ख़ामोशी में शोर गूंजता, महफ़िल में तन्हाई है (कविता)

ख़ामोशी में शोर गूंजता, महफ़िल में तन्हाई है (कविता)

दीपक आजाद

ख़ामोशी में शोर गूंजता, महफ़िल में तन्हाई है (कविता)

ख़ामोशी में शोर गूंजता, महफ़िल में तन्हाई है
आज़ादी के जश्न में यारो कैसी आफ़त छाई है।

त्यौहारों की आहट पर भी खुशियों का माहौल नहीं
गली गली में राख पड़ी है, किसने आग लगाई है।

आग लगाकर ख़ुद घर में ही, चुप्पी साधे बैठे हैं
गांधी जी का चौथा बंदर इनकी ही परछाईं है।

ऊंचा कद रखने वालों का दिल उतना ही बौना है
अक्सर प्रेम जताने वाला भीतर से हरजाई है।

दुर्जन अपनी दूरनीति से उजाड़ता है खेतों को
सज्जन का तो मौन हमेशा फसलों पे पुरवाई है।

सच की चादर ओढ़े देखो झूठ नाचता सड़कों पर
बे-ईमानों की महफ़िल में बजती रोज़ शहनाई है।

लोकतंत्र के चारों खंभे, गुमसुम से बेहोश पड़े
खद्दरधारी कुछ लोगों ने शब भर मय छलकाई है।

उसका अपना वक़्त तुम्हारी नक्काशी में बीत गया
तुम कहते हो ये दुनिया बदसूरत किसने बनाई है।

कैसी कैसी शर्तों पर जनता जीवन काट रही
इन सत्तर सालों में किसने आज़ादी भटकाई है।

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