प्राचीन भारत एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति

प्राचीन भारत एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति

प्रीति शर्मा

प्राचीन भारत एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति

भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंध प्राचीन समय से आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के संगम के परिचायक रहे हैं। भारतीय अंतर्राष्ट्रीय संबंध वसुधैव कुटुंबकम एवं शांति तथा सहिष्णुता के आदर्शों के साथ-साथ समय आने पर बल प्रयोग द्वारा धर्म की स्थापना के समागम को प्रस्तुत करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों पर विचार व्यक्त करते हुए भारत की व्याख्या मृदु नीति का प्रयोग करने वाले देश के रूप में की जाती है। किंतु प्राचीन समय में रामायण एवं महाभारत काल में भी मूल्यों और आदर्शों का राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोग करने के साथ-साथ श्रीराम और श्रीकृष्ण ने भी अपनी शक्ति को बढ़ाने तथा बल प्रयोग कर शत्रु (अधर्मी) का विनाश कर धर्म की स्थापना करने का प्रयास किया था।

रामायण में श्रीराम ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के समस्त सिद्धांतों का पालन करते हुए नकारात्मकता को समाप्त किया था। जैसा कि हम तुलसी रामायण में पढ़ते हैं कि श्री राम ने किष्किंधा जैसे अन्य राज्यों से मैत्री संबंधों की स्थापना कर शक्ति संतुलन के सिद्धांत का पालन किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में मैत्री एवं संधि ऐसे तत्व हैं जिनके बिना किसी भी शत्रु को पराजित कर पाना विकट होगा। अतः श्री राम ने शत्रु को पराजित करने के लिए समय-समय पर अपने मार्ग के राज्यों के साथ संधि की स्थापना की, उसी प्रकार श्रीकृष्ण ने भी पांडवों को पड़ोसी राज्यों के साथ मैत्री संबंधों की स्थापना का निर्देश दिया था। श्री राम एवं श्री कृष्ण ने संधि के साथ-साथ संश्रय को भी महत्व प्रदान किया जो कि कौटिल्य द्वारा दिए गए अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के मूल तत्व हैं। श्रीराम ने विभीषण को संश्रय प्रदान कर एक कुशल युद्धनीति एवं परराष्ट्र संबंधों का संदेश दिया है।

इसी के साथ दूत भेजने और शांति के साथ युद्ध टालने जैसे आदर्श सिद्धांतों का पालन श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों ने किया और इसीलिए अपनी सेना के दूत श्री हनुमान एवं श्री कृष्ण स्वयं शत्रु के समक्ष शांति की स्थापना के लिए गए। दोनों धर्म ग्रंथों में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में राष्ट्र संबंधों के पालन की स्पष्ट व्याख्या की गई है जो न केवल आदर्शवादी बल्कि यथार्थवादी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की स्पष्ट परिचायक है।

भारत ना केवल शांति, अहिंसा तथा वसुधैव कुटुंबकम जैसे सिद्धांतों का ही पालन करता है बल्कि प्राचीन काल से ही अधर्म के विनाश के लिए यथार्थवादी सिद्धांत जैसे समय आने पर बल प्रयोग, शक्ति संतुलन की स्थापना एवं मानव हित को प्राथमिकता देने आदि का भी पालन करता आया है। अतः हमारे प्राचीन पौराणिक धर्म ग्रंथों में भी अध्यात्म तथा आदर्शों के साथ-साथ यथार्थवाद के भी दर्शन होते हैं।

रामायण एवं महाभारत के दोनों चरित्रों में एक विशेष भेद किया जाता है कि श्री राम सत्य एवं आदर्शों का पूर्ण तरह पालन करते हैं जबकि श्री कृष्ण द्वारा पूर्ण रूप से ऐसा नहीं किया जाता। इसको दोनों के युग के भेद द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। श्री राम का अवतार त्रेता युग में हुआ था जो कि धर्म एवं सत्य जैसे आदर्शों का युग था और तुलसी रामायण के अनुरूप रावण ने भी सीता के अपहरण के संबंध में समाज के समक्ष सत्य स्वीकारा जबकि दुर्योधन ने द्रोपदी के साथ दुर्व्यवहार के अपराध को कभी नहीं स्वीकारते हुए उसे अपना उचित कृत्य सिद्ध करने का प्रयास किया इसीलिए द्वापर युग के अवतार श्री कृष्ण ने शत्रु के व्यवहार के अनुरूप नीति अपनाने की बात की क्योंकि इस काल में सत्य का पूरी तरह पालन नहीं किया गया।

अतः कोरोना के इस काल में जहां भारत के ज्ञान और संस्कृति को सम्मान देने तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनाने की बात की जा रही है तब भारतीय प्राचीन ग्रंथों में भारत की राजनीति एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की जड़ें ढूंढना अति आवश्यक है। जैसा कि तुलसी रामायण के उत्तरकांड में श्री राम के अयोध्या पुनः लौटने के उपरांत के शासनकाल में उनके द्वारा राजसूय यज्ञ का प्रस्ताव रखने पर श्री भरत द्वारा श्री राम को यह कहते हुए मना करना कि एक धर्म के राजा को साम्राज्य विस्तार की अपेक्षा मानव हित के संदर्भ में सोचते हुए कार्य करना चाहिए। अतः आप के लिए राजसूय यज्ञ उचित नहीं है और इसीलिए लक्ष्मण द्वारा सुझाए गए अश्वमेध यज्ञ के प्रस्ताव को अस्वीकार किया गया। इसमें स्पष्ट है कि वर्तमान समय में विभिन्न देशों द्वारा साम्राज्यवादी नीति को अपनाने की अपेक्षा शीत युद्ध के बाद की अंतर्राष्ट्रीय नीतियां जिसमें मानव अधिकार एवं शस्त्र नियंत्रण सम्मिलित है, को महत्व दिया जाना अति आवश्यक है। अतः स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति एवं सिद्धांतों पर अधिकाधिक शोध किया जाए और उसे जीवन के विभिन्न आयामों पर सम्मिलित किया जाए क्योंकि वर्तमान समय एवं भविष्य की राजनीति तथा सामाजिक संस्थाओं के लिए भारतीय ग्रंथ प्राचीन काल में ही अत्यधिक कार्य कर प्राचीन काल में ही महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत कर चुके हैं।

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