्धांतों के आधार पर, जिन को धर्म कहते हैं, विश्व का संचालन करना चाहते हैं? क्या धनबल,सैन्यबल जैसी चीजों को हमने आज महानता का मापदंड सर्वोच्च नहीं मान लिया है, फिर चाहे वह किसी भी रास्ते पर चलकर कमाए गए हों? क्या हम उपरोक्त पाश्चात्य मानसिकता के आधार पर ही इन अंतर्संबंधों को विकसित करना चाहते हैं? या वह ‘दूसरा विचार’ हम पुनः स्थापित करने का जोखिम उठा सकते हैं जिसने माओ और स्टालिन के रूप में क्रमशः 4.5 करोड़ और 2.5 करोड़ मनुष्यों को अपने स्वार्थ की बलि चढ़ा दिया था? क्या यही हमारा सामूहिक कर्म नहीं है? यदि हम भविष्य में प्रकृति के इस न्याय में विश्व को खुशहाल देखना चाहते हैं, तो हमें अविलंब इन दोनों विचारधाराओं के विकल्प पर विचार करना होगा।

हिंदू विचार दर्शन, जिसका आधार ईशावास्यं इदम् सर्वम् है, हमें एक वैकल्पिक पथ का निर्देश करता है।क्या एक नए विश्व, जिसमें अंतरराष्ट्रीय संबंधों का आधार परस्पर आदर व सहभाग, आर्थिक नीतियों का आधार प्रकृति प्रेम और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व एवं समस्त मानवीय चेष्टाओं का मूल “सर्वे भवंतु सुखिनः” हो, की प्रतिस्थापना का उचित समय आ गया है? सोने की चिड़िया भारत में घरों के ताले नहीं लगने के उदाहरण से लेकर अमृता देवी के खेजड़ली गांव में आत्म बलिदान तक और वहाँ से लेकर गरीबों के लिए अपनी रसोई गैस की सब्सिडी छोड़ने तक, ऐसा स्पष्ट ध्यान में आता है कि भारतीय जनमानस में यह भाव अंतर्निहित रहा है। इसीलिए भारत ने जब-जब भी विश्व का नेतृत्व किया है, विश्व न्याय, नीति और सदाचार की राह चला है। आर्नल्ड टॉयन्बी ने कहा था कि अगर इस सृष्टि का अंत विनाश में नहीं होना है, तो जिस अध्याय का आरंभ पश्चिम से हुआ था, उसका अंत हिन्दू दर्शन के अनुसार ही होगा। क्या वह समय आ गया है?

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