प्रथम विश्व युद्ध के समय महाविप्लव, 109 क्रांतिकारी एक साथ बलिदान
अमृत महोत्सव लेखमाला : सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ (भाग-9)
नरेन्द्र सहगल
प्रथम विश्व युद्ध के समय महाविप्लव, 109 क्रांतिकारी एक साथ बलिदान
भारत में अपनी जड़ें जमा चुके ब्रिटिश साम्राज्यवाद को जड़-मूल से उखाड़ फेंकने के लिए देश और विदेश में भारतीय नवयुवकों ने सशस्त्र क्रांति की ज्वाला को एक भयंकर ज्वालामुखी के विस्फोट में बदलने के लिए गुरिल्ला सैन्य अभियान चलाने का निश्चय किया। 1914 के अंत और 1915 के प्रारंभ में गरज रहे विश्वयुद्ध के बादल बरसने शुरू हो गए। जर्मनी ने इंग्लैंड को घेर लिया। ब्रिटिश सेनाएं यूरोपीय देशों में उलझ गईं। फलतः भारत में तैनात इंग्लिश फौज की अधिकांश पलटनें भी इंग्लैंड के अस्तित्व को बचाने के लिए यूरोपीय देशों में व्यस्त हो गईं। ऐसे समय में भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 जैसा सशस्त्र संग्राम छेड़ने की योजना क्रांतिकारियों ने बनाई।
भारत को स्वतंत्र करवाने के लिए विदेशों में संघर्षरत गदर पार्टी के सेनानियों ने भारत में आकर क्रांति का झंडा बुलंद कर दिया। रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन एवं नेतृत्व में अमेरिका और कनाडा इत्यादि देशों में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारियों ने सामूहिक रूप से हजारों की संख्या में जल मार्ग से भारत की ओर प्रस्थान कर दिया। गदर पार्टी के आह्वान पर भारतीय युवकों ने इस देशव्यापी सैन्य बगावत में भाग लेकर अपने जीवन की आहुति देने के निश्चय के साथ ‘मारो अंग्रेजों को’ का नारा बुलंद कर दिया।
अमेरिका-कनाडा से हांगकांग, सिंगापुर और रंगून के रास्ते से भारत आ रहे इन स्वतंत्रता सेनानियों ने इन देशों में तैनात भारतीय सैनिकों को अपने वतन की आजादी के लिए बगावत करने की सलाह दी। सिंगापुर में तैनात एक सैनिक टुकड़ी को तैयार कर लिया गया।
अक्टूबर नवंबर और दिसंबर 1914 में जापानी समुद्री जहाजों से हजारों भारतीय देश में आ गए। इनमें पंजाबी लोगों की संख्या सबसे अधिक थी। इन सभी सेनानियों को विभिन्न स्थानों पर भेजने तथा इन्हें काम सौंपने की जिम्मेदारी रासबिहारी बोस को सौंपी गई। यह सारी व्यवस्था बनारस को केंद्र बनाकर की गई। 1914 में ही क्रांतिकारी भाई परमानंद, बाबा पृथ्वी सिंह आजाद, पंडित काशीराम, करतार सिंह सराभा इत्यादि सभी सक्रिय क्रांतिकारी भारत पहुंच गए।
बंगाल व बिहार की जिम्मेदारी बाघा जतिन को दी गई। अमेरिका से भारत पहुंचे क्रांतिकारी विष्णु गणेश पिंगले को दिल्ली तथा उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी गई। एक 18 वर्षीय नवयुवक करतार सिंह सरामा को पंजाब और सिंध में बगावत करवाने की कमान दी गई। सभी स्थानों पर सैनिक छावनी में जाकर विद्रोह करवाने के उद्देश्य से भारतीय सैन्य अफसरों से संपर्क करने का जोरदार अभियान छेड़ दिया गया। 1915 के शुरू होते ही प्रमुख क्रांतिकारियों की एक आपातकालीन बैठक का आयोजन बनारस में किया गया। रासबिहारी बोस की अध्यक्षता में संपन्न बैठक में 21 फरवरी 1915 के दिन सारे देश में एक साथ सशस्त्र क्रांति का श्रीगणेश करने का निर्णय लिया गया।
लुधियाना,अमृतसर, जब्बेवाल इत्यादि स्थानों पर बम बनाने के गुप्त कारखाने स्थापित कर दिए गए। अमेरिका से प्रकाशित ‘गदर’ नामक पत्रिका को भारत में छापने के लिए भूमिगत प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना भी कर दी गई। 13 जनवरी 1915 को छपे ग़दर पत्रिका के अंक में भारतीयों से कहा गया – “देशवासियों को विदेशों में जाकर हथियार बनाने का प्रशिक्षण लेना चाहिए। इन लोगों को विदेश से हथियारों की खेप भारत में आजादी की जंग लड़ रहे क्रांतिकारियों तक भेजने की व्यवस्था भी करनी चाहिए।”
इसी प्रकार इस महाविप्लव को सफल बनाने के लिए क्रांतिकारियों ने जर्मनी से शस्त्र और धन मंगवाने के प्रयास भी किए। इस हेतु बैंकॉक, शंघाई और बटाविया स्थित जर्मनी के सभी राजदूतों से वार्तालाप करने का निश्चय किया गया। क्रांतिकारी ज्योतिन्द्र नाथ (बाघा जतिन) और अमरेन्द्र नाथ चटर्जी ने यह सारी व्यवस्था संभाल ली। विदेशों से प्राप्त शस्त्रों को जलमार्ग द्वारा भारत भिजवाने का काम क्रांतिकारियों के जनक कहे जाने वाले लाला हरदयाल कर रहे थे। और देश की विभिन्न बंदरगाहों पर हथियारों को उतरवाने व उन्हें सभी क्रांति केन्द्रों में वितरण का गुप्त कार्य बाघा जतिन ने संभाल लिया।
एक क्रांतिकारी विनायक कापले ने बंगाल से पंजाब में शस्त्र भेजना शुरू किया। इलाहाबाद में बगावत करवाने के लिए एक स्कूल अध्यापक दामोदर स्वरूप आगे आए। जबलपुर में नलिनी बागची को सैनिक छावनियों में विप्लव का सन्देश और सूचना के कार्य के लिए चुना गया। क्रांतिकारी सान्याल और पिंगले को साथ लेकर स्वयं रासबिहारी ने लाहौर और अमृतसर के लिए प्रस्थान किया। पंजाब के गांवों में किसान समुदाय ने विशेष उत्साह दिखाया। सभी स्थानों पर सशस्त्र जंग प्रारम्भ करने के लिए आवश्यक शस्त्र, साहित्य सामग्री, राष्ट्रीय झंडे भेज दिए गए। अंग्रेजों के विरुद्ध खुली बगावत और जंग का ऐलान करने वाला एक घोषणा पत्र भी जारी कर दिया गया।
लाहौर से ढाका तक सशस्त्र जंग छेड़ने की इतनी संगठनात्मक तैयारियों के लिए क्रांतिकारी नेताओं विशेषतया रासबिहारी बोस, पिंगले, सच्चिन्द्रनाथ, सत्येन्द्रनाथ, बाघा जतिन इत्यादि नेताओं के बुद्धिकौशल की प्रसंशा तो कई अंग्रेज अफसरों ने भी की। हजारों की संख्या में छोटे-छोटे स्थानों पर क्रांतिकारियों की तैनाती, लाखों कार्यकर्ताओं को साथ जोड़ना और सैनिक छावनियों में जाकर सैनिकों को बागी बनाने का काम अत्यंत जोखिम भरा था। ऐसे समय में देशद्रोहियों और अपने बीच छिपे हुए गद्दारों से निपटना एक महत्वपूर्ण कार्य था।
इस स्वतंत्रता संग्राम को गति देने के लिए धन की आवश्यकता थी। क्रांति के संचालकों ने किसी भी प्रकार से धन प्राप्त करने की सोच कर फिरोजपुर जिले के मोगा सब डिवीजन के खजाने को लूटने की योजना बनाई। अमरीका में ग़दर मूवमेंट के संस्थापक पंडित काशीराम के नेतृत्व में 15 क्रांतिकारियों ने सरकारी खजाने पर धावा बोल दिया। दोनों और से गोलीबारी हुई। इस काम में दो क्रांतिकारी मारे गए। 7 गिरफ्तार कर लिए गए और शेष बच निकलने में सफल हुए। पकड़े गए सातों क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई। हालांकि इन्होंने एक भी कत्ल नहीं किया था।
अमरीका से भारत लौटे करतार सिंह सरामा को अब पंजाब में बगावती गतिविधियों का सूत्रधार बनाया गया। पाठकों की जानकारी के लिए यह करतार सिंह सरामा अमरीका में प्रकाशित होने वाले ‘ग़दर’ पत्रिका के संपादन मंडल का सदस्य भी था। अमरीका से लौटे एक और होनहार नवयुवक यतीन्द्रनाथ मुखर्जी को भारत की पूर्वी क्षेत्र में भेजा गया।
इस समय ब्रिटिश सेनाएं यूरोप में शुरू हो चुके विश्वयुद्ध में व्यस्त होने के कारण भारत में उनकी संख्या बहुत कम रह गई थी। ‘ग़दर’ के नेताओं ने विदेशों से आकर भारत में अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने के लिए अपनी सारी शक्ति झोंक दी। सारे देश विशेषतया पंजाब, उत्तर प्रदेश और बंगाल में तो नवयुवक पूरे जोश के साथ 21 फरवरी का इन्तजार करने लगे। ‘मारो अंग्रेजों को’ के भावुक जज्बे के साथ क्रांतिकारी नवयुवक मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए बलिदान देने के लिए उतावले हो रहे थे।
सशस्त्र क्रांति की सभी तैयारियां पूर्ण हो गई। सर्वप्रथम सेना के अंग्रेज अधिकारियों को निशाना बनाना निश्चित किया गया। इसी के साथ गैर सैनिक अंग्रेज अफसरों के लिस्ट भी तैयार हो गई। जेलों पर हमले करके सभी प्रकार के कैदियों को छुड़ाकर सशस्त्र क्रांति में शामिल करना और सरकारी खजानों को लूटने की रणनीति भी बनाई गई। सैनिक छावनियों से शस्त्र लूटकर इन्हें विभिन्न स्थानों पर भेजना इत्यादि की नीति अपनाई गई। सैनिक छावनियों में जाकर भारतीय सैनिकों को बगावत के लिए पहले ही तैयार कर लिया गया था। 21 फरवरी 1915 का लक्षित दिन नजदीक आ रहा था।
परन्तु दुर्भाग्य देश का और सर्वस्व त्यागने वाले इन राष्ट्रभक्त क्रांतिकारियों का कि पूर्व की भांति इस बार भी एक गद्दार की वजह से सारी पराक्रमी सशस्त्र योजना पर पानी फिर गया। एक कृपाल सिंह नामक राष्ट्रघातक और अंग्रेज भक्त किसी प्रकार ‘ग़दर’ योजना में शामिल होकर सारे क्रिया कलापों की तोह लेता रहा। यद्यपि रासबिहारी बोस ने इसे पहचानकर इसे निपटाने के लिए अपने साथियों से कह दिया था। तो भी पंजाब के क्रांतिकारियों ने इस गद्दार को समाप्त करने की बजाए इसे अपनी कैद में रखकर जंगे-आजादी को प्रारंभ करने की तिथि 19 फरवरी कर दी।
क्रांति की तिथि 2 दिन पहले कर देने की सूचना भी कृपाल सिंह ने सुन ली। उसने किसी प्रकार वह तिथि तथा सशस्त्र खिलाफत की सारी जानकारी अपने अंग्रेज आकाओं तक पहुंचा दी। गद्दारी ने अपना रंग दिखाया और सब कुछ चौपट हो गया। इस दुष्ट कृपाल सिंह ने वही कर दिया जो जयचंद, मीरजाफर जैसे समाजद्रोहियों ने किया था। इसी तरह कुछ मुठ्ठीभर नीच व स्वार्थी तत्वों के कारण 1857 का स्वतंत्रता संग्राम, वासुदेव बलवंत फड़के का विद्रोह और सतगुरु रामसिंह के स्वतंत्रता संग्राम-कूका आन्दोलन विफल हो गए।
सरकार चौकन्नी हो गई। जिस घर में क्रांतिकारियों ने कृपाल सिंह को कैद करके रखा था उस घर पर पुलिस बल ने पहुंचकर गहरी तलाशी ली। भारी मात्रा में बम, बंदूकें, गुप्त दस्तावेज और कई क्रांतिकारी सरकार के हाथ लगे। क्रांति की पूरी योजना का पता चलते ही सरकार ने देश की सभी सैनिक छावनियों में सतर्कता बरतने के बंदोबस्त कर लिए। इन स्थानों पर तैनात भारतीय सैनिकों को हटाकर अंग्रेज सैनिकों को तैनात कर दिया गया। बगावत की संभावना का अंदाजा लगाकर सैनिक टुकड़ियों को क्रांतिकारियों द्वारा निश्चित किए गए उन स्थानों को भी घेर लिया गया जहां से स्वतंत्रता युद्ध प्रारंभ होना था। सरकारी खजानों पर पहरे मजबूत कर दिए गए।
इसी समय एक और अंग्रेज भक्त नवाब खान भी भारत में आ गया। इसने पहले अमरीका में ग़दर पार्टी में शामिल होकर सारे राज और तौर-तरीकों की जानकारी ली और ये भारत में आकार मुखबिर बन गया। इस गद्दार की जानकारी पर सरकार ने ग़दर पार्टी के कई सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया। सरकार यहीं तक नहीं रुकी, उसने बगावत में शामिल होने वाले संभावित परन्तु बेक़सूर भारतीय सैनिकों को भी गोलियों से उड़ाना शुरू कर दिया।
इस संभावित विद्रोह को पूर्णतया समाप्त करने के लिए सरकार ने ‘डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट’ पारित किया। इस एक्ट के तहत एक ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई। जिसने सभी गिरफ्तार क्रांतिकारियों को मौत की सजा दिलाने का काम अपने हाथ में ले लिया। इन जिन्दा शहीदों को अपना पक्ष रखने की कोई सुविधा नहीं दी गई। सरकार की एक ही दमनकारी नीति थी। लालची, स्वार्थी और बुजदिल लोगों को साम-दाम-दंड-भेद की नीति से अंग्रेज भक्त बनाओ। इनकी सहायता से क्रांतिकारियों को पकड़ो, जेल में ठूंसकर यातनाएं दो, न्यायालय का नाटक करो और फांसी पर लटका दो।
इस विद्रोह की संभावित लपटों को पूरी तरह बुझाने के लिए सरकार ने अंधे कानूनों का सहारा लेकर अत्याचारों की सारी सीमाएं पार कर दीं। भारतीय सैनिकों और देशभक्त क्रांतिकारियों को गोली मारना, फांसी पर लटकाना और देश-निकाला देने का गैर इंसानी सिलसिला तेज गति से चला। जुल्मों का यह वीभत्स खेल सरकार ने खुलकर खेला। 37 सैनिकों और क्रांतिकारियों को फ़ासी देकर मार डाला गया। 72 को गोलियों से उड़ा दिया गया। 13 क्रांतिकारियों की जेल की यातनाओं से मृत्यु हो गई। लगभग इतने ही क्रांतिकारी पुलिस से लड़ते हुए शहीद हो गए। दमन की क्रूर चक्की से कुछ समय के लिए देश में सन्नाटा छा गया।
वास्तव में 1915 के उस स्वतंत्रता संग्राम के विफल होने के और भी बहुत कारण थे। विश्व युद्ध में फंसे हुए अंग्रेजों ने एक झूठा आश्वासन दिया कि इस युद्ध की समाप्ति पर भारत को उपनिवेश राज्य (डोमिनियन स्टेट) का दर्जा दे दिया जाएगा। कांग्रेस के दोनों धड़े इस झांसे में आ गए।
वास्तविकता यही है कि 1857 का स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजों की दमनकारी-विभेदकारी नीति के कारण राजनीतिक दृष्टि से विफल हो गया, तो 1915-1916-1917 का यह स्वतंत्रता संग्राम कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं द्वारा विश्वयुद्ध में फंसे अंग्रेजों का साथ देने से बिना लड़े ही विफल हो गया। ए.ओ. ह्यूम द्वारा स्थापित और संस्कारित कांग्रेस के इस व्यवहार से भारत में उखड़ते हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पांव पुनः जम गए, जिन्हें उखाड़ने के लिए 30 वर्ष और लग गए। यही तो दुर्भाग्य है हम भारतीयों का।
…………जारी