क्या ड्रैगन के साम्राज्यवाद से मुकाबला सिर्फ फौज ही करती रहेगी?

20 जून 2020

 मुरारी गुप्ता

क्या यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि एक तरफ सीमा पर चीन की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ हमारे सैनिक जूझते रहें और दूसरी ओर हम सस्ते के चक्कर में चीन की जेब को भरते रहें? क्या चीन की विस्तारवादी नीतियों का मुकाबला सिर्फ हमारी फौज ही करती रहेगी? क्या अब यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ हम भारत के लोग उसकी आर्थिक रीढ़ पर एक साथ करारी चोट करें।

भारत में चीन और चीन की साम्राज्यवादी नीतियों के विरुद्ध रोष है। यह स्वाभाविक भी है। भारत के बीस जवानों ने लद्दाख में देश की सीमाओं पर चीनी आक्रमण का मुकाबला करते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। देशभर में चीन के खिलाफ रोष की लहर हर स्तर पर महसूस की जा रही है। कोरोना बीमारी के प्रसारक के रूप में आरोपित चीन के प्रति यह आक्रोश पहले से ही था, लेकिन अब उसकी साम्राज्यवादी नीति का मुकाबला करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए हमारे जवानों के कारण वह रोष सतह पर आ गया है।

सवाल यह है कि क्या चीन की विस्तारवादी नीति का मुकाबला करने के लिए सिर्फ भारत की फौज ही लड़ती रहेगी? भारत के आम नागरिक अपनी भूमिका निभाना कब शुरू करेंगे? सही वक्त कभी नहीं आता। उसे हमें तय करना होता है। और परिस्थितियों की मानें तो यही सही वक्त है जब हम चीन की आर्थिक रीढ़ की खपच्चियों को तोड़ दें। वह भी दृढ़ संकल्प के साथ। कोरोना वायरस के कारण पहले से वह पूरी दुनिया में घृणा का पात्र बना हुआ है। हांगकांग, ताइवान से लेकर दक्षिण चीन सागर से सटे सभी देशों में कहीं न कहीं चीन की हड़पने की नीति के खिलाफ रोष है। इस समय इन देशों के तमाम राजनैतिक रोषों को कूटनीतिक ढंग से संघनित करके हथियार बनाने की आवश्यकता है। इससे चीन के एक सौ चालीस करोड़ बंधुआ मजदूर, एक करोड़ उइगर मुस्लिम और साठ लाख तिब्बतियों के मुक्ति का मार्ग भी सुलभ हो जाएगा। भारत के लद्दाख, सिक्किम और अरुणाचल में हमारी सीमाओं और दक्षिण चीन सागर में उसका हस्तक्षेप बंद करने और उसकी कुटिलता पर अंकुश लगाने के लिए सबसे महत्वपूर्ण रास्ता हम भारतीयों के बटुए से होकर जाता है।

यह सही है कि भारत में फार्मास्यूटिकल के कच्चे माल, इलेक्ट्रॉनिक्स, स्टील, होम अप्लायंस, ऑटो कंपोनेंट, सोलर पावर और टेलिकॉम इक्विपमेंट और स्मार्टफोन बाजार में चीन का दबदबा है और इसमें बड़ी संख्या में भारतीय लोगों को रोजगार भी मिला है। स्मार्टफोन बाजार में चीनी कंपनियों की भागीदारी 70 फीसदी से ज्यादा है। इलेक्ट्रॉनिक्स में 43 फीसदी, गारमेंट्स में 27 फीसदी और ऑटो सेक्टर में लगभग 9 प्रतिशत निर्भरता चीन से होने वाले आयात पर है। लेकिन हमें कई स्तरों पर चीन की आर्थिक रीढ़ तोड़ने की रणनीति पर काम करना होगा। इनमें सबसे पहले उपभोक्ता के स्तर पर हमें जागरूक होना होगा। उद्यमियों को चीनी उत्पादों से बेहतर और किफायती उत्पाद पर ध्यान देना होगा और तीसरे सरकार के स्तर पर कूटनीतिक ढंग से चीन को आइसोलेटे करने की जरूरत है।

भारत और चीन के बीच हर साल लगभग छह लाख करोड़ का द्विपक्षीय व्यापार होता है। भारत चीन से हर साल करीब चार लाख नब्बे हजार करोड़ रुपये का आयात करता है, जबकि चीन को एक लाख बीस हजार करोड़ का रुपए निर्यात किया जाता है। इस तरह चीन के साथ भारत का व्यापार संतुलन चीन की तरफ झुका हुआ है। यह सही है कि भारत की तमाम इंडस्ट्री चीन से आयात होने वाले सामान पर निर्भर करती हैं। लेकिन इन परिस्थितियों को कष्ट सहकर भी बदलना ही पड़ेगा। इसके लिए सरकारी स्तर पर लगातार कदम उठाए जा रहे हैं।

लद्दाख में चीन के साथ झड़प में जवानों के वीरगति के प्राप्त होने की घटना के बाद देश के कुछ भागों में चीनी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग तेज हुई है। खुदरा व्यापारियों के संगठन कन्फडेरेशन ऑफ ऑल इंडिया ट्रेडर्स (कैट)- जैसे कुछ उद्योग संगठनों ने सीमा विवाद को देखते हुए चीनी सामान के बहिष्कार का आह्वान किया है। इस संगठन से देश के छह खुदरा व्यापारी जुड़े हैं। फिल्मी अभिनेताओं और खिलाड़ियों से भी चीनी उत्पादों का विज्ञापन नहीं करने की अपील की गई है। रिमूव चाइना ऐप्स कुछ दिन पहले ही लॉन्च हुआ था। थोड़े समय में ही इस ऐप को 50 लाख से ज्यादा डाउनलोड्स मिल गए थे। यह ऐप चीन में विकसित किए गए ऐप्स को स्मार्टफोन से अनइंस्टॉल करने का काम करता था। इसे प्ले स्टोर से हटाए जाने के बाद बड़ी संख्या में भारतीय यूजर्स ने अपना गुस्सा जाहिर किया। याद रहे वह एक चतुर और धूर्त व्यापारी है। मेड इन चाइना लिखित वस्तुओं के बहिष्कार से बचने के लिए और और लोगों में भ्रम पैदा करने के लिए उसने अब पीआरसी (पीपल रिपब्लिक ऑफ चाइना) लिखना शुरू कर दिया है।

भारत के ख्यात शिक्षाविद सोनम वांग्चुक ने कुछ दिनों पहले चीन को सबक सिखाने के लिए जारी वीडियो को देश भर में तीस लाख से ज्यादा लोग देख चुके हैं। स्वदेशी जागरण मंच की ओर से चलाए जा रहे स्वदेशी स्वावलम्बन डिजिटल हस्ताक्षर अभियान को देश भर में पांच लाख से ज्यादा नागरिकों ने समर्थन दिया है। ये भले ही वर्तमान में छोटे छोटे कदम के रूप में दिख रहे हैं, लेकिन आने वाले समय में ये ही हमारी शक्ति बनकर उभरेंगे। चीन जैसे विस्तारवादी देश को झुकाने में राजनैतिक कूटनीति, सामरिक शक्ति के साथ आम नागरिक का बटुआ महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। चीनी सामान को देखते ही ‘बटुआ बंद करो अभियान’ चलाकार हम ड्रेगन को घुटने टेकने पर मजबूर कर सकते हैं। क्या यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि एक तरफ सीमा पर चीन की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ हमारे सैनिक जूझते रहें और दूसरी ओर हम सस्ते के चक्कर में चीन की जेब को भरते रहें? क्या चीन की विस्तारवादी नीतियों का मुकाबला सिर्फ हमारी फौज ही करती रहेगी? क्या अब यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ हम भारत के लोग उसकी आर्थिक रीढ़ पर एक साथ करारी चोट करें।

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