पहला टुकड़ा – पूर्वी पाकिस्तान / 3

पहला टुकड़ा - पूर्वी पाकिस्तान / 3

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प्रशांत पोळ

पहला टुकड़ा - पूर्वी पाकिस्तान / 3पहला टुकड़ा – पूर्वी पाकिस्तान / 3

पाकिस्तान बनने का मूलाधार रही मुस्लिम लीग, पाकिस्तान बनने के बाद से ही बिखरने लगी। 1949 में ढाका में, मुस्लिम लीग से टूट कर एक समूह ने ‘ऑल पाकिस्तान अवामी मुस्लिम लीग’ बनाई। इस समूह में सारे बंगाली थे। उनमें से प्रमुख थे, अब्दुल हमीद खान भाशानी, यार मोहम्मद खान, शमशुल हक आदि। बाद में इस ग्रुप में शामिल हुए, ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के सूत्रधार, हुसैन सुहरावर्दी। यह पार्टी प्रमुखता से मुस्लिम लीग का बंगाली अवतार थी।

इसी बीच पाकिस्तान के पूर्व बंगाल राज्य में, बांग्ला भाषा के लिए आंदोलन सुलगना प्रारंभ हुआ था। ढाका विश्वविद्यालय में शेख मुजीबुर रहमान ने ‘ईस्ट पाकिस्तान मुस्लिम स्टूडेंट्स लीग’ बनाई थी। वह उभरते छात्र नेता थे। पश्चिम पाकिस्तान की मुस्लिम लीग, पूर्व बंगाल में उर्दू की सख्ती करने की बात कर रही थी। उस मुस्लिम लीग के विरोध में, सभी राजनीतिक दलों की छात्र विंग ने, पूर्वी बंगाल में 11 मार्च 1948 को जबरदस्त आंदोलन (स्ट्राइक) किया। मुजीबुर रहमान और अन्य छात्र नेताओं को गिरफ्तार किया गया। किंतु छात्र आंदोलन के दबाव के कारण दिनांक 15 मार्च को इन सब को छोड़ देना पड़ा। 21 मार्च 1948 को कायदे आजम जिन्ना ने पूर्व बंगाल वालों से उर्दू अपनाने के लिए कहा। उसका जबरदस्त विरोध हुआ। ढाका विश्वविद्यालय इस आंदोलन का केंद्र बना और पुनः 11 सितंबर 1948 को मुजीबुर रहमान समवेत इतर छात्र नेता गिरफ्तार किए गए। यह गिरफ्तारी कुछ लंबी खिंची। 21 जनवरी 1949 को वे रिहा हुए।

शेख मुजीबुर रहमान अब बंगाली मुस्लिम छात्रों का चेहरा बनने जा रहे थे। मुस्लिम लीग से उनके तीव्र मतभेद होने लगे। इसलिए 23 जून 1949 को वह मुस्लिम लीग से टूटकर बनी पार्टी ‘ईस्ट बंगाल अवामी मुस्लिम लीग’ में शामिल हो गए। वह लगातार होते आंदोलनों के मुख्य स्वर थे। उनकी पार्टी बाद में ‘अवामी मुस्लिम लीग’ बनी जिसके वे राष्ट्रीय महामंत्री रहे। (कुछ वर्षों के बाद, पूर्वी बंगाल के हिन्दू वोटरों की बड़ी संख्या को देखते हुए, पार्टी के नाम से ‘मुस्लिम’ शब्द हटा लिया गया। पाकिस्तान से, पूर्व पाकिस्तान के टूटने तक पार्टी का नाम ‘अवामी लीग’ रहा)। पूर्व बंगाल की राजनीति में और बंगाली पहचान के लिए चल रहे आंदोलन के प्रमुख नेता के रूप में वह सामने आ रहे थे।

1954 में उन्होंने अवामी लीग की टिकट पर पहली बार पूर्व बंगाल विधानसभा का चुनाव लड़ा। गोपालगंज से उन्होंने तेरह हजार से अधिक वोटों से जीत प्राप्त की। बाद में 1958 में सेना का शासन आने के कारण पाकिस्तान में लोकतंत्र की समाप्ति हुई। किंतु मुजीबुर रहमान, बंगाली पहचान बचाने के लिए, फिर भी कराची की सरकार से लड़ते भिड़ते रहे।

साठ का दशक पाकिस्तान के लिए भारी उथल-पुथल वाला था। जनरल अयूब खान के नेतृत्व में सेना, शासन-प्रशासन चला रही थी। लेकिन 1965 में भारत के साथ हुए युद्ध में पाकिस्तान की करारी हार हुई। इस हार से पाकिस्तान के कई समीकरण बदले। पूर्वी पाकिस्तान के शेख मुजीबुर रहमान, प्रभावी विपक्षी नेता के रूप में देश में उभरे। ताशकंद समझौते के बाद पाकिस्तान के सभी नेताओं की एक संयुक्त बैठक 6 फरवरी 1966 को लाहौर में रखी गई। इस बैठक में मुजीबुर रहमान ने छह सूत्रीय कार्यक्रम रखा, जिसके अंतर्गत देश में लोकतंत्र की बहाली और पूर्व पाकिस्तान में बंगाली पहचान की रक्षा के सूत्र थे। किंतु पाकिस्तान के सैन्य शासन ने और पंजाबी नेताओं ने इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया। शेख मुजीबुर रहमान को अलगाववादी कहा गया। बाद में 21 फरवरी को ढाका में अवामी लीग की बैठक में इस छह सूत्रीय कार्यक्रम को सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया।

पूर्वी पाकिस्तान, अर्थात पूर्वी बंगाल में असंतोष बढ़ता ही जा रहा था। पाकिस्तान की आय का मुख्य स्रोत पूर्वी पाकिस्तान था। वहां के जूट का निर्यात पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा था। किंतु इसके बदले में उन्हें क्या मिल रहा था? पूरे देश की लगभग आधी जनसंख्या वाले पूर्वी पाकिस्तान के साथ, अर्थात वहां के बांग्ला नागरिकों के साथ, पश्चिमी पाकिस्तान के नेता सौतेला व्यवहार कर रहे थे, जो कुछ थोड़ा बहुत विकास पाकिस्तान में हो रहा था, वह सारा पंजाब और सिन्ध तक सिमटा था। पूर्व बंगाल के खाते में नगण्य हिस्सा आता था।

वर्ष 1965 से 1970 के बीच पश्चिम पाकिस्तान पर खर्च की गई रकम थी 11,334 करोड़ पाकिस्तानी रुपए। पाकिस्तान के कुल खर्चों का यह 71.16 प्रतिशत था। इसी समयावधि में पूर्वी पाकिस्तान पर खर्च हुई रकम थी, 4593 करोड़ पाकिस्तानी रुपए। कुल खर्चे का यह मात्र 28.84 प्रतिशत था। पश्चिमी पाकिस्तानी नेताओं की इस भेदभाव वाली नीति के विरोध में पूर्वी पाकिस्तान में जनता का आक्रोश उबलने लगा था। लगभग सारा पूर्वी बंगाल, अवामी लीग और उसके नेता शेख मुजीबुर रहमान के पीछे खड़े होने लगे।

पाकिस्तान की सेना में 1965 का युद्ध हारने से बेचैनी बढ़ी थी। इसका परिणाम हुआ, अयूब खान के जाने में। सत्ता अभी भी सेना के ही हाथों में थी। लेकिन अब उसकी कमान थी, जनरल याह्या खान के हाथों में।

इधर विश्व के लोकतांत्रिक देशों द्वारा पाकिस्तान पर लोकतंत्र की बहाली करने का दबाव बन रहा था। इसलिए याह्या खान ने चुनाव कराने का निर्णय लिया। पाकिस्तान बनने के बाद शायद यह पहला प्रत्यक्ष और लोकतांत्रिक चुनाव था। पश्चिमी पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो, नेता के रूप में उभर रहे थे। उन्हें याह्या खान का पूरा समर्थन था। पाकिस्तानी सेना को लग रहा था, चुनाव के बाद सत्ता भुट्टो के हाथों में आएगी, जो सेना की कठपुतली से अधिक कुछ नहीं हैं।

इस चुनाव में पश्चिमी पाकिस्तान की ‘पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी’ (PPP) और पूर्व पाकिस्तान की अवामी लीग के बीच संघर्ष था। चुनाव के परिणामों ने पाकिस्तान का इतिहास और भूगोल दोनों बदल दिए। नेशनल असेंबली की कुल 313 सीटें थी, जिनमें से 300 सीटों पर चुनाव हुए। शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग ने जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए 167 सीटों पर विजय प्राप्त की। बहुमत से भी 16 सीटें ज्यादा इस अकेली पार्टी के पास थीं। भुट्टों की पार्टी को 86 सीटों पर जीत मिली। जिस मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान बनवाया था, उस जिन्ना और लियाकत अली खान की मुस्लिम लीग को, पूरे पाकिस्तान में मात्र 9 सीटें मिलीं..!

पश्चिमी पाकिस्तानी नेताओं के लिए शायद यह अप्रत्याशित था। पूर्व बंगाल की जनता एकजुट होकर पूरे पाकिस्तान पर राज करने की स्थिति में आएगी, इसकी कल्पना उन्हें नहीं थी। पूर्व बंगाल की 169 में से 167 सीटों पर अवामी लीग ने जीत का परचम लहराया था।

यह तो गजब हो गया था। जिस पूर्व बंगाल को निचले दर्जे का माना गया था, वही बंगाली अब हम पर राज करेंगे..? पश्चिमी पाकिस्तान के सारे नेता एक हो गए और उन्होंने बंगाल की पार्टी के नेतृत्व में काम करने से मना कर दिया। याह्या खान को यही चाहिए था। उसने पाकिस्तान के पहले लोकतांत्रिक पद्धति से हुए प्रत्यक्ष चुनाव को ही रद्द कर दिया।
(क्रमशः)

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