पुरुषार्थ को ना मरने दो (कविता)
डॉ. सीमा दायमा
निज स्वार्थ हेतु मति मलिन
पुरुषार्थ घायल हुआ
पाशविकता ने सीमा लांघी
मानव मन कलंकित हुआ।
जवान क्या, बुजुर्ग क्या!
दो माह, दो साल क्या!
बस नारी देह के आगे
राक्षस मन विचलित हुआ।
निज से निज संबंध क्या
संबंधों पर कालिख लगी
नजरों की लोलुपता के आगे
हर संबंध आशंकित हुआ।
यह मानसिक विकृति है या
आधुनिकता मेहरबान हुई?
परिवार संस्कारहीन हुए या
शिक्षा में कोई चूक हुई?
यह यक्ष प्रश्न है ऐसा
मानवता तार-तार हुई
इंसान में हैवान छिपा
इंसानियत तार-तार हुई।
पैदा हुए जिस गर्भ से
वह गर्भ भी लज्जित हुआ।
हे भारत मां के लाडलो
दिन-ब-दिन यह क्या हुआ।
उठो नई हुंकार भरो
पुरुषार्थ को ना मरने दो
मां भारती के पुत्रो
अपनी संस्कृति की रक्षा करो।
अपनी संस्कृति की रक्षा करो।