खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता : क्या जीएम सरसों ही एकमात्र विकल्प?

खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता : क्या जीएम सरसों ही एकमात्र विकल्प?

डॉ. मनोज मोरारका

खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता : क्या जीएम सरसों ही एकमात्र विकल्प?खाद्य तेलों में आत्मनिर्भरता : क्या जीएम सरसों ही एकमात्र विकल्प?

आधुनिक तकनीकों ने हमारे भोजन को काफी सीमा तक बदल दिया है। हम ताजे से प्रोसेस्ड फूड पर आ गए हैं, जो विभिन्न कारणों से बीमारियों का कारण बना है। इस प्रकार यदि केवल प्रोसेस्ड फूड ही भोजन की गुणवत्ता को बदल सकता है तो सोचिए कि यदि हम भोजन के डीएनए को बदल दें तो क्या होगा?

जेनेटीकली मॉडीफाइड फसलें हमेशा चर्चा का विषय रही हैं। आजकल जीएम सरसों पर बहस चल रही है। भारत खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भर नहीं है। हम इसका पर्याप्त उत्पादन नहीं करते हैं। इसका 70 प्रतिशत से अधिक विदेशों से आता है। जबकि 1995-96 तक हम खाद्य तेल में आत्मनिर्भर थे। फिर हमारे सिस्टम में ऐसा क्या गलत है, जिसने हमें इस क्षेत्र में विकलांग बना दिया है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि खाद्य तेल क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सोचने और कार्रवाई करने का समय आ गया है, लेकिन क्या जीएम (जेनेटिकली मॉडिफाइड) सरसों ही इसका एकमात्र विकल्प है?

जीएम यानि किसी जीन की आनुवंशिकी में परिवर्तन फिर वह चाहे प्राकृतिक हो या मानव निर्मित। हमें यह याद रखना चाहिए कि हम इस ग्रह पर बहुत नए हैं और आधुनिक मानव जैविक रूप से 1.5 मिलियन वर्षों से लगभग एक जैसा ही है। यह अलग बात है कि इस दौरान हमारे भोजन व भोजनचर्या में अनेक परिवर्तन आए हैंहम ताजे से प्रोसेस्ड फूड पर आ गए हैं, जो विभिन्न कारणों से बीमारियों का कारण बना है। अब यदि केवल प्रोसेस्ड फूड ही भोजन की गुणवत्ता को इतना बदल सकता है तो सोचने वाली बात है कि यदि हम भोजन के डीएनए को बदल दें तो क्या होगा?

जेनेटिकली चेंज्ड प्रोडक्ट हमारे लिए कोई नई बात नहीं हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हमारी प्राचीन परंपराओं ने हमें आनुवंशिक रूप से दोषपूर्ण भोजन का उपयोग करने के लिए हमेशा प्रतिबंधित किया है, भले ही यह एक प्राकृतिक दोष हो। अधिकांश भारतीय परिवार अभी भी जुड़वां केला, बैंगन या पपीता या ऐसे किसी भी खाद्य उत्पाद के उपयोग से बचते हैं, जो आनुवंशिक दोष का आभास देते हैं। इसका सेवन केवल प्रतिबंधित नहीं था, बल्कि यह किसी भी वंचित इंसान को भी नहीं दिया जाता था। इसका उपयोग केवल भगवान को अर्पित करने तक ही सीमित था। हो सकता है कि हमने इसके पीछे अपना प्राचीन विज्ञान खो दिया हो और इसे अंधविश्वासी कृत्य के श्रेणी में टैग किया हो। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा प्राचीन ज्ञान विज्ञान प्रेरित रहा है।

सरसों हमारे लिए सिर्फ भोजन नहीं है, यह उससे कहीं अधिक है। यह कई स्वास्थ्य समस्याओं के लिए हमारी दवा है। इसके बिना धार्मिक अनुष्ठान पूरे नहीं होते। यह हमारी पहचान है, क्योंकि हम इसके तेल में तीखी गंध लाने की प्रक्रिया जानते थे। क्या इस आनुवंशिक रूप से दूषित या तथाकथित आनुवंशिक रूप से संशोधित सरसों में ऐसी सभी विशेषताएं होंगी?

मानव स्वास्थ्य के अलावा जीएम सरसों का हमारी अर्थव्यवस्था, किसानों, निर्यात और पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसके दूरगामी परिणामों पर भी गहराई से सोचना होगा। कई गैर सरकारी संगठनों और शिक्षाविदों ने इसका विरोध किया है। उनका मानना है कि जीएम सरसों की शुरुआत से मधुमक्खियों जैसे कीट पतंगों को खतरा हो सकता है। दूसरी ओर यदि विदेशी कंपनियों के पास इन बीजों के विकास और विपणन का विशेषाधिकार होगा तो भारत की खाद्य सुरक्षा अंततः इन विदेशी संस्थानों की सनक और शौक पर निर्भर हो सकती है। मेरी दृष्टि में यदि जीएम फसलों को स्वीकार करने के एक हजार कारण हैं और उनकी अस्वीकृति के लिए एक, तो हमें दूसरे विकल्प के साथ जाना चाहिए। रूस के पूर्व राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने कहा था कि यदि अमेरिकी जीएमओ उत्पादों को खाना पसंद करते हैं तो उन्हें खाने दें। हमें ऐसा करने की आवश्यकता नहीं है। हमारे पास जैविक भोजन के उत्पादन के लिए पर्याप्त स्थान और अवसर हैं। यदि रूस ऐसा कह सकता है तो भारत क्यों नहीं? उल्लेखनीय है, जीएम फसलों में पादप कोशिकाओं के डीएनए में कुछ इस तरह बदलाव किए जाते हैं कि वे कुछ विशेष खरपतवारों और रोगों को लेकर प्रतिरोधी बन जाती हैं। 

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