डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के लिए ही छोड़ी थी डॉक्टरी (भाग -1)

डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के लिए ही छोड़ी थी डॉक्टरी (भाग -1)

डॉ. मनमोहन वैद्य

डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के लिए ही छोड़ी थी डॉक्टरी (भाग -1)डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी के लिए ही छोड़ी थी डॉक्टरी (भाग -1)

कुछ समय पूर्व एक पत्रकार मिलने आए। बात-बात में उन्होंने पूछा कि स्वतंत्रता आन्दोलन में संघ का सहभाग क्या था? शायद वे भी संघ के विरुद्ध चलने वाले असत्य प्रचार के शिकार थे। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया कि आप स्वतंत्रता आन्दोलन किसको मानते हैं? वे इसके लिए तैयार नहीं थे। कुछ बोल ही नहीं सके। फिर धीरे से शंकित स्वर में उन्होंने कहा, वही जो महात्मा गांधी जी ने किया था। मैंने पूछा क्या लाल, बाल, पाल त्रिमूर्ति का कोई योगदान नहीं था? क्या सुभाष बाबू की कोई भूमिका स्वतंत्रता आन्दोलन में नहीं थी? वे चुप थे। फिर मैंने पूछा कि गांधीजी के नेतृत्व में कितने सत्याग्रह हुए? वे अनजान थे। मैंने कहा कि तीन हुए- 1921, 1930 और 1942। उन्हें जानकारी नहीं थी। मैंने कहा संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने  (उनकी मृत्यु 1940 में हुई थी) संघ स्थापना से पहले (1921) और बाद के (1930) सत्याग्रह में भाग लिया था और उन्हें कारावास भी सहना पड़ा।

यह घटना इसलिए बताई कि एक योजनाबद्ध तरीके से आधा इतिहास बताने का एक प्रयास चल रहा है। भारत के लोगों को ऐसा मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है कि स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली है। और किसी ने कुछ नहीं किया। यह बात पूर्ण सत्य नहीं है। गांधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से, चरखा और खादी के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी होने का एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया और लाखों की संख्या में लोग स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ सके, यह बात सत्य है। परन्तु सारा श्रेय एक ही आन्दोलन या पार्टी को देना यह इतिहास से खिलवाड़ है, अन्य सभी के प्रयासों का अपमान है।

अब संघ की बात करनी है तो डॉ. हेडगेवार से ही करनी पड़ेगी। केशव (हेडगेवार) का जन्म 1889 का है। नागपुर में स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा 1904-1905 से शुरू हुई। उसके पहले अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता आन्दोलन का बहुत वातावरण नहीं था। फिर भी 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त स्कूल में बांटी गई मिठाई 8 साल के केशव ने ना खाकर कूड़े में फेंक दी। यह था, उसका अंग्रेजों के गुलाम होने का गुस्सा और चिढ़। 1907 में ‘वंदे मातरम्’ के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबंदी का जो अन्यायपूर्ण आदेश घोषित हुआ था, उसके विरोध में केशव ने अपने नील सिटी विद्यालय में सरकारी निरीक्षक के सामने अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों द्वारा ‘वन्दे मातरम्’ उद्घोष करवा कर विद्यालय के प्रशासन का रोष और उसकी सजा के नाते विद्यालय से निष्कासन भी मोल लिया था। डॉक्टरी पढ़ने के लिए मुंबई में सुविधा होने के बावजूद क्रांतिकारियों का केंद्र होने के नाते उन्होंने कलकत्ता को पसंद किया। वहां वे क्रांतिकारियों की शीर्षस्थ संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के विश्वासपात्र सदस्य बने थे।

1916 में डॉक्टर बनकर वे नागपुर वापस आए। उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन के सभी मूर्धन्य नेता विवाहित थे, गृहस्थ थे। अपनी गृहस्थी के लिए आवश्यक अर्थार्जन का हरेक का कोई न कोई साधन था। इसके साथ-साथ वे स्वतंत्रता आन्दोलन में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार भी ऐसा ही सोच सकते थे। घर की परिस्थिति भी ऐसी ही थी। परन्तु उन्होंने डॉक्टरी एवं विवाह नहीं करने का निर्णय लिया। उनके मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की इतनी तीव्रता और ‘अर्जेंसी’ थी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन का कोई विचार न करते हुए अपनी सारी शक्ति, समय और क्षमता राष्ट्र को अर्पित करते हुए स्वतंत्रता के लिए चलने वाले हर प्रकार के आन्दोलन से अपने आपको जोड़ दिया।

लोकमान्य तिलक पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी। तिलक के नेतृत्व में नागपुर में होने जा रहे 1920 के  कांग्रेस अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉ. हर्डीकर और डॉ. हेडगेवार को दी गई थी और उसके लिए उन्होंने 1,200 स्वयंसेवकों की भर्ती करवाई थी। उस समय डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर शहर इकाई के संयुक्त सचिव थे। उस अधिवेशन में पारित करने हेतु कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने डॉ. हेडगेवार ने ऐसे प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए। सम्पूर्ण स्वातंत्र्य का उनका सुझाव कांग्रेस ने 9 वर्ष बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत किया। इससे आनंदित होकर डॉक्टर जी ने संघ की सभी शाखाओं में (संघ कार्य 1925 में प्रारंभ हो चुका था) 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस का अभिनंदन करने की सूचना दी थी। नागपुर तिलकवादियों का गढ़ था। 1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक के देहावसान के कारण नागपुर के सभी तिलकवादियों में निराशा छा गई। बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का स्वतंत्रता आन्दोलन चला।

असहयोग आन्दोलन के समय, 1921 में, साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन के सामाजिक आधार को व्यापक करने की दृष्टि से, अंग्रेजों द्वारा तुर्किस्तान में खिलाफत को निरस्त करने से आहत मुस्लिम मन को अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जोड़ने के उद्देश्य से महात्मा गांधी ने खिलाफत का समर्थन किया। इस पर कांग्रेस के अनेक नेता तथा राष्ट्रवादी मुस्लिमों को आपत्ति थी। इसलिए, तिलकवादियों का गढ़ होने के कारण नागपुर में असहयोग आन्दोलन बहुत प्रभावी नहीं रहा। परन्तु डॉ. हेडगेवार, डॉ. चोलकर, समिमुल्ला खान आदि ने यह परिवेश बदल दिया। उन्होंने खिलाफत को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने पर आपत्ति होते हुए भी उसे सार्वजनिक नहीं किया। इसी मापदंड के आधार पर साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए उन्होंने तन-मन-धन से आन्दोलन में सहभाग लिया। व्यक्तिगत सामाजिक संबंधों से अलग हटकर उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण किया और आसपास के राजनीतिक वातावरण एवं दबंग तिलकवादियों के दृष्टिकोण की चिंता नहीं की। उन पर चले राजद्रोह के मुकदमे में उन्हें एक वर्ष का कारावास सहना पड़ा। वे 19 अगस्त, 1921 से 11 जुलाई, 1922 तक कारावास में रहे। वहां से छूटने के बाद 12 जुलाई को उनके सम्मान में नागपुर में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ था। समारोह में प्रांतीय नेताओं के साथ-साथ कांग्रेस के अन्य राष्ट्रीय नेता हकीम अजमल खां, पंडित मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ. अंसारी, विट्ठल भाई पटेल आदि डॉ. हेडगेवार का स्वागत करने के लिए उपस्थित थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति का महत्व तथा प्राथमिकता को समझते हुए भी एक प्रश्न डॉ. हेडगेवार को सतत् सताता रहता था कि, 7000 मील से दूर व्यापार करने आए मुट्ठी भर अंग्रेज, इस विशाल देश पर राज कैसे करने लगे? जरूर हममें कुछ दोष होंगे। उनके ध्यान में आया कि हमारा समाज आत्म-विस्मृत, जाति प्रान्त-भाषा-उपासना पद्धति आदि अनेक गुटों में बंटा हुआ, असंगठित और अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है, जिसका लाभ लेकर अंग्रेज यहां राज कर सके। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी समाज ऐसा ही रहा तो कल फिर इतिहास दोहराया जाएगा। वे कहते थे कि ‘नागनाथ जाएगा तो सांपनाथ आएगा’। इसलिए इस अपने राष्ट्रीय  समाज को आत्मगौरव युक्त, जागृत, संगठित करते हुए सभी दोष, कुरीतियों से मुक्त करना और राष्ट्रीय गुणों से युक्त करना अधिक मूलभूत आवश्यक कार्य है और यह कार्य राजनीति से अलग, प्रसिद्धि से दूर, मौन रहकर सातत्यपूर्वक करने का है, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ। उस हेतु 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ स्थापना के पश्चात् भी सभी राजनीतिक या सामाजिक नेताओं, आन्दोलन  एवं गतिविधि के साथ उनके समान नजदीकी के और आत्मीय संबंध थे।

1930 में गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन 6 अप्रैल को दांडी (गुजरात) में  नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ। नवम्बर 1929 में ही संघचालकों की त्रिदिवसीय बैठक में इस आन्दोलन को बिना शर्त समर्थन करने का निर्णय संघ में हुआ था। संघ की नीति के अनुसार डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकों के साथ इस सत्याग्रह में भाग लेने का निर्णय लिया। और संघ कार्य अविरत चलता रहे इस हेतु उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्व अपने पुराने मित्र डॉ. परांजपे को सौंप कर बाबासाहब आप्टे और बापू राव भेदी को शाखाओं के प्रवास की जिम्मेदारी दी। इस सत्याग्रह में उनके साथ प्रारंभ में 21 जुलाई, को 3-4 हजार लोग थे। वर्धा, यवतमाल होकर पुसद पहुंचते-पहुंचते सत्याग्रह स्थल पर 10,000 लोग इकट्ठे हुए। इस सत्याग्रह में उन्हें 9 महीने का कारावास हुआ। वहां से छूटने के पश्चात् सरसंघचालक का दायित्व पुन: स्वीकार कर वे फिर से संघ कार्य में जुट गए।

1938 में भागानगर (हैदराबाद) में निजाम के द्वारा हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ हिन्दू महासभा और आर्य समाज के तत्वावधान में ‘भागानगर नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल’  के नाम से सत्याग्रह का आह्वान हुआ उसमें सहभागी होने के लिए जिन स्वयंसेवकों ने अनुमति मांगी उन्हें डॉक्टर ने सहर्ष अनुमति दी। जिन पर केवल संघ का प्रमुख दायित्व था उन्हें केवल संगठन के कार्य की दृष्टि से बाहर ही रहने के लिए कहा था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि सत्याग्रह में जिन्हें भाग लेना है वे व्यक्ति के नाते अवश्य भाग ले सकते हैं। भागनगर सत्याग्रह के संचालकों के द्वारा प्रसिद्धि पत्रक में ‘संघ’ ने सहभाग लिया, ऐसा बार-बार आने पर डॉक्टर ने उन्हें पत्र लिखकर संघ का उल्लेख न करने की सूचना उनके प्रसिद्धि विभाग को देने को कहा था।

राजकीय आन्दोलन का तात्कालिक, नैमित्तिक व संघर्षमय स्वरूप और संघ का नित्य, अविरत (अखंड) व रचनात्मक स्वरूप इन दोनों की भिन्नता को समझ कर आन्दोलन भी यशस्वी हो, परन्तु उस समय भी चिरंतन संघकार्य अबाधित रहे इस दूरदृष्टि से विचारपूर्वक यह नीति डॉक्टर ने अपनाई थी। इसीलिए जंगल सत्याग्रह के समय भी सरसंघचालक का दायित्व डॉ परांजपे को सौंप कर व्यक्ति के नाते वे अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह में सहभागी हुए थे।

8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने ‘अंग्रेज! भारत छोड़ो’ यह ऐतिहासिक घोषणा की। दूसरे दिन से ही देश में आन्दोलन ने गति पकड़ी और जगह जगह आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई।

विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांगे्रस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया। इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर इस संघ स्वयंसेवक की हुई। कांग्रेस, श्री तुकडो महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ स्वयंसेवकों ने मिलकर 1943 का चिमूर का आन्दोलन और सत्याग्रह किया। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया।

भारतभर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणा से कूद पड़े। अपने जिन कार्यकर्ताओं ने स्थान-स्थान पर अन्य स्वयंसेवकों को साथ लेकर इस आन्दोलन में भाग लिया उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं- राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, जो बाद में विद्या भारती में सक्रिय रहे। आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे। जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, जिन्होंने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। दिल्ली मेें श्री वसंतराव ओक जो बाद में दिल्ली के प्रान्त प्रचारक रहे। बिहार (पटना), में वहां के प्रसिद्ध वकील कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) जो बाद में बिहार के संघचालक रहे। दिल्ली में ही श्री चंद्रकांत भारद्वाज, जिनके पैर में गोली धंसी और जिसे निकाला नहीं जा सका। बाद में वे प्रसिद्ध कवि और अनेक संघ गीतों के रचनाकार हुए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में माधवराव देवडेÞ जो बाद में प्रान्त प्रचारक बने और इसी तरह उज्जैन (मध्य प्रदेश) में दत्तात्रेय गंगाधर (भैयाजी) कस्तूरे का अवदान है जो बाद में संघ प्रचारक हुए। अंग्रेजों के दमन के साथ-साथ एक तरफ सत्याग्रह चल रहा था तो दूसरी तरफ अनेक आंदोलनकर्ता भूमिगत रहकर आन्दोलन को गति और दिशा देने का कार्य कर रहे थे। ऐसे समय भूमिगत कार्यकर्ताओं को अपने घर में पनाह देना किसी खतरे से खाली नहीं था। 1942 के आन्दोलन के समय भूमिगत आन्दोलनकर्ता अरुणा आसफ अली दिल्ली के प्रान्त संघचालक लाला हंसराज गुप्त के घर रही थीं और महाराष्टÑ में सतारा के उग्र आन्दोलनकर्ता नाना पाटील को भूमिगत स्थिति में औंध के संघचालक पंडित सातवलेकर ने अपने घर में आश्रय दिया था। ऐसे असंख्य नाम और हो सकते हैं। उस समय इन सारी बातों का दस्तावेजीकरण (रिकार्ड) करने की कल्पना भी संभव नहीं थी।

डॉ. हेडगेवार के जीवन का अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि बाल्यकाल से आखिरी सांस तक उनका जीवन केवल और केवल अपने देश और उसकी स्वतंत्रता इसके लिए ही था। उस हेतु उन्होंने समाज को दोषमुक्त, गुणवान एवं राष्ट्रीय विचारों से जाग्रत कर उसे संगठित करने का मार्ग चुना था। संघ की प्रतिज्ञा में भी 1947 तक संघ कार्य का उद्देश्य ‘हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए’ ऐसा ही था।

…….जारी

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