भारतीय आर्थिक दर्शन के सहारे आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय आर्थिक दर्शन के सहारे आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था

प्रहलाद सबनानी

 भारतीय आर्थिक दर्शन के सहारे आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्थाभारतीय आर्थिक दर्शन के सहारे आगे बढ़ती भारतीय अर्थव्यवस्था

एंगस मेडिसन दुनिया के जाने माने ब्रिटिश अर्थशास्त्री इतिहासकार रहे हैं। उन्होंने विश्व के कई देशों के आर्थिक इतिहास पर गहरा अनुसंधान कार्य किया है। भारत के संदर्भ में उनका कहना है कि एक ईस्वी के पूर्व से लेकर 1700 ईस्वी तक भारत पूरे विश्व में सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में स्थापित था। प्राचीन भारत में अतुलनीय आर्थिक प्रगति, भारतीय आर्थिक दर्शन के अनुसार चलायी जा रही आर्थिक नीतियों के चलते ही सम्भव हो सकी थी। भारत में पिछले 9 वर्षों के दौरान भारतीय आर्थिक दर्शन के सहारे किए गए कई आर्थिक निर्णयों के चलते भारतीय अर्थव्यवस्था का इंजन पुनः अब तेज गति से पटरी पर दौड़ने लगा है। लगभग समस्त अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान भी लगातार बता रहे हैं कि आगे आने वाले समय में भारत में आर्थिक विकास की दर पूरे विश्व में सबसे अधिक रहने वाली है एवं आर्थिक क्षेत्र में केवल वर्तमान दशक ही नहीं बल्कि वर्तमान सदी भी भारत की रहने वाली है।

भारत में 60, 70 एवं 80 के दशकों में लगभग हम सभी नागरिक अपने बचपन से सुनते आए हैं कि भारत एक गरीब देश है, भारतीय नागरिक अति गरीब हैं। हालांकि भारत का प्राचीनकाल बहुत उज्जवल रहा है, परंतु आक्रांताओं एवं ब्रिटेन ने अपने शासनकाल में भारत को लूटकर एक गरीब देश बना दिया था। अब समय का चक्र पूर्णतः घूमते हुए आज के खंडकाल पर आकर खड़ा हो गया है एवं भारत पूरे विश्व को कई मामलों में अपना नेतृत्व प्रदान करता दिखाई दे रहा है। साथ ही, भारत में विशेष रूप से कोरोना महामारी के बीच एवं इसके बाद केंद्र सरकार द्वारा सनातन भारतीय संस्कारों का पालन करते हुए गरीब वर्ग के लाभार्थ चलाए गए विभिन्न कार्यक्रमों के परिणाम अब सामने आने लगे हैं। विशेष रूप से प्रधानमंत्री गरीब अन्न कल्याण योजना के अंतर्गत देश के 80 करोड़ नागरिकों को मुफ्त अनाज की जो सुविधा प्रदान की गई है एवं इसे कोरोना महामारी के बाद भी जारी रखा गया है, इसके परिणामस्वरूप देश में गरीब वर्ग को बहुत लाभ हुआ है।

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भारत में गरीबी के अनुमान पर एक वर्किंग पेपर जारी किया है। इस वर्किंग पेपर में अलग अलग मान्यताओं के आधार पर भारत में गरीबी को लेकर अनुमान व्यक्त किए गए हैं। इस वर्किंग पेपर के अनुसार, हाल ही के समय में भारत में 1.2 करोड़ नागरिक अति गरीबी रेखा के ऊपर आ गए हैं। वर्ष 2022 में विश्व बैंक द्वारा जारी किए गए एक अन्य प्रतिवेदन के अनुसार, वर्ष 2011 में भारत में 22.5 प्रतिशत नागरिक गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने को विवश थे। परंतु वर्ष 2019 में यह प्रतिशत घटकर 10.2 रह गया है। वर्ष 2016 में भारत में अति गरीब वर्ग की जनसंख्या 12.4 करोड़ थी, जो वर्ष 2022 में घटकर 1.5 करोड़ रह गई है। पिछले दो दशकों के दौरान भारत में 40 करोड़ से अधिक नागरिक गरीबी रेखा से ऊपर आ गए हैं। दरअसल पिछले लगभग 9 वर्षों के दौरान भारत के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में कई बड़े बदलाव देखने को मिले हैं। जिसके चलते भारत में गरीबी तेजी से कम हुई है और भारत को गरीबी उन्मूलन के मामले में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त हुई है।

भारत में अति गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले करोड़ों नागरिकों का इतने कम समय में गरीबी रेखा के ऊपर आना विश्व के अन्य देशों के लिए एक सबक है। इतने कम समय में किसी भी देश में इतनी संख्या में लोग अपनी आर्थिक स्थिति सुधार पाए हैं, ऐसा कहीं नहीं हुआ है। भारत में गरीबी का जो बदलाव आया है वह धरातल पर दिखाई देता है। इससे पूरे विश्व में भारत की छवि बदल गई है।

ये भी सनातनी संस्कार ही हैं, जो भारत के नागरिकों को छोटी छोटी बचतें करना सिखाते हैं। भारतीय परम्पराओं के अनुसार हमारे बुजुर्ग हमारे अंदर बचत की प्रवृत्ति बचपन से ही यह कहकर विकसित करते हैं कि भविष्य में आड़े अथवा बुरे वक्त के दौर में, पुराने समय में की गई बचत का बहुत बड़ा सहारा मिलता है। भारतीय परिवारों में तो गृहणियां घर खर्च के लिए उन्हें प्रदान की गई राशि में से भी बहुत छोटी राशि की बचतें करने का गणित जानती हैं एवं वक्त आने पर अपने परिवार के सदस्यों को उक्त बचत की राशि सौंप कर संतोष का भाव जागृत करती हैं। जबकि अन्य देशों के नागरिकों में, विशेष रूप से विकसित देशों में, बचत की आदत नहीं के बराबर होती है।

पश्चिमी दर्शन पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करता है। अतः पश्चिमी देशों के नागरिक अपने जीवन को आज ही जी लेना चाहते हैं, कल (भविष्य) पर अधिक भरोसा नहीं करते हैं। इसलिए, पश्चिमी देशों के नागरिक उत्पादों का अधिक से अधिक उपभोग करते हैं एवं अपनी लगभग पूरी आय ही उपभोग पर खत्म कर देते हैं, बचत करने की आवश्यकता ही नहीं अनुभव करते हैं। इसके विपरीत भारतीय दर्शन अध्यात्म पर आधारित है एवं जीवन में अच्छे कर्मों को करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करने का प्रयास किया जाता है। अतः इस लोक एवं परलोक को सुधारने के लिए समाज के गरीब वर्ग की सहायता करने की प्रवृत्ति भारतीय नागरिकों में पाई जाती है। भारतीय नागरिक इसलिए छोटी से छोटी बचतों पर भी बहुत विश्वास करते हैं। इसी कड़ी में, वर्ष 2014 में केंद्र सरकार ने भारत में गरीब वर्ग के नागरिकों को बैकों से जोड़ने के लिए जनधन योजना प्रारम्भ की थी। इस योजना के अंतर्गत अभी तक लगभग 50 करोड़ बचत खाते विभिन्न बैकों में खोले जा चुके हैं एवं छोटी छोटी बचतों को जोड़कर लगभग 2 लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि इन खातों में जमा की जा चुकी है। भारत ने इस संदर्भ में पूरे विश्व को ही राह दिखाई है। यह बचत गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों को कल का मध्यम वर्ग बनाएगी। इससे देश में विभिन्न उत्पादों का उपभोग बढ़ेगा तथा देश की आर्थिक उन्नति की गति भी तेज होगी। यह भारतीय सनातन संस्कारों के चलते ही सम्भव हो पाया है। भारत में परिवार अपने खर्चों को संतुलित करते हुए भविष्य के लिए बचत आवश्यक समझते हैं।

एक और क्षेत्र जिसमें भारतीय दर्शन ने पूरे विश्व को राह दिखाई है, वह है मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण स्थापित करना। दरअसल, मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के लिए विकसित देशों द्वारा ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते जाना, अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को विपरीत रूप से प्रभावित करता नजर आ रहा है, जबकि इससे मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण होता दिखाई नहीं दे रहा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में अब पुराने सिद्धांत भोथरे साबित हो रहे हैं। और फिर, केवल मुद्रा स्फीति को नियंत्रित करने के उद्देश्य से ब्याज दरों में लगातार वृद्धि करते जाना ताकि बाजार में वस्तुओं की मांग कम हो, एक नकारात्मक निर्णय है। इससे देश की अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उत्पादों की मांग कम होने से, कम्पनियों का उत्पादन कम होता है, देश में मंदी फैलने की सम्भावना बढ़ने लगती है, इससे बेरोजगारी बढ़ने का खतरा पैदा होने लगता है, सामान्य नागरिकों की ईएमआई में वृद्धि होने लगती है, आदि। अमेरिका में कई कम्पनियों ने इस वातावरण में अपनी लाभप्रदता बनाए रखने के लिए 2 लाख से अधिक कर्मचारियों की छंटनी करने की घोषणा की है। किसी नागरिक को बेरोजगार कर देना एक अमानवीय कृत्य ही कहा जाएगा। और फिर, अमेरिका में ही इसी वातावरण के बीच तीन बड़े बैंक फेल हो गए हैं। यदि इस प्रकार की परिस्थितियां अन्य देशों में भी फैलती हैं तो पूरे विश्व में ही मंदी की स्थिति छा सकती है। पश्चिम की उक्त व्यवस्था के ठीक विपरीत, भारतीय आर्थिक चिंतन में विपुलता की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचा गया है, अर्थात अधिक से अधिक उत्पादन करो – “शतहस्त समाहर, सहस्र हस्त संकिरः” (सौ हाथों से संग्रह करके हजार हाथों से बांट दो) – यह हमारे शास्त्रों में भी बताया गया है। विपुलता की अर्थव्यवस्था में अधिक से अधिक नागरिकों को उपभोग्य वस्तुएं आसानी से उचित मूल्य पर प्राप्त होती रहती हैं, इससे उत्पादों के बाजार भाव बढ़ने के स्थान पर घटते रहते हैं। भारतीय वैदिक अर्थव्यवस्था में उत्पादों के बाजार भाव लगातार कम होने की व्यवस्था है एवं मुद्रा स्फीति के बारे में तो भारतीय शास्त्रों में शायद कहीं कोई उल्लेख भी नहीं मिलता है। भारतीय आर्थिक चिंतन व्यक्तिगत लाभ केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्थान पर मानवमात्र के लाभ को केंद्र में रखकर चलने वाली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है।

आज विश्व के लगभग 50 से अधिक देशों में भारतीय मूल के नागरिकों की संख्या प्रभावशाली स्तर पर पहुंच गई है एवं भारतीय मूल के नागरिक इन देशों, विकसित देशों सहित, की अर्थव्यवस्थाओं में अपनी प्रभावी भूमिका निभाते हुए अपने लिए भी उल्लेखनीय सफलता अर्जित कर रहे हैं। जब अमेरिका में भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों की उल्लेखनीय सफलता के पीछे कारण खोजने का प्रयास किया गया तो निम्नलिखित कारण ध्यान में आए हैं।

भारतीय संस्कारों के अनुसार, भारतीय माता पिता अपने बच्चों के लिए अपने हितों का त्याग करते पाए जाते हैं। भारतीय माताएं अपने व्यावसायिक कार्य के प्रति जुनून को अपने बच्चों के हित में त्याग देती हैं। इसी प्रकार, भारतीय पिता अपने व्यवसाय में अपने बच्चों के हित में कई प्रकार के समझौते करते हैं। अतः भारतीय माता पिता के लिए अपने बच्चों का लालन पालन सबसे बड़ी प्राथमिकता बन जाती है। भारतीय माता पिता अपने जीवन के व्यस्ततम पलों में भी सबसे उत्कृष्ट समय अपने बच्चों के विकास पर खर्च करते हैं। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों द्वारा अपने बच्चों को अमरीका में अभी भी भारतीय संस्कारों के अनुसार ही पाला पोसा जाता है।

भारतीय माता पिता अपने बच्चों में बचपन से ही विश्वास का भाव जगाते हैं। वे स्वयं भी अपने बच्चों पर विश्वास करते हैं एवं उन्हें भी समाज के अन्य वर्गों के प्रति विश्वास करना सिखाते हैं। बच्चों में विकसित किए गए इस विश्वास के चलते माता पिता अपने बच्चों के सबसे अच्छे मित्र बन जाते हैं एवं बच्चे अपने माता पिता के साथ अपने जीवन की समस्त बातों को साझा करने में डरते नहीं हैं।

भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक, अमेरिका में भी संयुक्त परिवार के रूप में एक ही मकान में रहते हैं। इससे इनके पारिवारिक व्यवसाय को विकसित करने एवं तेजी से उन्नति करने में बहुत आसानी होती है। साथ ही, संयुक्त परिवार के रूप में रहने से तुलनात्मक रूप से पारिवारिक खर्चे भी कम होते हैं।

अमेरिका में वैवाहिक जीवन के मामले में भी भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बहुत संतुष्ट एवं सुखी पाए जाते हैं। इसे विवाह के बाद दिए जाने वाले तलाक सम्बंधी आंकड़ों के माध्यम से आंका गया है। अमेरिका में सबसे अधिक तलाक की दर अमेरिकी काले नागरिकों के बीच 28.8 प्रतिशत है, अमेरिकी गोरे नागरिकों के बीच यह 15.1 प्रतिशत है, परंतु भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों के बीच यह केवल 1.3 प्रतिशत है (हालांकि कुछ सर्वे में यह 6 प्रतिशत भी आंकी गई है), जो कि समस्त अन्य देशों के नागरिकों के बीच सबसे कम दर है। यह भारतीय संस्कारों का ही परिणाम है।

भारतीय माता पिता अपने बच्चों को भारतीय सामाजिक मान्यताओं से बचपन में ही परिचित कराते है एवं वे अपने बच्चों को अपने नाते रिश्तेदारों एवं जान पहिचान के परिवारों में विभिन्न आयोजनों में भाग लेना सिखाते हैं एवं इनसे सम्बंध स्थापित करना सिखाते हैं। वे अपने बच्चों को, उनका विवाह हो जाने तक, अपने पास ही रखते हैं। बहुत से भारतीय परिवार तो अपने बच्चों का विवाह हो जाने के बाद भी उनके परिवार को संयुक्त परिवार के रूप में अपने साथ ही रखना पसंद करते हैं। इससे बच्चों को मानसिक सहयोग प्राप्त होता है एवं वे भारतीय संस्कारों एवं सामाजिक संस्कारों को सीखते हैं। बचपन में ही, बच्चों को संयुक्त परिवार में रहने की शिक्षा दी जाती है। बच्चे अपने माता पिता के व्यवहार देखकर ही भारतीय संस्कार भी सीखते हैं। इसके ठीक विपरीत अमेरिकी मूल के नागरिक अपने बच्चों को उनकी 18 वर्ष की आयु प्राप्त होते ही अपने से अलग कर देते हैं एवं उन्हें अपना अलग घर बसाना होता है। बच्चे अपने बुजुर्ग माता पिता की देखभाल भी करना पसंद नहीं करते हैं क्योंकि पश्चिम के संस्कार ही कुछ इस तरह के हैं।

भारतीय मूल के अमेरिकी माता पिता अपने बच्चों में बचपन में ही, बच्चों के रुझान को पहचानकर उसी क्षेत्र में उनका कौशल विकसित करते हैं ताकि बच्चे भविष्य में उसी क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकें। साथ ही, भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक अपने बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं एवं बच्चों की गतिविधियों पर भी पूरी दृष्टि रखते हैं ताकि उनके बच्चे किसी गलत राह पर न चल पड़ें। वे अपने बच्चों में बचपन में ही महान सनातन हिंदू संस्कृति, संस्कारों, परम्पराओं एवं विरासत का संवर्धन करते हैं। भारत में समस्त धर्मों को मानने वाले नागरिक आपस में मिलजुल कर रहते हैं, अतः अमेरिका में भी भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक बहुत संतोषी, शांतिप्रिय, मेहनती, अपने इरादों में पक्के एवं अपनों से बड़ों का आदर करने वाले पाए जाते हैं। वे किसी भी प्रकार के वाद विवाद से अपने आप को दूर ही रखना पसंद करते हैं।

अमेरिका सहित अन्य विकसित देशों में भारतीय मूल के नागरिकों की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं अन्य क्षेत्रों में अपार सफलता देखकर अब तो पूरा विश्व ही भारतीय संस्कारों को अपनाने के लिए लालायित होता दिखाई देने लगा है।

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