आइए आने वाली पीढ़ियों को सौंपें एक स्वस्थ और सुरक्षित धरती
डॉ. अमित झालानी
आज जब कोरोना महामारी के कारण पूरी दुनिया में मनुष्य का जीवन घरों में कैद हो गया है तो प्रकृति मुसकुराती हुई प्रतीत हो रही है। नदी और तालाबों का पानी पहले से स्वच्छ हो गया है, पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ रहा है, तो दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में शामिल दिल्ली का वायु प्रदूषण सूचकांक 300 (अत्यधिक प्रदूषित श्रेणी) से घटकर 50 (बिल्कुल स्वस्थ श्रेणी) तक आ गया है। अमेरिकी लेखक और चिंतक अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक “मानवरहित दुनिया” में लिखते हैं कि यदि धरती से मनुष्य को लुप्त कर दिया जाए तो मात्र 500 वर्षों के भीतर यह पृथ्वी पुनः अपनी नैसर्गिक अवस्था प्राप्त कर लेगी। मनुष्य के द्वारा खड़े किए गए कॉन्क्रीट के जंगलों के स्थान पर स्वतः ही फिर से हरे-भरे पेड़ पौधे लहलहायेंगे और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होगी अमृत समान जल के साथ शुद्धतम प्राणवायु। इसका अर्थ यह निकलता है कि आधुनिक मानव की उपस्थिति धरती के लिए वरदान नहीं अभिशाप साबित हो रही है।
नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि संसाधनों के उपभोग का वर्तमान क्रम चलता रहा और कोई विशेष प्रबंध नहीं किए तो वर्ष 2030 तक भारत की 40% आबादी के पास पीने के लिए शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं होगा। जयपुर समेत भारत के 21 से अधिक शहरों में भूजल समाप्त हो जाएगा। यह समस्या अकेले भारत की नहीं अपितु पूरा विश्व ही इस तरह के भयावह हालात से गुजर रहा है। आज की विकट परिस्थितियाँ तो 7.8 अरब आबादी के साथ हैं। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि वर्ष 2050 तक विश्व की जनसंख्या 9.7 अरब को पार कर सकती है जो एक भीषण समस्या बन कर उभरेगी और हमारी आने वाली पीढ़ियों को मिलेगी एक प्रदूषित और बीमार पृथ्वी।
सिर्फ मांसाहार की आपूर्ति के लिए किए जाने वाले पशुपालन के क्षेत्र को देखें तो हम पाएंगे कि माँस की आपूर्ति के लिए बड़ी संख्या में कृत्रिम रूप से पशुओं को पैदा करवाया जाता है। किसी पशु से एक किलोग्राम माँस उत्पादन के लिए उसे औसतन 10 किलोग्राम अनाज खिलाना पड़ता है। इसके लिए बड़े बड़े जंगलों को नष्ट किया जा रहा है जिससे पूरा इकोसिस्टम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। बढ़ती बीफ की माँग के कारण अकेले ब्राजील में 11000 वर्ग किलोमीटर (राजस्थान का कुल वनक्षेत्र 16000 वर्ग किलोमीटर है) तक के जंगल प्रतिवर्ष समाप्त हो रहे हैं। इसी प्रकार प्रति किलो माँस उत्पादन के लिए 20940 लीटर पानी खर्च होता है जबकि प्रति किलो गेहूं उत्पादन में मात्र 503 लीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। इसी तरह 30 करोड़ टन प्लास्टिक कचरा दुनिया में प्रति वर्ष पैदा हो रहा है और अनुचित उपयोग और कुप्रबंधन के कारण इसका मात्र 10% ही रीसाइकल हो पाता है। शेष प्लास्टिक लैन्ड फिलिंग में या फिर नदी और समुद्र में बहा दिया जाता है। आने वाले समय में यह पृथ्वी को एक कूड़ेदान में बदलने के लिए पर्याप्त है।
पाश्चात्य जगत ने प्रकृति को उपभोग की एक वस्तु समझकर, इसका अति शोषण किया है और उसका ही अंधानुकरण आज भारत समेत पूरे विश्व में हो रहा है। पृथ्वी पर जो कुछ है वो मेरा है और मेरे उपभोग के लिए है, यह विचार मनुष्य को विनाश की ओर ले जा रहा है। भारतीय हिन्दू चिंतन के अनुसार सृष्टि और मनुष्य, दो अलग अस्तित्व नहीं है। जैसे पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, नदी, झरने, तालाब और पर्वत इत्यादि प्रकृति का हिस्सा हैं उसी प्रकार मनुष्य भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है। मनुष्य स्वयं में प्रकृति है, सृष्टि है। मनुष्य अपने अभिन्न समझे जाने वाले माता-पिता, मित्र और सगे संबंधियों से तो अलग रह सकता है, परंतु प्रकृति से अलग एक क्षण भी नहीं। पेड़ जो ऑक्सीजन देते हैं और भूमि जो अन्न, जल देती है, उसी से हम जीवित हैं और पंचतत्व से बना हमारा शरीर इसी सृष्टि में विलीन होता है। संसाधन तो सीमित हैं लेकिन इच्छाएं असीम। महात्मा गांधी ने कहा है कि प्रकृति के पास इतना तो है कि हम सबकी आवश्यकताएं पूरी हो सके, पर इतना नहीं कि लोभ शांत हो सके। जीवन को बेहतर बनाने के लिए गाड़ी, बंगले और मोबाईल की नहीं बल्कि निर्मल पानी, स्वच्छ वायु और रसायन-मुक्त पौष्टिक भोजन की आवश्यकता है। और इसके लिए सरकारों पर निर्भर न रहें। लोकतंत्र में कोई भी सरकार नीति तो बना सकती है पर नीयत नहीं बदल सकती।
तो आइए हम शाकाहार को प्राथमिकता दें, सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग बंद करें और बिजली- पानी का अपव्यय रोकें। पर्यावरण दिवस के अवसर पर हम अपनी जीवन शैली में ये छोटे से परिवर्तन लाकर दे सकते हैं आने वाली पीढ़ियों को एक स्वस्थ पर्यावरण और सुरक्षित पृथ्वी।
(लेखक ऊर्जा संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण पर शोध कार्य कर रहे हैं)