नेहरू ने अंबेडकर को हमेशा हाशिए पर रखा

नेहरू ने अंबेडकर को हमेशा हाशिए पर रखा

नेहरू ने अंबेडकर को हमेशा हाशिए पर रखानेहरू ने अंबेडकर को हमेशा हाशिए पर रखा

आज अंबेडकर जयंती है। इस उपलक्ष्य में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है। अंबेडकर की प्रतिमाओं पर फूल मालाएं चढ़ाकर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है। कांग्रेसी भी इसमें पीछे नहीं। लेकिन इतिहास के पन्ने पलटें तो स्पष्ट होता है कि नेहरू ने डॉ. अंबेडकर को हमेशा हाशिए पर रखने का प्रयास किया। नेहरू घोर कम्युनिस्ट थे, स्टालिन उनके आदर्श थे। अंबेडकर की समाज सुधारक छवि नेहरू को रास नहीं आ रही थी। यह चिढ़ यहॉं तक थी कि उन्हें साइड लाइन करने के लिए संविधान सभा में भेजे गए शुरुआती 296 सदस्यों में डॉ. अंबेडकर का नाम ही नहीं भेजा गया। बाद में जोगेंद्रनाथ मंडल के प्रयासों और मुस्लिम लीग की सहायता से वे बंगाल से संविधान सभा में पहुंचे। अब भी अंबेडकर की मुश्किलें कम नहीं हुई थीं। जिन ज़िलों के वोटों से अंबेडकर संविधान सभा में पहुंचे थे, वे हिन्दू बहुल होने के बावजूद पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बन गए। परिणामस्वरूप अंबेडकर पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य बन गए। भारतीय संविधान सभा की उनकी सदस्यता रद्द कर दी गई। पाकिस्तान बनने के बाद भारत में रहे बंगाल के हिस्सों से वे दोबारा संविधान सभा के सदस्य चुने गए, वह भी तब, जब उन्होंने कांग्रेस को धमकाया। उन्होंने कहा कि वे संविधान को स्वीकार नहीं करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे।

नेहरू की राजनीतिक ईर्ष्या का दूसरा बड़ा अवसर था 1951-52 में देश में होने वाले पहले आम चुनाव का। डॉ. अंबेडकर उत्तरी मुंबई से अपनी पार्टी शिड्यूल कास्ट फेडरेशन पार्टी से चुनाव लड़ रहे थे। कांग्रेस ने अंबेडकर के पुराने साथी नारायण कजरोलकर को टिकट दिया। नेहरू कजरोलकर के प्रचार के लिए दो बार मुंबई गये, कम्युनिस्ट पार्टी के श्रीपद अमृत दांगे, जो कि स्वयं भी प्रत्याशी थे- ने डॉ. अंबेडकर को देशद्रोही बताने वाले पर्चे बंटवाए। चुनावों में धांधली हुई, 78 हज़ार वोट कैंसिल किये गये। इस चुनाव में अंबेडकर को 123576 वोट मिले जबकि विजेता कांग्रेसी प्रत्याशी काजरोलकर को 138137 मत, वहीं डांगे को 96,755 वोट मिले। डॉ. अंबेडकर लगभग 14 हज़ार वोटों से चुनाव हार गये। उनकी इस हार का विस्तार से वर्णन किया है पद्मभूषण से सम्मानित लेखक धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक “डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर – जीवन-चरित” में। इस पुस्तक के पेज नंबर 418 पर धनंजय कीर लिखते हैं, अपनी चुनावी हार के बाद डॉ. अंबेडकर ने अपने बयान में कहा कि – “मुंबई की जनता ने मुझे इतना बड़ा समर्थन दिया तो वो आखिर बेकार कैसे हो गया? इलेक्शन कमिश्नर को इसकी जांच करनी चाहिए।” वहीं समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने अपने बयान में कहा कि, “इस चुनाव को लेकर डॉ. अंबेडकर की तरह मेरे मन में भी शक है।” वास्तव में इस हार ने सभी को चकित कर दिया था। बाबासाहब ने इस चुनावी धांधली के विरुद्ध अदालत में केस दायर किया।

इस तरह कह सकते हैं कि बाबासाहब चुनावी धांधली के पहले शिकार थे और वो ही पहले व्यक्ति थे जिन्होंने चुनावी घोटाले पर बकायदा अदालत में केस दायर किया था। इसका उल्लेख अमेरिकी लेखक गेल ओमवेट ने अपनी पुस्तक “Ambedkar: Towards an Enlightened India” में किया है। वह लिखती हैं, “1952 में अपनी चुनावी हार के बाद डॉ. अंबेडकर ने अदालत में केस दायर किया। जिसमें उन्होंने आरोप लगाया गया कि कॉमरेड श्रीपद अमृत दांगे की अगुआई में वामपंथियों ने उनके विरुद्ध चुनाव में धोखाधड़ी की है।”

वर्ष 1954 में एक और अवसर आया, जब डॉ. अंबेडकर चुनाव मैदान में उतरे। यह था बंडारा का उपचुनाव। इस बार भी कांग्रेस ने पूरी शक्ति लगायी और अंबेडकर फिर चुनाव हार गये। बाद में वे संसद में गए, लेकिन राज्यसभा से। धनंजय कीर अपनी पुस्तक डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर – जीवन-चरित में लिखते हैं कि दो बार की हार से वे टूट गए, क्योंकि यह हार उन्हें उनके अपने क्षेत्र से मिली थी। पुस्तक में वे लिखते हैं कि डॉ. अंबेडकर की पत्नी डॉ. सवित्री बाई अंबेडकर ने 1952 में डॉ. अंबेडकर की चुनावी हार के बाद उनके निकटतम मित्र कमलकांत चित्रे को एक पत्र भेजा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि – “राजनीति डॉक्टर साहब (अंबेडकर) का जीवन है। वही उनकी मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए शक्तिवर्धक दवा है। संसदीय कार्य में उन्हें काफी दिलचस्पी है। उनकी बीमारी शारीरिक नहीं बल्कि मानसिक है। हालांकि उन्होंने अपनी चुनावी हार सह ली है, लेकिन फिर भी पुरानी राजनैतिक घटनाओं से उनके स्वास्थ्य में उतार-चढ़ाव आया है। अगर वो लोकसभा में चुने गये तो कौन से काम हाथ में लेने हैं, उनकी प्लानिंग डॉक्टर साहब (अंबेडकर) ने बना रखी थी। लोकसभा ही उनकी कीर्ति और कर्तव्य के लिए उचित जगह है।”

लेकिन कई जगह कहावत है कि सांप का काटा भले बच जाए लेकिन कांग्रेस और कम्युनिस्टों का काटा नहीं बचता। राजनीति में इसके अनेक उदाहरण हैं। खैर! बंडारा की हार के बाद डॉ. अंबेडकर बीमार रहने लगे। 6 दिसंबर 1956 को उनका निधन हो गया।

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