खालिस्तान कॉन्सपिरेसी और कांग्रेस
बलबीर पुंज
खालिस्तान कॉन्सपिरेसी और कांग्रेस
त्रासदीपूर्ण ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ (4-8 जून, 1984) को इस सप्ताह 39 वर्ष पूरे हो गए। अतः इस भयावह घटनाक्रम पर कुछ सुलगते प्रश्नों का उत्तर खोजना स्वाभाविक है। किसने हिंदू-सिख संबंधों में कड़वाहट पैदा की? सदियों पहले सिख गुरुओं और उनकी परंपरा से निकले सच्चे अनुयायियों ने इस्लामी आक्रांताओं से भारतीय संस्कृति की रक्षा हेतु अपने प्राणों का बलिदान दिया था, उस पंथ के बीच विकृत ‘खालिस्तान विमर्श’ कैसे जन्मा? जो पंजाब 1970 के दशक तक शांत था, वहां 1980-90 के दौर में हिंदुओं को चिन्हित करके राह चलते और बसों-ट्रेनों से निकालकर क्यों गोलियों से भूना जाने लगा? क्यों पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख सुरक्षाकर्मियों ने नृशंस हत्या कर दी? इसके तत्काल बाद दिल्ली सहित देश के कई हिस्सों में किस राजनीतिक दल के नेतृत्व में असामाजिक तत्वों ने हजारों निरपराध सिखों का नरसंहार किया, उनकी संपत्तियां लूटीं या जला दीं?
इन सब प्रश्नों के उत्तरों को दो पंक्तियों में समाहित किया जा सकता है। इस घटनाक्रम के मूल में— क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ और देश की कीमत पर सत्ता को हथियाने का षड्यंत्र था। वर्षों से राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि कांग्रेस ने पंजाब में अकाली दल को हाशिए पर पहुंचाने हेतु भिंडरांवाले के रूप में एक अतिवादी सिख नेतृत्व को प्रोत्साहित किया था। इसी कलंकित अध्याय का उल्लेख, एक गैर-राजनीतिक प्रत्यक्षदर्शी, समकालीन आईपीएस अधिकारी और भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रिसर्च एंड एनालिसिस विंग’ (रॉ) में 26 वर्ष जुड़े रहने के बाद विशेष सचिव के रूप में सेवानिवृत हुए, गुरबख्श सिंह सिधू ने अपनी पुस्तक “द खालिस्तान कॉन्सपिरेसी (The Khalistan Conspiracy)” में किया है।
अपनी पुस्तक में गुरबख्श लिखते हैं, “…वर्ष 1977 के पंजाब (विधानसभा) चुनाव में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में अकाली दल-जनता पार्टी गठबंधन से कांग्रेस हार गई थी। इसके तुरंत बाद, मुझे पूर्व मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह और संजय गांधी द्वारा जरनैल सिंह भिंडरावाले के समर्थन से अकाली दल के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को अस्थिर करने के प्रयासों की जानकारी मिली…।”
“…ज्ञानी जैल सिंह ने संजय गांधी को सलाह दी कि पंजाब में अकाली दल-जनता पार्टी गठबंधन सरकार को अस्थिर किया जा सकता है, यदि उनकी उदारवादी नीतियों पर… एक उपयुक्त सिख संत द्वारा लगातार हमला किया जाए। यदि एक कट्टर सिख नेता उनके प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरता है, तो अकाली नेता अपने समर्थन को बनाए रखने हेतु सिख हितों पर समझौता नहीं करने हेतु विवश हो जाएंगे। उदारवादी अकाली नेताओं की नीतियों में आने वाला यह बदलाव, स्वाभाविक रूप से जनता दल के नेताओं को पसंद नहीं आएगा। …प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की स्वीकार्यता मिलने के बाद संजय गांधी और उनके सहयोगी कमलनाथ द्वारा दर्शन प्रकाश गुरुद्वारा के जरनैल सिंह भिंडरांवाले को संत के रूप में चुना गया। …जून 1980 में संजय की मृत्यु के बाद, उनके बड़े भाई राजीव गांधी ने जिम्मेदारी संभाली…।” 1980 के लोकसभा चुनाव में भिंडरांवाले खुलकर पंजाब में कांग्रेस प्रत्याशियों का प्रचार कर रहा था, तो कुछ कांग्रेस उम्मीदवार भिंडरांवाले की तस्वीर अपने पोस्टरों में लगा रहे थे।
प्रारंभिक असफलता के बाद कांग्रेसी प्रपंच ने पंजाब को अनियंत्रित अराजकता और रक्तपात में धकेल दिया। बकौल जीबीएस सिधू, अप्रैल 1982 के पहले सप्ताह में कांग्रेस समर्थित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन समिति के तत्कालीन अध्यक्ष संतोख सिंह के निमंत्रण पर भिंडरांवाले दिल्ली आया था। तब वह अपने दर्जनों समर्थकों के साथ दो बसों में सवार था। भिंडरांवाले के कई समर्थक बसों की छत पर बैठकर अपने हथियारों को लहराते हुए दिल्ली के चक्कर लगा रहे थे। स्वयं जीबीएस ने दिल्ली स्थित कनॉट प्लेस में इस जुलूस को गुजरते देखा था। सिधू के अनुसार, यह सब सिखों के बीच भिंडरांवाले का कद बढ़ाने और दिल्ली में हिंदुओं के मन में भय पैदा करने के लिए किया गया था।
कांग्रेस द्वारा इस विभाजनकारी राजनीतिक समर्थन का परिणाम यह हुआ कि भिंडरांवाले ने अमृतसर स्थित श्रीहरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) को अपना अड्डा बना लिया। चूंकि खालिस्तान की परिकल्पना विदेशी है और इसे शत-प्रतिशत भारतीय सिखों का समर्थन नहीं मिलता, इसलिए तब भिंडरांवाले के निर्देश पर निरापराध हिंदुओं के साथ देशभक्त सिखों को भी चिन्हित करके मौत के घाट उतारा जाने लगा। कालांतर में इंदिरा सरकार के निर्देश पर हुए ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ ने स्वर्ण मंदिर की मर्यादा भंग कर दी, जिसने श्रद्धालुओं के मन को गहरा आघात पहुंचाया। परिणामस्वरूप, 31 अक्टूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख अंगरक्षकों ने गोली मारकर हत्या कर दी, तो इसकी प्रतिक्रिया में हजारों निरपराध सिखों को मौत के घाट (जीवित जलाने सहित) उतार दिया गया। इस प्रायोजित रक्तपात को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में न्यायोचित ठहराते हुए राजीव गांधी ने कहा था, “जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती थोड़ी हिलती है।” यह ठीक है कि कांग्रेस प्रदत्त इको-सिस्टम ने खालिस्तान विमर्श को हवा दी, तो पाकिस्तान आज भी इसका सबसे बड़ा पोषक बना हुआ है। परंतु इसका विषाक्त दर्शन, अविभाजित कांग्रेस के जन्म (1885) से भी पुराना है, जिसकी उत्पति भी अंग्रेजों ने, ‘बांटो और राज करो’ कुनीति के अंतर्गत, 1857 के विद्रोह की पुनरावृति से बचने हेतु की थी।
एक पुरानी लोकोक्ति है— “जो इतिहास से सबक नहीं लेते, वो उसे दोहराने को अभिशप्त होते हैं।” क्या हमने ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ को जन्म देने वाली विभाजनकारी मानसिकता और उसके दुर्भाग्यपूर्ण परिणामों से कोई सबक सीखा है?— शायद नहीं। सत्ता की भूख और कपट, अक्सर समाज को अकल्पनीय विपदा की ओर ले जाता है। इसका शिकार वे लोग भी होते हैं, जो तात्कालिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु ऐसे आत्मघाती चक्रव्यूहों की रचना करते हैं।
दुर्भाग्य से कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष का एक हताश वर्ग, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को किसी भी तरह सत्ता से बेदखल करने हेतु 1977-84 जैसी विभाजनकारी ‘टूलकिट’ का सहारा ले रहा है। भारतीय राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी का उदय, देश को निराशा से मुक्त करने का सफल प्रयास, भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान, विश्व-स्तरीय आधारभूत ढांचे का निर्माण और दुनिया में भारत का बढ़ता कद— देशविरोधी शक्तियों (जिहादियों और स्वयंभू वाम-उदारवादियों सहित) को व्याकुल कर रहा है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं)