वामपंथी इतिहासकारों ने मुगलों को महान दिखाने के लिए महाराणाओं की छवि धूमिल की

वामपंथी इतिहासकारों ने मुगलों को महान दिखाने के लिए महाराणाओं की छवि धूमिल की

वामपंथी इतिहासकारों ने मुगलों को महान दिखाने के लिए महाराणाओं की छवि धूमिल की   वामपंथी इतिहासकारों ने मुगलों को महान दिखाने के लिए महाराणाओं की छवि धूमिल की

आजकल भारत में बहुत से लोगों की एक सोच बन गई है कि राजपूतों ने लड़ाइयां तो लड़ीं, लेकिन वे हारे हुए योद्धा थे, जो कभी अलाउद्दीन से हारे, कभी बाबर से हारे, कभी अकबर से, तो कभी औरंगज़ेब से…। ऐसे लोग महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान जैसे कालजयी योद्धाओं को महान तो कहते हैं, लेकिन उनके मन में कहीं न कहीं पराजय की टीस रहती है। जबकि प्रश्न उठता है कि यदि हमारे पूर्वज युद्ध हारते ही रहे, तो हम 1200 वर्षों से जीवित कैसे हैं?

महाराणा प्रताप के बारे में ऐसी पंक्तियाँ गर्व के साथ सुनाई जाती हैं :-

“जीत हार की बात न करिए,
संघर्षों पर ध्यान करो।”

“कुछ लोग जीतकर भी हार जाते हैं,
कुछ हारकर भी जीत जाते हैं।”

जबकि इसके पीछे का सच तो यह है कि हमें वही इतिहास पढ़ाया जाता है, जिनमें हम हारे हैं, ताकि हमारा मनोबल कम हो। यह कुकृत्य वामपंथी इतिहासकारों ने पूरे मनोयोग से किया है।

मेवाड़ के राणा सांगा ने 100 से अधिक युद्ध लड़े, जिनमें वे केवल एक युद्ध में पराजित हुए और आज उसी एक युद्ध के बारे में दुनिया जानती है। उसी युद्ध से राणा सांगा का इतिहास शुरू किया जाता है और उसी पर समाप्त कर दिया जाता है।

राणा सांगा द्वारा लड़े गए खंडार, अहमदनगर, बाड़ी, गागरोन, बयाना, ईडर, खातौली जैसे युद्धों की बात आए, तो शायद हम बता नहीं पाएंगे और अगर बता भी पाए तो उतना नहीं जितना खानवा के बारे में बता सकते हैं।

भले ही खातौली के युद्ध में राणा सांगा ने अपना एक हाथ व एक पैर गंवाकर दिल्ली के इब्राहिम लोदी को दिल्ली तक खदेड़ दिया हो, लेकिन वो महत्व नहीं रखता, बयाना के युद्ध में बाबर को भागना पड़ा हो, तब भी वह गौण है।

इनके लिए महत्व रखता है तो खानवा का युद्ध, जिसमें मुगल बादशाह बाबर ने राणा सांगा को पराजित किया। सम्राट पृथ्वीराज चौहान की बात आती है तो, तराईन के दूसरे युद्ध में गौरी ने पृथ्वीराज चौहान को हराया।

तराईन का युद्ध तो पृथ्वीराज चौहान द्वारा लड़ा गया अंतिम युद्ध था, उससे पहले उनके द्वारा लड़े गए युद्धों के बारे में कितना जानते हैं हम?

इसी प्रकार महाराणा प्रताप का उल्लेख आता है तो हल्दीघाटी नाम सबसे पहले सुनाई देता है। इस युद्ध में भी अकबर को ही विजेता बताया जाता रहा, लेकिन हाल में हुए शोधों से स्पष्ट है कि विजेता महाराणा थे।

महाराणा प्रताप ने गोगुन्दा, चावण्ड, मोही, मदारिया, कुम्भलगढ़, ईडर, मांडल, दिवेर जैसे कुल 21 बड़े युद्ध जीते व 300 से अधिक मुगल छावनियों को ध्वस्त किया।

महाराणा प्रताप के समय मेवाड़ में लगभग 50 दुर्ग थे, जिनमें से लगभग सभी दुर्गों पर मुगलों का अधिकार हो चुका था व 26 दुर्गों के नाम बदलकर मुस्लिम नाम रखे गए, जैसे उदयपुर बना मुहम्मदाबाद, चित्तौड़गढ़ बना अकबराबाद आदि। फिर भी कैसे आज उदयपुर को हम उदयपुर के नाम से ही जानते हैं? इसके बारे में कोई चर्चा नहीं है।

वास्तविकता में इन 50 में से 2 दुर्गों को छोड़कर शेष सभी पर महाराणा प्रताप ने विजय प्राप्त की थी व लगभग सम्पूर्ण मेवाड़ पर दोबारा अधिकार किया था।

दिवेर जैसे युद्ध में भले ही महाराणा के पुत्र अमरसिंह ने अकबर के काका सुल्तान खां को भाले के प्रहार से कवच समेत ही क्यों न भेद दिया हो, लेकिन हमें तो मुगल महान ही पढ़ाया गया।

महाराणा अमरसिंह ने मुगल बादशाह जहांगीर से 17 बड़े युद्ध लड़े व 100 से अधिक मुगल चौकियां ध्वस्त कीं, लेकिन हमें सिर्फ यह पढ़ाया जाता है कि 1615 ई. में महाराणा अमरसिंह ने मुगलों से संधि की। यह क्यों नहीं बताया जाता कि 1597 ई. से 1615 ई. के बीच क्या क्या हुआ..!

महाराणा कुम्भा ने 32 दुर्ग बनवाए, कई ग्रंथ लिखे, विजय स्तंभ बनवाया, यह हम जानते हैं, पर क्या हम उनके द्वारा लड़े गए गिनती के 4-5 युद्धों के नाम भी बता सकते हैं?

महाराणा कुम्भा ने आबू, मांडलगढ़, खटकड़, जहांजपुर, गागरोन, मांडू, नराणा, मलारणा, अजमेर, मोडालगढ़, खाटू, जांगल प्रदेश, कांसली, नारदीयनगर, हमीरपुर, शोन्यानगरी, वायसपुर, धान्यनगर, सिंहपुर, बसन्तगढ़, वासा, पिण्डवाड़ा, शाकम्भरी, सांभर, चाटसू, खंडेला, आमेर, सीहारे, जोगिनीपुर, विशाल नगर, जानागढ़, हमीरनगर, कोटड़ा, मल्लारगढ़, रणथम्भौर, डूंगरपुर, बूंदी, नागौर, हाड़ौती समेत 100 से अधिक युद्ध लड़े व अपने पूरे जीवनकाल में किसी भी युद्ध में पराजय का मुंह नहीं देखा।

चित्तौड़गढ़ दुर्ग की बात आती है तो सिर्फ 3 युद्धों की चर्चा होती है :
1) अलाउद्दीन ने रावल रतनसिंह को पराजित किया
2) बहादुरशाह ने राणा विक्रमादित्य के समय चित्तौड़गढ़ दुर्ग जीता
3) अकबर ने महाराणा उदयसिंह को पराजित कर दुर्ग पर अधिकार किया

क्या इन तीन युद्धों के अलावा चित्तौड़गढ़ पर कभी कोई हमला नहीं हुआ? सच तो यह है कि यह सब केवल लोगों के अंदर हीनता का भाव डालने का एक प्रयास है, जिसका प्रभाव पूरे भारत में आज देखने को मिल रहा है।

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