गृहयुद्ध की धमकी, एक नए खतरे का संदेश
बलबीर पुंज
आखिर पाकिस्तान का निर्माण क्यों हुआ? भारत के विभाजन में साम्राज्यवादी ब्रिटेन और वामपंथियों की सक्रिय भूमिका सर्वविदित है। परंतु क्या अंग्रेज और कम्युनिस्ट अपने इस वीभत्स खेल में स्थानीय सहयोग के बिना सफल हो सकते थे, जो उन्हें तत्कालीन भारत के मुस्लिम समाज के एक बहुत बड़े भाग से प्राप्त हुआ था? इसी विभाजनकारी मानसिकता को हम बॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता नसीरुद्दीन शाह के एक हालिया साक्षात्कार में देख सकते हैं, जो उन्होंने एक विशुद्ध वामपंथी वेबपोर्टल को दिया है। इस बार उन्होंने मुसलमानों को नरसंहार का भय दिखाते हुए गृहयुद्ध की बात कही है। इसके अतिरिक्त उन्होंने इस्लामी आक्रांता मुगलों को ‘शरणार्थी’ और राष्ट्र निर्माण में योगदान देने वाला बताया है। यही नहीं, नसीरुद्दीन की दृष्टि में अयोध्या और काशी का विकास, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपनी व्यक्तिगत आस्था का खुला प्रदर्शन है। यूं तो मैं व्यक्तिगत रूप से नसीरुद्दीन से परिचित नहीं हूं। किंतु उनकी और उनका प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन वालों की मानसिकता से अवगत हूं।
मुगलों को नसीरुद्दीन ‘शरणार्थी’ कह रहे हैं और उन्हें देश की सभ्यता-संस्कृति में सकारात्मक और सृजनात्मक सहभागिता करने वाला बता रहे हैं। किंतु इन आक्रांताओं की सच्चाई उनके द्वारा लिखित संस्मरणों और समकालीन लेखकों के रोमहर्षक वृतांतों से स्पष्ट है। काशी, मथुरा, दिल्ली आदि देश में ऐसे कई अनगिनत स्थल हैं, जहां इस्लामी आक्रांताओं द्वारा स्थानीय लोगों की आस्था, पहचान और स्वाभिमान को कुचलने के प्रमाण- प्रत्यक्ष हैं।
यदि मुगल या विदेशों से आए अन्य इस्लामी आक्रांता नसीरुद्दीन आदि लोगों के लिए ‘अपने’ हैं, तो वे ब्रितानियों को किस पंक्ति में खड़ा करेंगे? वास्तव में, मुगल और अन्य इस्लामी शासक, मोहम्मद बिन कासिम द्वारा सन् 712 से शुरू हुई आक्रामक मजहबी परंपरा और ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा के प्रमाणित रक्तबीज थे। यही कारण है कि पाकिस्तान की आधिकारिक वेबसाइटों पर कासिम द्वारा सिंध के तत्कालीन हिंदू साम्राज्य को ध्वस्त करना, पाकिस्तान निर्माण का प्रारंभिक बिंदु बताया गया है।
सच तो यह है कि प्रत्येक इस्लामी आक्रांता, चाहे वह गोरी हो, ‘मूर्तिभंजक’ गजनी, कुतुबुद्दीन, अलाउद्दीन, तैमूर, बाबर ही क्यों न हो- वे भारत में लूटपाट की नीयत के साथ यहां की ‘काफिर’ सनातन संस्कृति और ‘कुफ्र’ मंदिरों-मानबिंदुओं को जमींदोज कर इस्लामी परचम लहराना चाहते थे, जिसे उनके अनुचरों (जहांगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान सहित) ने आगे बढ़ाया। जिन मुगलों को नसीरुद्दीन ‘शरणार्थी’ कहकर रहे हैं, उस मुगल साम्राज्य की स्थापना (1526) क्रूर बाबर ने ‘काफिर’ राणा सांगा और उनकी विशाल सेना से ‘इस्लाम की रक्षा’ हेतु ‘जिहाद’ के बल पर की थी, जिसके निर्देश पर कालांतर में कई अन्य मंदिरों के साथ अयोध्या स्थित प्राचीन राम मंदिर को भी तोड़ दिया गया था। क्या किसी ‘शरणार्थी’ या नए देश में आकर बसने वाले किसी व्यक्ति की मानसिकता ऐसी हो सकती है?
स्वतंत्रता के बाद जिस शिक्षण व्यवस्था में दशकों से इस्लामी आक्रांताओं (मुगल सहित) की वास्तविकता छिपाकर उनका यशगान किया जा रहा है, वह बाह्य मार्क्स-मैकॉले चिंतन से प्रभावित है। जब बख्तियार खिलजी अपने मानसपिता- कासिम, गोरी, गजनवी आदि के मजहबी दर्शन के साथ भारत आया, तो उसने यहां भारतीयता से परिपूर्ण कई प्राचीन विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया। इसमें उसके द्वारा 1193 में फूंका गया नालंदा विश्वविद्यालय भी शामिल है, जहां दुनियाभर से छात्र आते थे। सच तो यह है कि बख्तियार ने तब केवल विश्वविद्यालयों को ही जमींदोज नहीं किया था, अपितु उसने चिकित्सा सहित प्रत्येक क्षेत्र में भारत के शाश्वत और कालजयी बौद्धिक विरासत को मिटा दिया, जिससे कई शताब्दियों तक भारत का भविष्य दिशाहीन रहा।
अधिकांश प्रतिष्ठित यूरोपीय विश्वविद्यालय तब संचालित हुए, जब इस्लामी आक्रांता भारत के देशज विश्वविद्यालयों को नष्ट कर चुके थे। इसी बीच जब यूरोपीय शिक्षण प्रणाली प्रदत्त खोजों से औद्योगिक क्रांति का जन्म हुआ, तब भारत औपनिवेशिक मकड़जाल में फंस गया। वर्ष 1850 तक भारत में अनुसंधान, ज्ञान और शोध हेतु कोई संगठित शैक्षणिक प्रणाली नहीं थी। इस क्षेत्र में व्यक्तिगत कोशिशें तो जारी रहीं, किंतु तब संस्थागत प्रयासों का नितांत अभाव था। परिणामस्वरूप, भारत दुनिया में पिछड़ता गया।
अंग्रेजों ने 1850 में बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में तीन विश्वविद्यालय स्थापित किए थे। ब्रितानियों का मुख्य उद्देश्य इन संस्थाओं से स्थानीय लोगों को शिक्षित करना नहीं, बल्कि अपने हितों को पूरा करने वाले मानसपुत्रों को पैदा करना था। इसमें वे सफल भी हुए। इस शिक्षण प्रणाली से भारतीयों की ऐसी पीढ़ियां विकसित हुईं, जो अपनी मूल संस्कृति, पहचान से घृणा करने लगीं और मित्र-शत्रु के बीच भेद करने में बौद्धिक रूप से पंगु हो गईं। इस विकृति को कालांतर में वामपंथियों ने अपने हिंदू विरोधी दर्शन के अनुरूप तथा स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक नेतृत्व के आशीर्वाद से और अधिक सुदृढ़ कर दिया। परिणामस्वरूप, इस्लामी आक्रांताओं का सच- अंग्रेजों के 1947 में चले जाने के दशकों बाद भी भारतीय विमर्श का हिस्सा नहीं बना।
जिस संकीर्ण चिंतन से प्रेरणा लेकर इस्लामी आक्रमणकारियों (मुगल सहित) ने मंदिरों को तोड़ा और स्थानीय संस्कृति का संहार किया- उसी मानसिकता का प्रतिबिंब पाकिस्तान है। वहां भी अधिकांश हिंदू-बौद्ध मंदिरों और कई गुरुद्वारों को धराशायी कर दिया गया, तो गैर-मुस्लिम (हिंदू-सिख सहित) नगण्य हो गए। वास्तव में, भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम समाज के एक वर्ग की भांति पाकिस्तान भी स्वयं को उन्हीं इस्लामी आक्रमणकारियों का उत्तराधिकारी मानता है, जो उसके अधिकांश मिसाइलों-युद्धपोत के नामों- गजनी, गौरी, बाबर, अब्दाली, टीपू आदि से स्पष्ट भी है।
पाकिस्तान का निर्माण किसने किया था? क्या वे ‘अपने’ नहीं थे? पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली और राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा भारत में जन्मे थे और इसी तरह जिया-उल-हक, परवेज मुशर्रफ भी थे। पाकिस्तान के 12वें राष्ट्रपति ममनून हुसैन का जन्म भी आगरा में हुआ था। विभाजन से पहले 1946 में हुआ चुनाव और उसका परिणाम एक प्रकार से जनमत संग्रह था, जिसमें अधिकांश मुसलमानों ने इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान मांग रहे मुस्लिम लीग का खुलकर समर्थन किया था। तब लीग ने 492 मुस्लिम आरक्षित सीटों में से 87 प्रतिशत स्थानों अर्थात्- 429 सीटों पर विजय प्राप्त की थी। लीग द्वारा अधिकांश जीती हुई सीटें वर्तमान भारत में थीं। तब पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्नाह ने भी वर्तमान पाकिस्तान के किसी क्षेत्र- लाहौर, रावलपिंडी, पेशावर, सिंध या फिर अपनी जन्मभूमि कराची से नहीं, बल्कि बॉम्बे की बायकुला सीट से चुनाव लड़ा था और विजयी हुए थे। दिलचस्प बात यह भी है कि विभाजन से पहले जो लोग पाकिस्तान की मांग कर रहे थे, उनमें से कई खंडित भारत में ही रह गए।
क्या मुस्लिम समाज के भीतर ‘गृहयुद्ध’ का उल्लेख पहली बार हुआ है? वर्ष 1937 के प्रांतीय चुनाव में मुस्लिम लीग की पराजय से हताश मुहम्मद इकबाल ने 28 मई 1937 को जिन्नाह को खत लिखा और कहा था, “…स्वतंत्र मुस्लिम राज्य के बिना इस देश में इस्लामी शरीयत का पालन और विकास संभव नहीं.. यदि ऐसा नहीं हुआ तो गृहयुद्ध केवल अन्य विकल्प है…। क्या यह सत्य नहीं कि वर्ष 2014 से जिहादियों-वामपंथियों-उदारवादियों की ‘सेकुलर’ लामबंदी के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो बार प्रचंड पूर्ण बहुमत मिला है, जिसकी खीज नागरिक संशोधन अधिनियम (2019-20) विरोधी उग्र प्रदर्शन और किसान आंदोलन (2020-21) के दौरान हुई हिंसा में दिख चुकी है? सात दशक बाद फिर से ‘गृहयुद्ध’ की धमकी- क्या नए खतरे का संकेत नहीं है?