फिल्म बस्तर : जनजातीय माताओं की व्यथा

फिल्म बस्तर : जनजातीय माताओं की व्यथा

दिवस गौड़

फिल्म बस्तर : जनजातीय माताओं की व्यथाफिल्म बस्तर : जनजातीय माताओं की व्यथा

प्रसिद्ध निर्माता विपुल शाह‌‌ एवं विख्यात निर्देशक सुदीप्तो सेन द्वारा निर्मित एवं अदा शर्मा द्वारा अभिनीत फिल्म ‘बस्तर’ आगामी शुक्रवार, 15 मार्च को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही है।

यह फिल्म सिर्फ बस्तर के जनजातीय समाज की कहानी भर नहीं है। यह बस्तर की उन जनजातीय माताओं की व्यथा है, जिनका जीवन नक्सलवाद / माओवाद की खूनी आंधी में उजड़ गया है। नक्सलवादी हर घर से एक बेटा उसकी मां के सामने उठा ले जाते हैं ताकि वे एक और नक्सली खड़ा कर सकें, अपनी कथित क्रांति के लिए। यदि पिता विरोध करे तो उसे 36 टुकड़ों में काट दिया जाता है।‌ ऐसे में उस मां का जीवन तो अभिशप्त होना ही है।

फिल्म की कहानी के केन्द्र में ऐसी ही एक मां है, जिसके सामने उसके पति को नक्सलियों द्वारा निर्ममता से मार दिया गया एवं बेटे को उठा ले गए। इस मां का सहारा बनती है सीआरपीएफ एवं सलवा जुडूम।

बस्तर की यह कहानी दर्शाती है कि किस प्रकार नक्सलवाद / माओवाद केवल जंगलों तक सीमित नहीं है, अपितु सिस्टम तक में रच बस चुका है। विश्वविद्यालयों में वामपंथी प्रोफेसर अपने छात्रों को यह नक्सली विष पिला रहे हैं। मीडिया जगत में कई कथित पत्रकार समाचारों के नाम पर नक्सली एजेंडा चला रहे हैं। न्यायालय में जिरह करने वाले वकील, यहां तक कि दलील सुनने वाले न्यायाधीश तक, सब की सोच में यह जहर समा चुका है। वामपंथी लेखक हों या कथित मानवाधिकार के रक्षक, ये सब नक्सलियों को पीड़ित बता रहे हैं।

जंगलों में लड़ने वाले नक्सली, एवं शहरों में बैठे ये अर्बन नक्सली एक ही हैं, जिनका गठजोड़ भारत में पाकिस्तान पोषित इस्लामिक आतंकवाद से भी हो चुका है।‌ इस विषय को फिल्म में जिस प्रकार उठाया गया है, वह सराहनीय है।‌ फिल्म के एक दृश्य में मानवाधिकार के कथित रक्षक, वामपंथी लेखक, वामपंथी शिक्षक, वामपंथी वकील, लश्कर ए तैयबा का आतंकवादी, LTTE का कमांडर, उल्फा का माओवादी एवं इन्हें विदेशों से सहायता भेजने वाले विदेशी वामपंथी एक टेबल पर बैठ कर भारत के 36 टुकड़े करने की योजना बना रहे हैं।

फिल्म में जिस प्रकार खुले आम लेफ्ट लिबरल्स एवं वामपंथी जैसे शब्दों का उपयोग हुआ है, ऐसा करने के लिए साहस चाहिए।

किस प्रकार सलवा जुडूम को नष्ट करने में अपनी ही तत्कालीन सरकार व न्यायालय लिप्त रहे हैं, इस सत्य को पर्दे पर उतारने के लिए सच में साहसी होना पड़ता है।

फिल्म जो संदेश देना चाहती है, वह सौ प्रतिशत देती दिखाई देती है। बस कुछ छोटी-मोटी कमियां अतिशयोक्ति के रूप में दृष्टिगोचर हुईं, जैसे कॉम्बैट एरिया से सीआरपीएफ कमांडर सीधे दिल्ली में देश के गृहमंत्री को सहायता के लिए फोन लगा देती है, इसे अतिशयोक्ति ही कहा जाएगा। परन्तु इसे नजरअंदाज किया जा सकता है।

सुदीप्तो सेन अपने निर्देशन का कौशल ‘द केरला स्टोरी ‘ में दिखा चुके हैं। वहीं कौशल ‘बस्तर’ में भी देखने को मिला।

अदा शर्मा भी अपने अभिनय का लोहा ‘द केरला स्टोरी ‘ में मनवा चुकी हैं। परन्तु केरला स्टोरी की लव जिहाद से पीड़ित शालिनी उन्नीकृष्णन एवं बस्तर की आईजी नीरजा माधवन में बहुत अंतर है। नीरजा के किरदार को पूरी ईमानदारी से निभा कर अदा ने यह सिद्ध कर दिया कि वे एक वर्सेटाइल आर्टिस्ट हैं।

अभिनय, निर्देशन, संगीत एवं कहानी, इन सब विषयों में फिल्म अधिकतम अंक प्राप्त करती है। बस चेतावनी यह है कि फिल्म के कुछ दृश्य इतने वीभत्स हैं कि इन्हे देखना सहज नहीं है।

यह फिल्म एक बार तो अवश्य ही देखी जानी चाहिए। विशेषकर उन युवाओं को तो अवश्य ही दिखाई जानी चाहिए, जो अभी कॉलेज या विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हैं ताकि वे नक्सलवाद की इस विषैली वामपंथी विचारधारा का हिस्सा ना बन सकें। इस विषय पर जागरूकता फैलाने के लिए फिल्म की पूरी टीम बधाई की पात्र है।

शुक्रवार को फिल्म सिनेमाघरों में पहुंच रही है और आशा है कि ‘बस्तर’ अपनी ही टीम की पुरानी फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ से कहीं बडी ब्लॉक बस्टर सिद्ध होगी।

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2 thoughts on “फिल्म बस्तर : जनजातीय माताओं की व्यथा

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